15 August 1947: देश जश्न में डूबा था, लेकिन दंगों के कारण सुनसान पड़ा था जलियांवाला बाग

जलियांवाला बाग में देश की आजादी के लिए सैकड़ों लोगों ने बलिदान दिया लेकिन आजादी के दिन 15 अगस्त 1947 को यहां सन्नाटा पसरा रहा। दरअसल विभाजन के कारण दंगे हो गए। लोग घरों में दुबक गए। सार्वजनिक स्थलों पर मारकाट होने लगी।

By Kamlesh BhattEdited By: Publish:Sat, 13 Aug 2022 01:35 PM (IST) Updated:Sat, 13 Aug 2022 01:35 PM (IST)
15 August 1947:  देश जश्न में डूबा था, लेकिन दंगों के कारण सुनसान पड़ा था जलियांवाला बाग
अमृतसर का पुराना फोटो, जिसमें क्लाक टावर भी दिख रहा है, जिसे बाद में नष्ट कर दिया गया। सौजन्य:पार्टीशन म्यूजियम

हरीश शर्मा, अमृतसर। 15 अगस्त, 1947 को देश आजादी का जश्न मना रहा था, लेकिन वह ऐतिहासिक स्थान, (जलियांवाला बाग) जहां सैकड़ों लोगों ने बलिदान दिया, वह सुनसान था। जलियांवाला बाग ही नहीं इसके आस-पास के इलाकों में भी सन्नाटा छाया था। इसका कारण यह था कि बंटवारे के साथ ही दंगे भड़क गए थे और सरहद के दोनों ओर मार-काट चल रही थी।

समाज सेवक 85 वर्षीय पीएस भट्टी उस दिन को याद करते हुए बताते हैं कि जब बंटवारे का एलान हुआ तो अलग ही माहौल बनना शुरू हो गया था। छह अगस्त को कोलकाता में दंगे शुरू हो गए थे। इसके बाद 12, 13 व 14 अगस्त की रात को पंजाब और खास कर अमृतसर भी इनकी चपेट में आ चुका था। दो समुदायों के टकराव के कारण हजारों लोग मारे गए।

यही कारण था कि अमृतसर में आजादी का जश्न कहीं नहीं दिखाई दे रहा था। उल्टा हर तरफ मातम पसरा था। पाकिस्तान से आने-जाने के लिए तीन रास्ते थे। इनमें से एक कसूर से खेमकरण, दूसरा सुलमानकी से फाजिल्का और तीसरा डेरा बाबा नानक वाला रास्ता था। डेरा बाबा नानक से गाड़ी आती-जाती थी। सबसे ज्यादा रिफ्यूजी कसूर से खेमकरण के रास्ते आए थे। क्योंकि यही रास्ता सबसे सुरक्षित था। बाकी सब जगह दंगे आक्रामक रूप ले चुके थे।

रिटायर्ड बैंक मैनेजर 88 वर्षीय जगदीश राय बताते है कि तब मेरी उम्र 13 साल थी। जलियांवाला बाग में आए दिए धरने व प्रदर्शन होते रहते थे, लेकिन जब आजादी का समय आया तो यह पूरी तरह सुनसान पड़ा था। आस-पास के घरों में लोग रोशनी जलाने से भी गुरेज कर रहे थे।

परिवार वाले घर से बाहर नहीं निकलने देते थे, क्योंकि दंगे भड़के हुए थे। जलियांवाला बाग या आस-पास कहीं पर भी खुशी नहीं दिखाई देती थी। यहां कई लोगों के घर जले हुए थे। ये सब दंगों की भेंट चढ़ गए थे। करीब आठ-दस दिन के बाद जब माहौल थोड़ा ठीक हुआ तो उन लोगों ने घर से बाहर निकलना शुरू किया। उसके बाद ही जलियांवाला बाग में चहल-पहल शुरू हुई। लोग जब भी वहां जाते, तो वहां की पवित्र मिट्टी अपने साथ ले आते थे।

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