जय हिंद: आजाद होने पर मिली थी खुशी, नरसंहार से खून के आंसू रोया था मन

आजादी के क्षणों के गवाह कुछ ही लोग बचे हैं और इनमें ही हैं गांव औजला के निवासी दलीप सिंह। वह उस समय को मंजर कर खुशियों से भर जाते हैं तो विभाजन के दौरान नरसंहार से कांप उठते हैं।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Publish:Thu, 15 Aug 2019 12:55 PM (IST) Updated:Fri, 16 Aug 2019 09:24 AM (IST)
जय हिंद: आजाद होने पर मिली थी खुशी, नरसंहार से खून के आंसू रोया था मन
जय हिंद: आजाद होने पर मिली थी खुशी, नरसंहार से खून के आंसू रोया था मन

कलानौर (गुरदासपुर), [महिंदर सिंह अर्लीभन्न]। आज हम देश का 73वां स्‍वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। इतने साल बाद कम लोग ही बचे हैं, जिन्होंने देश को आजाद होते देखा है। उन ऐतिहासिक पलों के एक गवाह हैं सेना से सेवानिवृत हवलदार दलीप सिंह औजला। वह आजादी के दिनों की बातें बताते हैं तो उनकी आंखें चमक सी जाती हैं। वह कहते हैं कि आजाद होने पर खुशी तो मिली थी, लेकिन भारत-पाक विभाजन के दौरान जो नरसंहार हुआ था, उसे याद कर दिल आज भी खून के आंसू रो पड़ता  है। ऐसा नरसंहार कि पत्थर दिल इंसान भी पिघल जाए। हर कोई अपनी जान बचाने में लगा हुआ था। किसी को नहीं पता था कि मौत कहां से आ जाएगी। बहुत दहशत भरे वे दिन थे।

सेना से सेवानिवृत हवलदार दलीप सिंह आजादी के दिनों की दास्तां सुनाते समय हो जाते हैं भावुक

कलानौर ब्‍लाॅक के तहत आते गांव औजला के निवासी दलीप सिंह औजला ने बातचीत में पूरे मंजर को बयां किया। वह बोले, 'मेरा जन्म पाकिस्तान के जिला सियालकोट स्थित शहर नारोवाल में 3 अप्रैल 1928 को हुआ था। मेरे पिता घसीटा सिंह व माता करतार कौर थीं। मैंने पाकिस्तान स्थित नारोवाल के खालसा हाई स्कूल में मैट्रिक की पढ़ाई की थी। हम तीन भाई और एक बहन थी। मैं 10 फरवरी 1946 को नारोवाल में फौज में भर्ती हुआ। इसके उपरांत जबलपुर स्थित कोर ऑफ सिग्नल में मई 1947 में ट्रेनिंग खत्म हुई।

परिजनों के साथ दलीप सिंह औजला (बीच में)।

भारत-पाक विभाजन से पहले हिंदू, सिख और मुस्लिम फौजी जवानों की बैरकें कर दी थीं अलग-अलग

दिलीप सिंह कहते हैं, ट्रेनिंग खत्म करने के बाद पहली छुट्टी मिलने पर अपने गांव नारोवाल आ रहा था। दिल्ली पहुंचने पर गांव जाने के लिए गाड़ी नहीं मिलने पर वापस यूनिट में चला गया। अगस्त के पहले सप्ताह जबलपुर स्थित कोर सिग्नल की यूनिट में तैनात था। इस दौरान परिवारिक सदस्यों से संपर्क टूट चुका था। इसी समय अंग्रेज कर्नल ने भारत-पाकिस्तान बंटवारे को लेकर हिंदू, सिख और मुस्लिम सैनिकों की बैरकें अलग कर दी थीं। यहां तक कि लंगर, धोबीघाट, नाई, गार्ड और जूते सिलाई करने वाले मोचियों को भी अलग कर दिया गया था।

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भाई और सेना की मदद से पहुंचे थे गांव

बकौल दलीप सिंह, बंटवारे से पहले शांति थी। बाद में नरसंहार शुरू हो गया था। मेरे बड़े भाई जरनैल सिंह रावलपिंडी में फौज के कार्यालय में तैनात थे। वह छुट्टी पर घर आए हुए थे। धारीवाल थाने में तैनात ताये के बेटे थानेदार हरवंत सिंह के सहयोग से अपने परिवार को पहली ट्रेन से भारत आए। वे धारीवाल के गांव डडवां में रहे। मैं अपने  फौजी भाई जरनैल सिंह और फौज के अधिकारियों की सहायता से चार माह बाद 30 जनवरी 1948 को अपने गांव पहुंचा। हमें  रहने के लिए गांव औजला स्थित अंग्रेज रेस्ट हाउस, जिसको औजला कोठी कहा जाता है, मिला। इसके बाद जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी।

बेरोजगारी देख होता है मन को मलाल

पुराने दिनों को याद करते हुए हवलदार दलीप सिंह कहते हैं कि अंग्रेजों के शासन के दौरान अमीर और गरीब को इंसाफ मिलता था। विडंबना यह है कि आज की सरकारें इंसाफ देने और कानून-व्यवस्था बनाए रखने में असफल रही हैं। देश की आजादी के 70 साल बाद युवा बेरोजगार घूम रहे हैं। यह बेहद दयनीय स्थिति है।

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वह बताते हैं कि अंग्रेजों के  शासन के दौरान मैं जब भर्ती प्रकिया में शामिल होने गया था तो मुझे दस रुपये भत्ता दिया गया था। सेना में युवकों को भर्ती करवाने वाले को भी अंग्रेज सरकार दस रुपये देती थी। जब सेना में भर्ती हुआ था तो 50 रुपये माह वेतन  और 15 रुपए मैट्रिक अलाउंस मिला था। सेना से रिटायरमेंट के बाद 29 अक्टूबर 1968 को होमगार्ड में प्लाटून कमांडर के रूप में मेरी भर्ती हुई थी।

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