जीवन में कोई पछतावा नहीं, यही मेरे लिए कामयाबी है : सुधा मूर्ति

इंफोसिस के लिए कई वर्ष काम किया। देश-विदेश में लोगों की मदद की।

By JagranEdited By: Publish:Sun, 22 Nov 2020 07:19 AM (IST) Updated:Sun, 22 Nov 2020 07:19 AM (IST)
जीवन में कोई पछतावा नहीं, यही मेरे लिए कामयाबी है : सुधा मूर्ति
जीवन में कोई पछतावा नहीं, यही मेरे लिए कामयाबी है : सुधा मूर्ति

शंकर सिंह, चंडीगढ़ : इंफोसिस के लिए कई वर्ष काम किया। देश-विदेश में लोगों की मदद की। करीब 16 बार कुदरती आपदा से लड़ते हुए कार्य किया। कभी कामयाबी के बारे में नहीं सोचा। कामयाबी के सभी के लिए अपने अपने अर्थ हैं। अपने किए सभी कार्य में किसी से भी पछतावा नहीं, यही मेरी कामयाबी है। मैं संतुष्ट हूं, इसलिए कामयाब हूं। इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति कुछ इन्हीं शब्दों में कामयाबी पर बात करती हैं। शनिवार को लिटराटी-2020 के दौरान पहला सेशन उनके और पूर्व आइएएस विवेक अत्रे के बीच रहा। जिसमें उनकी किताब ग्रैंडमा बैग ऑफ स्टोरी पर भी चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि जीवन में पैशन को फॉलो किया। इंजीनियरिग कॉलेज में एडमिशन लिया तो एकमात्र लड़की थी। समाज को लड़की क्या कर सकती है, ये दिखाना था। पूरे कॉलेज और हर डिपार्टमेंट में प्रथम रही। वर्ष 1974 में नौकरी ढूंढ़ी तो पाया कि टेल्को (अब टाटा मोटर्स) में केवल लड़कों के लिए भर्ती है। एक पोस्टकार्ड कंपनी के संस्थापक जेआरडी टाटा को लिखा। उन्होंने इंटरव्यू के लिए पुणे बुलाया। आने-जाने का सारा खर्च भी उठाया। इंटरव्यू अच्छा गया, टाटा ने कहा कि ये नौकरी इसलिए मर्दो के लिए है, क्योंकि इसके लिए आपको घर से दूर हॉस्टल में रहना होगा और बड़ी वर्किंग फोर्स इससे जुड़ी है। फिर मन में नौकरी न करते हुए पीएचडी करने का विचार आया। पिता ने डांटा, बोले कि पीएचडी करने के बाद अमेरिका चली जाओगी, शादी कर लोगी और फिर वापस आओगी तो देखोगी कि महिलाओं की देश में वही अवस्था है। उन्होंने नौकरी करने के लिए प्रेरित किया। ऑफिस में शाम तक टाटा मेरे बाहर निकलने तक ऑफिस में रहते थे। उनके अनुसार ये उनकी जिम्मेदारी थी कि ऑफिस में कोई महिला कर्मचारी हो तो उसके निकलने के बाद ही वह जाएं। मैंने वहीं से मानवता की भलाई से जुड़े कार्य सीखे।

लेखन सरस्वती मां का आशीर्वाद

लेखन पर मूर्ति ने कहा कि ये सरस्वती का आशीर्वाद है। स्कूल-कॉलेज में लेख लिखती थी। इंजीनियरिग के दौरान ये छूट गया। नौकरी के दौरान फिर लिखने लगी। 28 वर्ष की उम्र में पहली बार लिखा। दसवीं तक कन्नड़ भाषा में पढ़ाई की। फिर अंग्रेजी में लिखने लगी। ग्रैंडमा बुक ऑफ स्टोरी कोरोना वायरस के दौरान लगे लॉकडाउन में लिखी। नारायण मूर्ति से जुड़े अपने संबंध में सुधा ने कहा कि वह एक एम्पायर खड़ा कर रहे थे। काफी व्यस्त रहते थे। ऐसे में मैंने उन्हें कभी डिस्टर्ब नहीं किया। उन्होंने मुझे समझा और मैंने उन्हें। इसी से हम एक दूसरे के लिए बेहतर बने रहें।

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