जन्मस्थान को न्यायिक व्यक्ति मानने के लिए क्या जरूरी है, मुस्लिम पक्ष से सुप्रीम कोर्ट का सवाल

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि बताएं कि देवता की ऐसी कौन सी विशेषताएं है जो कि जन्मस्थान को देवता की तरह न्यायिक व्यक्ति मानने के लिए जरूरी होनी चाहिए। जिस पर विचार हो।e

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Fri, 13 Sep 2019 10:59 PM (IST) Updated:Fri, 13 Sep 2019 10:59 PM (IST)
जन्मस्थान को न्यायिक व्यक्ति मानने के लिए क्या जरूरी है, मुस्लिम पक्ष से सुप्रीम कोर्ट का सवाल
जन्मस्थान को न्यायिक व्यक्ति मानने के लिए क्या जरूरी है, मुस्लिम पक्ष से सुप्रीम कोर्ट का सवाल

माला दीक्षित, नई दिल्ली। अयोध्या राम जन्मभूमि मामले में जन्मस्थान को न्यायिक व्यक्ति बताते हुए उसकी ओर से जमीन पर मालिकाना हक का दावा किये जाने का विरोध कर रहे मुस्लिम पक्ष से सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि ऐसी कौन सी विशेषताएं हैं जो जन्मस्थान को देवता की तरह न्यायिक व्यक्ति मानने के लिए जरूरी होनी चाहिए।

जमीन का टुकड़ा न्यायिक व्यक्ति नहीं

मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने जब कहा कि जमीन का टुकड़ा न्यायिक व्यक्ति कैसे माना जा सकता है और उसकी ओर से मुकदमा कैसे दाखिल किया जा सकता है तो कोर्ट ने उन पर सवालों की झड़ी लगा दी। मामले में सोमवार को फिर बहस होगी।

राजीव धवन ने रामलला के मुकदमें में जन्मस्थान को भी एक पक्षकार बनाने का विरोध करते हुए कहा कि 1989 में (रामलला की ओर से जन्मभूमि पर मालिकाना हक का मुकदमा दाखिल किया गया) एक नयी अवधारणा पैदा हुई जिसमें स्थान को न्यायिक व्यक्ति बताते हुए उसकी ओर से मुकदमा दाखिल किया गया। जमीन का टुकड़ा न्यायिक व्यक्ति कैसे हो सकता है।

हिन्दू पक्ष का मामला सिर्फ आस्था और विश्वास पर आधारित है

हिन्दू पक्ष का पूरा मामला सिर्फ आस्था और विश्वास पर आधारित है। वे स्कंद पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों का हवाला दे रहे हैं, लेकिन कोर्ट को कानूनी पहलू भी देखना होगा। इस पर जस्टिस अशोक भूषण ने कहा कि उन्होंने दलील के पक्ष में मौखिक सबूत भी पेश किये है।

जन्मस्थान होने की आस्था और विश्वास के बारे में सबूत हैं

धवन ने कहा कि 1950 के पहले का कौन सा मौखिक सबूत उपलब्ध है। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हिन्दुओं ने उस स्थान के जन्मस्थान होने की आस्था और विश्वास के बारे में सबूत दिये हैं। उनका कहना है कि जन्मस्थान न्यायिक व्यक्ति है।

आस्था पर सवाल नहीं हो सकता- जस्टिस बोबडे

जस्टिस एसए बोबडे ने कहा कि आस्था पर सवाल नहीं हो सकता। हालांकि जन्मस्थान को न्यायिक व्यक्ति मानने के सवाल पर विचार हो सकता है। धवन ने कहा कि पहली बार 1989 में जन्मस्थान को न्यायिक व्यक्ति बताया गया। जस्टिस बोबडे ने कहा कि इससे पहले कौन सा मौका आया था जब वह बताते कि यह जन्मस्थान है और यह न्यायिक व्यक्ति है।

जस्टिस भूषण ने कहा कि न्यायिक व्यक्ति कानून एक विकसित हो रही अवधारणा है इसके 500 साल से होने की बात नहीं की जा सकती। धवन ने कहा कि इस मामले में विकसित होती अवधारणा के दूरगामी परिणाम होंगे। अगर कोर्ट पूरे क्षेत्र को देवता मानने की दलील स्वीकार कर लेगा तो किसी दूसरे का उस पर कोई अधिकार ही नहीं रहेगा।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि वह बताएं कि देवता की ऐसी कौन सी विशेषताएं है जो कि जन्मस्थान को देवता की तरह न्यायिक व्यक्ति मानने के लिए जरूरी होनी चाहिए। जिस पर विचार हो।

हिन्दुओं की आस्था

धवन ने कहा कि हिन्दू कहते हैं कि पहाड़, सरोवर, नदी सभी की पूजा होती है, लेकिन मेरी दलील है कि यह वैदिक संस्कृति है जिसमें सूर्य चंद्र सबकी पूजा होती है, लेकिन उन्हें यहां नहीं बुलाया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि उस स्थान की पवित्रता को लेकर हिन्दुओं की आस्था है।

धवन ने कहा कि जगह की पवित्रता होती है। संगम को पवित्र जगह माना जाता है, लेकिन हर चीज को नहीं माना जा सकता। स्थान पवित्र होता है। काबा को भी पवित्र स्थान माना जाता है। उसमें दिव्यता अंतरनिहित है।

जस्टिस बोबडे पूछा कि काबा स्वयंभू है या निर्मित है। इस पर वकील एजाज मकबूल ने कहा कि इसे पैगम्बर ने बनाया था। कोर्ट ने सवाल किया कि स्वयंभू किसे कहते हैं। धवन ने कहा कि स्वयं भू (देवता) उसे कहते हैं जो आकार लेता है जैसे बर्फ जब लिंगम का आकार लेती है तो शिवलिंग की पूजा होती है। इस पर जस्टिस बोबडे ने कहा कि स्वयंभू खुद में विद्यमान है वह सृजित नहीं होता।

रामलला के निकट मित्र का किया विरोध

धवन ने रामलला के निकट मित्र बनकर देवकी नंदन अग्रवाल द्वारा मुकदमा दाखिल करने का विरोध करते हुए कहा कि अगर इस तरह किसी को भी देवता का निकट मित्र बनकर मुकदमा दाखिल करने की इजाजत दी जाएगी तो इससे तबाही आ जाएगी कोई भी आकर मुकदमा दाखिल कर देगा।

वहां बाबरी मस्जिद थी और मुस्लिम करते थे नियमित नमाज

मुस्लिम पक्ष की ओर से वकील जफरयाब जिलानी ने हिन्दू पक्ष की वहां मस्जिद न होने और 1934 के बाद से नमाज न पढ़े जाने की दलील का विरोध करते हुए कहा कि अयोध्या में उस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी और मुसलमान वहां 1934 से 1949 तक नियमित नमाज पढ़ते थे। जिलानी ने अपनी बात साबित करने के लिए कुछ दस्तावेज भी कोर्ट के समक्ष पेश किये जिसमें इमाम के वेतन और 1934 में हुए दंगे में मस्जिद के कुछ टूट गए हिस्से के पुननिर्माण और मुआवजा दिये जाने से संबंधित थे।

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