एससी-एसटी एक्‍ट: जानिए- मध्य प्रदेश में उग्र हुए दलित आंदोलन के क्या हैं मायने

जिस जातिवादी राजनीति के कलंक से मध्यप्रदेश बचा हुआ था, वह कलंक उसके माथे चस्पा हो गया। सोमवार की घटना के राजनीतिक मायने समझना आसान नहीं है।

By Monika MinalEdited By: Publish:Wed, 04 Apr 2018 10:45 AM (IST) Updated:Wed, 04 Apr 2018 11:14 AM (IST)
एससी-एसटी एक्‍ट: जानिए- मध्य प्रदेश में उग्र हुए दलित आंदोलन के क्या हैं मायने
एससी-एसटी एक्‍ट: जानिए- मध्य प्रदेश में उग्र हुए दलित आंदोलन के क्या हैं मायने

भोपाल, नई दुनिया (ऋषि पाण्डे)शांति का टापू कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को लेकर सोमवार को जो कुछ हुआ, उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। फैसले के समर्थक और विरोधियों के बीच सड़कों पर हुई आर-पार की लड़ाई में न सिर्फ आठ लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा, बल्कि प्रदेश की साख भी धूल धूसरित हुई है। जिस जातिवादी राजनीति के कलंक से मध्यप्रदेश बचा हुआ था, वह कलंक उसके माथे चस्पा हो गया। फौरी तौर पर इसके दुष्परिणाम तो सोमवार को ही सामने आ गए, लेकिन दूरगामी परिणामों की आहट सियासतदाताओं की नींद उड़ाने के लिए काफी है। सोमवार की घटना के राजनीतिक मायने समझना आसान नहीं है।

समाज में विभाजन

ग्वालियर, मुरैना, भिंड, सागर समेत एक दर्जन से अधिक शहरों की सड़कों पर तलवार, लाठी और झंडे लहराते लोगों के हुजूम से समाज में हुआ विभाजन तो साफ तौर पर दिखाई दे गया, लेकिन राजनीतिक स्तर पर वोटों के विभाजन का पता चुनाव के दौरान ही चल पाएगा। सन 2003 के बाद से सूबे का सतरंगी सामाजिक समीकरण भाजपा के पक्ष में रहा है। इससे पहले परंपरागत रूप से अगड़ी जातियों का वोट भाजपा का और पिछड़ा, दलित और आदिवासियों का वोट कांग्रेस का माना जाता रहा है। इसलिए तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा अकेले अगड़ी जातियों के दम पर सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाई थी।

2003 में बदले हालात

2003 में भाजपा ने अपनी प्राथमिकताएं बदलीं, चेहरे बदले और पिछड़ा, दलित व आदिवासियों में यह संदेश पहुंचाया कि वह सिर्फ अगड़ों की प्रतिनिधि नहीं है। इसका असर यह हुआ कि कभी कांग्रेस समर्थित रहा यह वर्ग भाजपा की झोली में आ गया। प्रदेश में भाजपा सरकार की हैट्रिक में दलित, पिछड़ा और आदिवासी वोटरों की निर्णायक भूमिका रही है। सूबे की 35 एससी सीटों में से 28 और 47 एसटी सीटों में से 32 भाजपा के पास हैं। लोकसभा सदस्यों के लिहाज से देखा जाए तो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित चारों सीटें भाजपा के पास हैं। जबकि अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित छह में से पांच सीटों पर भाजपा का कब्जा है। इससे समझा जा सकता है कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का जनाधार इन वर्गो में कितना मजबूत है।

जातीय हिंसा के बाद उठे सवाल

सवाल यह है कि क्या इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी हालात ऐसे ही रह पाएंगे। सोमवार को हुई जातीय हिंसा के बाद इस सवाल के बड़े मायने हैं। प्रदेश के जिस अंचल में हिंसा हुई वहां के सामाजिक और राजनीतिक समीकरण पर गौर करें तो एक सवाल और खड़ा होता है कि आखिर प्रदेश के इसी अंचल में हिंसा क्यों भड़की? ग्वालियर-चंबल संभाग उत्तरप्रदेश की सीमा से सटा हुआ है। यहां जातिवादी राजनीति का असर रहा है। पूरे प्रदेश में बसपा का यदि सबसे ज्यादा जोर किसी इलाके में है तो वह ग्वालियर-चंबल संभाग ही है। इस इलाके का आरक्षित वोटर नाराज हो कर भाजपा से टूटता है तो समझा जा सकता है कि हालात क्या होंगे। जैसी संभावना है, यदि बसपा और कांग्रेस के बीच समझौता हो जाता है तो भाजपा की चुनावी उम्मीदें कैसे परवान चढ़ पाएंगी? भाजपा के सामने अकेले दलित वोट साधने की चुनौती ही नहीं है, आदिवासी वर्ग में खड़े हो रहे कुछ सामाजिक संगठन भी परेशानी खड़ी कर रहे हैं। सोमवार के दलित आंदोलन में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में आदिवासी युवाओं का सड़कों पर उतरना भी भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है।

भाजपा-कांग्रेस का अपना तर्क

मप्र भाजपा के प्रवक्‍ता दीपक विजयवर्गीय ने कहा, ‘चुनाव के कारण अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग की आड़ में कुछ स्वार्थी तत्व राजनीतिक लाभ के लिए जातीय विद्वेष फैलाने का काम कर रहे हैं। प्रदेश में सोमवार को जो कुछ भी घटित हुआ, उसके पीछे वही ताकतें हैं जो रोहित वेमूला से लगाकर पुणे की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के पीछे रही हैं। मध्यप्रदेश को इसलिए निशाने पर लिया गया, क्योंकि यहां निकट भविष्य में चुनाव होने वाले हैं।‘

वहीं मप्र कांग्रेस के प्रवक्‍ता केके मिश्रा ने कहा, ‘षड्यंत्रकारी उजागर हों मध्यप्रदेश में हुई हिंसा के पीछे देश व प्रदेश में जातीय संघर्ष उभारकर राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी का नियोजित षड्यंत्र रचा गया था, ताकि चुनावों की सन्निकटता को दृष्टिगत रखकर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा सकें। आवश्यकता इस बात की है कि वे षषड्यंत्रकारी चेहरे उजागर हों।‘

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