SP BSP alliance: सपा, बसपा गठजोड़ का यूपी में असर, राह न तब आसान थी और न अब

SP BSP alliance सपा- बसपा गठबंधन ने भाजपा को सत्ता के खेल से बाहर करने का एलान कर दिया, लेकिन दस्तावेज गवाह हैं कि राह न तब आसान थी और न अब है।

By Sanjeev TiwariEdited By: Publish:Sun, 13 Jan 2019 11:36 AM (IST) Updated:Sun, 13 Jan 2019 11:38 AM (IST)
SP BSP alliance: सपा, बसपा गठजोड़ का यूपी में असर, राह न तब आसान थी और न अब
SP BSP alliance: सपा, बसपा गठजोड़ का यूपी में असर, राह न तब आसान थी और न अब

लखनऊ, [आनन्द राय ]। SP BSP alliance बसपा अध्यक्ष मायावती ने बड़े ही आत्मविश्वास से 1993 के गठबंधन की याद दिलाकर भाजपा को सत्ता के खेल से बाहर करने का एलान कर दिया, लेकिन दस्तावेज गवाह हैं कि राह न तब आसान थी और न अब है। तब अकेले भाजपा ने गठबंधन को मिली सीटों से एक सीट ज्यादा जीती थी। तब भाजपा के पास राम मंदिर आंदोलन का समर्थन था। अब वहीं हिंदुत्व और विकास के एजेंडे के साथ ही जातीय गोलबंदी में भी सक्रिय हो गई है।

लोकसभा चुनाव के लिए बराबर- बराबर सीटों पर सपा-बसपा के गठबंधन ने राजनीतिक हलचल पैदा कर दी है।

इस बार गठबंधन में बसपा और सपा ने संतुलन और संयम के साथ एक-दूसरे को सम्मान देने की पहल की है। 1993 में न बराबरी थी और न ही इस बार की तरह सावधानी।

1984 में अस्तित्व में आयी बसपा और 1992 में स्थापित सपा की तब ऐसी पहचान नहीं थी। दोनों दल नए थे और दोनों पर किसी तरह के घोटाले का भी कोई आरोप नहीं लगा था। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल आंदोलन को पीछे छोड़कर राम मंदिर आंदोलन का कमंडल दौड़ रहा था। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या के विवादित ढांचा ध्वंस मामले में भाजपा की कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त हुई थी। उस दौर में दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के गठजोड़ से सपा-बसपा गठबंधन ने नई पारी शुरू की थी। भाजपा 422 सीटों पर मैदान में थी। बसपा 164 तथा सपा 256 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी।

बसपा को 67 और सपा को 109 सीटें मिलीं, जबकि अकेले 177 सीटें भाजपा ने जीतीं। 421 सीटों पर लड़ रही कांग्रेस को सिर्फ 28 सीटों पर संतोष करना पड़ा। भाजपा ने सरकार बनाने का दावा भी किया लेकिन, कांग्रेस के समर्थन से मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बन गये। इस बार भाजपा की केंद्र और प्रदेश में सरकार है। गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में पराजय के कड़वे स्वाद ने भाजपा को सजग कर दिया है। वह इन दोनों दलों के खेल से आगे निकलने के लिए सियासी बिसात पर गोटियां बिछा रही है।

भाजपा के पास हिंदुत्व के नाम पर योगी आदित्यनाथ का चेहरा है तो पिछड़ों के नाम पर उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य हैं। 2017 के चुनाव से ही केशव ने अति पिछड़ी जातियों की गोलबंदी करके भाजपा का समीकरण बनाया है। पिछड़ों के बड़े कार्ड नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का चुनावी प्रबंधन भी बूथों तक है। ऐसे में सपा- बसपा गठबंधन द्वारा एकतरफा भाजपा की राह रोकने के एलान पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

कांशीराम-मुलायम बैनर से गायब 

लोकसभा चुनाव के लिए किया गया सपा-बसपा का गठबंधन कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के 1993 के

गठबंधन का नया संस्करण कहा जा रहा है लेकिन, इसमें फर्क है। गठबंधन के नए बैनर से कांशीराम और मुलायम दोनों गायब हैं। ताज होटल में जो बैनर लगा उसमें मायावती और अखिलेश के अलावा डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ.राम मनोहर लोहिया की ही तस्वीर थी। यह शायद दो जून, 1995 के गेस्ट हाऊस कांड की टीस को भुलाने का एक बहाना है क्योंकि बसपा के पुराने कार्यकर्ता आज भी मुलायम सिंह यादव को दुश्मन निगाहों

से देखते हैं।

इटावा उपचुनाव में पड़ी थी गठबंधन की नींव

 मायावती और अखिलेश यादव कीकरीबी गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव से पहले हुई। दिल्ली की राजनीति में सक्रिय प्रोफेसर राम गोपाल यादव और बसपा के सतीश मिश्र इसकी कड़ी बने। फिर एक-दूसरे के बीच मुलाकातों

का सिलसिला शुरू हुआ। इसके पहले 1993 में मुलायम और कांशीराम के बीच भी इटावा उपचुनाव में गठबंधन की नींव पड़ी थी। इसके बाद दोनों दलों ने मिलकर चुनाव लड़ने का एलान किया। कांशीराम और मुलायम के बीच मायावती के उभार ने समीकरण बदले। उत्तर प्रदेश में 1993 में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन,

अफसरों की तैनाती से लेकर महत्वपूर्ण फैसलों में मायावती का हस्तक्षेप होता था। इससे कड़वाहट बढ़ती गई।

 सपा- बसपा गठजोड़ का असर

1993 में सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और बसपा संस्थापक कांशीराम के गठजोड़ के ठीक 25 साल बाद 2019 में होने वाले आम चुनाव में मोदी को शिकस्त देने के उद्देश्य से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती ने एक बार फिर गठबंधन किया है।

2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को जितना वोट मिला, करीब उतना ही दोनों क्षेत्रीय दलों सपा और बसपा का संयुक्त रूप से रहा। अंतर सिर्फ इतना रहा कि दोनों दल साथ मिलकर नहीं लड़े थे। 

1993 में विधानसभा चुनाव में दोनों दल साथ चुनाव लड़े और तब दोनों पार्टियां अपने शीर्ष नेताओं मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के नेतृत्व में अपने चरम पर थीं, लेकिन दोनों का कुल वोट शेयर भाजपा से कम रहा था।

वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो स्थिति थोड़ा अलग है। भाजपा को अकेले 39.7 फीसद वोट मिला था। सपा को 21.9 और बसपा को 22.2 फीसद वोट हासिल हुआ था। भाजपा गठबंधन (भाजपा+ अपना दल+ एसबीएसपी) की बात करें तो 41.35 फीसद वोट मिला और सपा को मिलाकर देखें तो 44.05 फीसद वोट मिला था।

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