जीवन से भरे रंगीन थैले हैं मेरे पास

वह जब जम्मू आती हैं तो घिरी रहती हैं बहुओं, भतीजियों और पोतियों से। सबसे मिलती हैं और सबको डांटती भी चलती हैं। सुख-दुख के हल्के-चटख रंगों से सराबोर स्त्री जीवन का उत्सव की तरह आनंद लेती हैं मशहूर लेखिका पद्मा सचदेव

By Babita kashyapEdited By: Publish:Tue, 24 May 2016 12:02 PM (IST) Updated:Tue, 24 May 2016 12:30 PM (IST)
जीवन से भरे रंगीन थैले हैं मेरे पास

वह न बहाव के साथ हैं, न धारा के विरुद्ध। जैसा मन करता है, करती हैं, लिखती हैं और मनवा जाती हैं अपने अंदाज का लोहा। जीवन के 77वें वर्ष में प्रवेश करते हुए डोगरी में लिखी गई उनकी आत्मकथा के लिए पिछले दिनों सरस्वती सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है। लक्ष्मी (पद्मा) तो आप हैं ही, अब सरस्वती सम्मान भी मिल गया, कैसा लग रहा है? सच कहूं तो मुझे यकीन ही नहीं आ रहा। कई लोगों के फोन आए, कितने ही एसएमएस आए, जैसे अखबार में ढेरों खबरें पढ़ती हूं यह भी ऐसी ही खबर लग रही है। यूं जैसे कोई बादल सा उड़ रहा हो। वह दिखता तो है, पर खुद से जुड़ नहीं पाता। जब बादल बरसेगा तो सोचूंगी कैसा लग रहा है।

25 भाषाओं के बीच डोगरी ने यह खास मुकाम बनाया, क्या डोगरी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में कामयाब हो रही है?

निश्चित ही। डोगरी एक मजबूत भाषा बनकर उभर रही है। वह हीनभावना जो कभी डोगरों में अपनी बोली को लेकर थी वह पांच-छह दशक पुरानी बात हो गई है। अब जो लड़कियां डोगरी में लिख रही हैं वे तो मुझसे भी अच्छा

लिख रही हैं।

क्या कोई क्षेत्रीय भाषा वैश्विक अपेक्षाओं को पूरा कर सकती है?

सूचना क्रांति से ज्यादा ग्लोबल हो रही दुनिया के लिए रोजीरोटी के कारण जिम्मेदार हैं। जब पढ़े-लिखे नौजवानों को अपने शहर में नौकरी नहीं मिलती तो उन्हें बाहर का रुख करना पड़ता है। दूसरे शहर या दूसरे राज्य की बात तो छोडि़ए, अब तो बच्चे कॅरियर की शुरुआत ही दूसरे देश से कर रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे अपनी मातृभाषा या अपनी क्षेत्रीयता से दूर हो गए हैं, बल्कि दूर जाने के बाद उन्हें अपनी देशज भाषा और संस्कृति से हमसे ज्यादा प्यार हो जाता है। आस्ट्रेलिया, अमेरिका, थाईलैंड आदि में बसे लोग भी अपनी मातृभाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं।

जितना भी और जहां भी उन्हें मौका मिलता है। एक बार मैं लंदन में डोगरी कविता पढ़ रही थी। कविता खत्म होने के बाद एक आदमी आकर गले लगकर रोया। वह बोला, 'बरसों बाद मैंने डोगरी में कोई कविता सुनी। मेरे कान डोगरी के मीठे बोल सुनने को तरस गए थे।'

साहित्य में अपनी पहचान बना पाना एक औरत के लिए कितना मुश्किल रहा है?

बहुत मुश्किल रहा है, पर मैं उस दौर को याद नहीं करती। यहां लोगों को किसी के भी निजी जीवन में झांकने की, उसे कुरेदने की बहुत आदत होती है, लेकिन मैंने इसकी कभी परवाह नहीं की। मुझे ईश्वर पर भरोसा था कि

मैं इन सब चीजों से बाहर निकल आऊंगी। कुछ ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने हौसला बढ़ाया। मैं उन्हें याद

करती हूं।

आस्था मजबूती देती है, पर इन दिनों नास्तिकता का फैशन है?

आस्था फैशन की नहीं विश्वास की बात है। मैं बचपन से भगवान शिव की भक्त हूं। मां सरस्वती को भी मानती हूं। कभी-कभी ईश्वर पर गुस्सा भी आता है कि ऐसा क्यों किया। अक्सर लेखक आत्मकेंद्रित हो जाते हैं, पर आप जीवन की रौनक से भरी दिखती हैं। मेरे पास कई थैले हैं। जिनका मुंह मैं समय-समय पर खोलती हूं। कभी

एकांत कोने में अकेली बैठी मिल जाऊंगी। कभी किसी शादी-ब्याह में ढोलकी लेकर गाना शुरू कर दूंगी। लता जी से जब मैंने डोगरी गीत गवाए तो उन्हें गाकर सुनाए थे। मैं सिर्फ कवयित्री ही नहीं हूं। मैं एक बेटी हूं, पत्नी हूं, मां और दोस्त भी हूं। इन सबको मिलाकर जो बनता है वह लेखक होता है।

यह आपकी प्रकृति है या व्यवहार?

मैं शुरू से ही ऐसी हूं। जिन दिनों मुझे टीबी हो गई थी और मुझे श्रीनगर के एक अस्पताल में दाखिल करा दिया गया था, मैं तब भी जिंदगी का भरपूर आनंद लिया करती थी। मैं दो दुनिया एक साथ लिए चलती हूं। हंसती-मुस्कुराती हूं, यह जरूरी भी है। हालांकि चिंतन के समय अपने में लीन हो जाती हूं। जब छोटी थी तब भी किताबें लेकर जम्मू के रानी बाग में निकल जाया करती थी। घंटों दरख्तों की छांव में छुपकर बैठी रहती थी। न किसी का डर था न किसी की परवाह। यही नेचर अब व्यवहार भी बन गया है।

बाहर निकलने पर लड़कियों को हौसला बढ़ाने वाले तो मिले ही हैं, गलत भी मिल रहे हैं?

वे तो हर जगह हैं। आपको आंख कान खोलकर आगे बढऩा है। हालांकि इनकी शिकार वही बनती हैं, जिनके

पास कहने, करने को कुछ नहीं होता, लेकिन प्रसिद्धि पाना चाहती हैं। इस महत्वाकांक्षा का कोई भी लाभ ले सकता है, लेकिन अगर आपकी लेखनी में दम है या जिस भी क्षेत्र में आप कुशल हैं तो कोई आपको रोक

नहीं सकता।

रेडियो से लेकर लेखन और निजी जीवन के अनुभव भी आपके पास हैं, युवतियों के लिए कोई संदेश?

यह जिंदगी आसान नहीं है। पुरुषों के समाज में औरत का डटे रहना बड़ा मुश्किल है। आपकी जो इच्छा है वो

पहनिए, जो इच्छा है वो करिए, पर नंगापन मत करिए। नंगापन कपड़ों का भी होता है और विचारों का भी।

इससे खुद को बचाकर रखिए। दृढ़ संकल्प होकर दुनिया का मुकाबला करिए।

योगिता यादव

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