भूख से लड़ाई शुरू : प्याज के साथ हलक से उतार रहे रोटी, कर्जा चुकाया; अब खाने के पड़े लाले

दोराहे पर आ खड़ी हुई प्रवासी मजदूरों की जिंदगी रोटी के लिए लेना पड़ रहा कर्ज कैसे चुकाएंगे पता नहीं मथुरा के नंदगांव में चूल्हे पर रोटियां सेंकती नानकचंद की पत्नी। जागरण

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 30 May 2020 09:23 AM (IST) Updated:Sat, 30 May 2020 09:23 AM (IST)
भूख से लड़ाई शुरू : प्याज के साथ हलक से उतार रहे रोटी, कर्जा चुकाया; अब खाने के पड़े लाले
भूख से लड़ाई शुरू : प्याज के साथ हलक से उतार रहे रोटी, कर्जा चुकाया; अब खाने के पड़े लाले

मथुरा, जेएनएन। नाउम्मीदी में घिर गए हरी सिंह : बरसाना का मानपुर गांव। यहां के हरी सिंह परिवार के साथ 20 बरस पहले फरीदाबाद, हरियाणा कमाने गए थे। दो कमरे का मकान पांच हजार रुपये महीने के किराये पर लिया। परिवार में सात सदस्य हैं। पत्नी गीता (60), बेटा गोपाल (30), बहू मीना (25), नातिन परी (6), नाती कुणाल (20) और छोटा बेटा सुखवीर। दो बेटों के साथ हरी सिंह मजदूरी करते तो परिवार की गाड़ी आराम से चल जाती। लॉकडाउन हुआ तो 25 मार्च को गांव लौट आए। गांव में सात लोगों के रहने को बस एक कमरा। बिजली का कनेक्शन तक नहीं। एक इंच भी खेती नहीं। जहां मजदूरी करते थे, वहां लॉकडाउन के कारण भुगतान नहीं हुआ, तो पेट पालने का संकट आ गया। गांव में परिचित से 15 हजार रुपये उधार लिए। दस हजार रुपये फरीदाबाद के मकान का किराया भिजवाया, तो पांच हजार रुपये में गुजर हुई।

बेबसी ऐसी कि न तो राशन कार्ड है और ना ही आधार कार्ड। इतना पैसा कभी नहीं हुआ कि बैंक में खाता खुलवाने की जरूरत पड़े। रोज सुबह जंगल से लकड़ी बीनकर लाते हैं, तो ईंधन हो पाता है। कुछ दिन पहले गांव के प्रधान संजय सिंह से संपर्क किया, तो उन्होंने गेहूं और चावल दिला दिए। बेटे गोपाल ने गांव में दो दिन मकान निर्माण में मजदूरी की, तो 950 रुपये मिले थे, वह पंसारी को दे दिए। बच्चों के लिए दूध एक लीटर रोज आता है। चीनी, तेल व अन्य सामग्री में ही बाकी पैसा खर्च। हाथ में दो हजार रुपये बचे हैं। बुधवार रात हरी सिंह के घर में दाल और चावल बना, तो गुरुवार सुबह चटनी और प्याज के साथ निवाला गले के नीचे उतारा। सब्जी दो दिन पहले घर में बनी थी। भूख से रोज जंग लड़नी पड़ रही है।

कर्जा चुकाया, अब खाने के लाले : नंदगांव के लखन और उनके भाई जितेंद्र की जिंदगी में भी दुश्वारियां कम नहीं हैं। कई साल पहले मां को कैंसर हुआ तो दो रुपये सैकड़ा ब्याज पर एक लाख रुपये लिए। पांच साल पहले मां का देहांत हो गया। ऐसे में परिवार को यहां छोड़ रोजगार की तलाश में तेलंगाना चले गए। वहां तीन से चार माह कंबाइन मशीन चलाते हैं। बाकी दिन और काम करते हैं। लखन को 10 हजार तो जितेंद्र को आठ हजार रुपये मिलते हैं। लॉकडाउन हुआ तो दोनों घर लौटे। जो कमाते थे, उससे करीब 40 हजार रुपये कर्ज चुकाया। हालांकि, उधार देने वाले ने दरियादिली दिखा लॉकडाउन के दिनों का ब्याज माफ कर दिया, लेकिन साठ हजार अब भी बकाया है। लखन के घर में पत्नी (38) और तीन बच्चे आठ से 18 साल की उम्र के हैं।

कुछ माह पहले ही छोटे भाई जितेंद्र की शादी हुई है। दोनों के पास राशन कार्ड है। लखन को माह में 15 किलो गेहूं, दस किलो चावल मिला। जबकि जितेंद्र को छह किलो गेहूं और चार किलो चावल मिला। बुधवार को घर में गेहूं का एक भी दाना नहीं था, तो चावल बमुश्किल चार किलो। एक समाजसेवी ने एक सप्ताह भर के मसाले-दाल व सब्जी आदि की व्यवस्था कराई तो खाना बना। लखन बताते हैं कि बुधवार रात दाल रोटी बनी, तो सुबह भी वही। चार से पांच दिन तो राशन चल जाएगा। बाकी भगवान मालिक है।

कर्ज लेकर पाल रहे परिवार का पेट : नंदगांव के नानकचंद (52) कारपेंटर हैं। घर में पत्नी (48), मां (75) और तीन बच्चे हैं। बड़े बेटे की उम्र 15 साल है, छोटे की 12। बेटी 8 बरस की है। नानकचंद लॉकडाउन के पहले तीन हजार रुपये हर माह कमा लेते थे। लेकिन अब वह भी काम नहीं मिलता। परिवार पालने को गांव के ही एक व्यक्ति से एक अप्रैल को दो फीसद ब्याज पर कुछ कर्ज लिया था। उसी से परिवार पाल रहे हैं। वह कहते हैं कि कार्ड से सरकारी राशन मिल जाता है, लेकिन बाकी सामग्री तो रोज खरीदनी पड़ती है। नानकचंद बताते हैं कि लॉकडाउन में कुछ काम मिला, तो पांच सौ से सात सौ रुपये तक कमा लिए। लेकिन इससे गुजारा नहीं होना। रात को सब्जी रोटी खाई थी, तो दिन में अचार रोटी, शाम को खिचड़ी बनाने की तैयारी है।

इधर देश कोरोना से लड़ रहा है, उधर गांव लौटे प्रवासी श्रमिकों की भूख से लड़ाई शुरू हो गई है। कुछ ने कर्ज लेकर रोटी जुटाई है, तो कुछ की भूख इस बात से उड़ गई है कि बचा-खुचा राशन खत्म होने पर क्या करेंगे। बहरहाल, अंधेरे के बीच उम्मीद की किरण कहती है कि अच्छी सुबह कभी तो आएगी।

[मथुरा से किशन चौहान और प्रवीण गोस्वामी की रिपोर्ट]

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