आदिवासी-दलितों और महिलाओं के संघर्ष का चेहरा थीं जानीमानी साहित्यकार रमणिका गुप्ता...
अर्चना वर्मा कृष्णा सोबती नामवर सिंह और अब रमणिका गुप्ता ...! काल किसी को छोड़ता नहीं है। रमणिका गुप्ता अपने ढंग और अपने बनाए ढर्रे पर चलने वाली लेखिका थीं।
[स्मिता]। अर्चना वर्मा, कृष्णा सोबती, नामवर सिंह और अब रमणिका गुप्ता ...! काल किसी को छोड़ता नहीं है। चाहे वह अपने हिसाब से जीने वाला या अपने हिसाब से साहित्य गढ़ने वाला ही क्यों न हो। रमणिका गुप्ता अपने ढंग और अपने बनाए ढर्रे पर चलने वाली लेखिका थीं। अलग-अलग कार्यक्रमों के दौरान तीन बार उनसे मुलाकात हुई थी और फोन पर अलग-अलग विषयों पर कई बार बातचीत। वे निडर थीं। बिना लाग-लपेट के बोलती थीं और अनुभवों की खजाना भी थीं। जब भी किसी मुद्दे पर उनसे बात होती, वे यह जोड़ना नहीं भूलतीं कि मौत भी मुझसे डरती है। देखो न अब मैं इतने बरस की हो गई और अपने उम्र गिनातीं। रमणिका कुछ भी छिपाना नहीं जानती थीं, न व्यक्तित्व में और न लेखन में। आत्मकथा 'आपहुदरी' में उन्होंने वह सब कह दिया, जिसे छुपाना स्त्री के लिए जरूरी माना जाता है।
एक इंटरव्यू के दौरान जब मैंने उनसे पूछा कि आपको अपने बारे में सारी बातें लिखते समय झिझक नहीं हुई, इस पर उन्होंने तपाक से कहा था, शर्म तो उसे आनी चाहिए, जो गलत करता है और समाज में गंदगी को बढ़ावा देता है। मैंने तो सिर्फ हकीकत बयां किया है। जो मैंने भोगा, जीया और जिसे देखा, उसे ही शब्दों में तो ढाला है। बचपन में जो मेरे साथ हुआ, सामंती परिवारों में स्त्रियों का जिस तरह से शोषण होता है। इनके अलावा, राजनीति के दौरान अनुभव की गई चीजों को ही मैंने किताब में दर्ज किया है।' स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, कविताएं, उपन्यास, कहानी संग्रह- हिंदी की इन सभी विधाओं पर धारदार कलम चलाने वाली रमणिका गुप्ता बिहार/झारखंड की पूर्व विधायक के रूप में दलितों-किसानों के हित में कई बार जेल भी जा चुकी थीं। वे काम को ही जिंदगी मानती थीं।
मात्र चौदह साल की उम्र में ही वे पॉलिटिक्स में आ गई थीं। उसी समय से वे खादी भी पहनने लगी थीं। राजनीति के पुराने किस्से को उन्होंने बड़े चाव से सुनाया था, 'स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए मैं चोरी-छिपे घर से भाग जाती। बाद में मेरी पिटाई भी होती, लेकिन मैं इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करती। मेरे पिताजी सेना में थे और भाई कम्युनिस्ट पार्टी में। परिवार बड़ा था और अलग-अलग मिजाज के लोग साथ रहते थे, लेकिन सभी पढ़े-लिखे थे। उस जमाने में मेरी मौसियों ने बीए-एमए किया हुआ था। कांग्रेस को तो बचपन से देखती आई हूं। बाद में मैंने सोशलिस्ट पार्टी ज्वाइन कर लिया।
पहली बार चुनाव लडऩे पर चार सौ वोटों से हार गई। दोबारा मैंने लोकदल पार्टी से तारकेश्वर मिश्र को हराया। मैं छात्रों और किसानों के हित में राजनीति करती थी।' रमणिका गुप्ता ने चीन के खिलाफ युद्ध में भी हिस्सा लिया था। उन्होंने युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों के लिए चंदा भी इकट्ठा किया। उन्होंने अपने बारे में बताया था कि बहुत कम्र उम्र में ही धनबाद से झरिया तक कविता पाठ कर उन्होंने साठ हजार रुपये जमा किए जिसे सैनिकों के राहत कोष को दे दिया। वे लोगों की भलाई के लिए कई तरह के काम करने लगीं। जब उनके सामाजिक कार्यों का विरोध हुआ तो उन्होंने पति से कह दिया, 'आप सरकारी मुलाजिम हैं। इसलिए आप ट्रांसफर करा कर दूसरे शहर चले जाएं और उन्होंने ऐसा ही किया। मैं धनबाद में अकेली रह गई। मैंने अपने दम पर सारी लड़ाइयां लड़ीं। 13 बार जेल जा चुकी हूं। कई वर्षों तक अंडरग्राउंड भी रही।' घर में दलितों के प्रति भेदभाव का वे बचपन से विरोध करती आई थीं। उन्होंने कहा, 'मैं नौकरों को साथ बिठकार पढ़ाती और उन्हें खिलाती थी। 'अछूत कन्या' फिल्म का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। अलग-अलग जनजातियों के बारे में तो मैं बिहार और झारखंड में आकर ही जान पाई। मैंने जंगल और जमीन की लड़ाइयां लड़ीं और सुप्रीम कोर्ट तक गई। मुझे स्टे ऑर्डर मिलने की वजह से पंद्रह हजार लोगों को नौकरी मिल गई। मैंने वॉलनटेरी रिटायरमेंट के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी। कोल माफिया से भी लड़ाई कर चुकी हूं।'
डर तो उन्हें छू तक नहीं गया था। जब मैंने उनसे पूछा कि लड़ाइयां करने में डर नहीं लगता। हंसते हुए उन्होंने जवाब दिया था, ' डर कर संघर्ष नहीं हो पाता है। डर को कम करने के बाद ही किसी काम को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। खासकर स्त्रियों को न तो डरना चाहिए और न सत्य कहने से परहेज करना चाहिए। तभी समाज तरक्की कर सकेगा।' यह सच है कि वे मौत के करीब आने के बावजूद उम्र और बीमारियों से कभी डरी नहीं और लगातार काम करती रहीं। रमणिका गुप्ता को हिंदी साहित्य में हमेशा निडर सामाजिक लेखिका के रूप में जाना जाएगा ...