एक दिन का हीरो बनने की होड़ में पुलिस

हमारी वर्तमान पुलिस प्रणाली अपने बुनियादी उद्देश्य में असफल ही नहीं हुई है, बल्कि बतौर लोकसेवक पुलिस को लगातार कमजोर होती संस्था के रूप में देखा जा

By anand rajEdited By: Publish:Wed, 14 Oct 2015 11:01 PM (IST) Updated:Wed, 14 Oct 2015 11:56 PM (IST)
एक दिन का हीरो बनने की होड़ में पुलिस

हमारी वर्तमान पुलिस प्रणाली अपने बुनियादी उद्देश्य में असफल ही नहीं हुई है, बल्कि बतौर लोकसेवक पुलिस को लगातार कमजोर होती संस्था के रूप में देखा जा सकता है। वहीं कानून-व्यवस्था और अभियान के संदर्भ में पुलिस अधिक मजबूत होती रही है। इतनी मजबूत कि विधि- व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानून गौण हो जाता है। पुलिस कानून लागू करने को तरजीह नहीं देती, जबकि व्यवस्था के सामने उपस्थित किसी भी सवाल अथवा चुनौती को वह पूरी सख्ती और बेरहमी से कुचलती है। पुलिस में एक दिन का हीरो बनने की होड़ लगी रहती है। बिहार और उप्र में जब भी विधानसभा के चुनाव होते हैं तो कानून-व्यवस्था का सवाल उठता रहा है। जो उस समय के विपक्ष होते हैं वे कानून-व्यवस्था खराब होने की बात करते हैं। सत्ताधारी दल को अपने समय की कानून-व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ नजर आती है। नों दलों की स्थिति यह है कि जब वे सत्ता में रहते हैं तो कभी भी गंभीरता से कानून- व्यवस्था ठीक नहीं कर पाते। एक समय जब मैं मधुबनी में एएसपी के रूप में तैनात था तो उस वक्त के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मैंने कहा था कि पुलिस पर जब आप आरोप लगाते हैं तो एक मुख्यमंत्री के रूप में आपकी भी यह जिम्मेवारी है कि कम से कमएक सुधार तो करें। इस पर मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा था कि आपने ठीक बात कही है। बिहार और उप्र दोनों राज्यों में पुलिस के कार्य की स्थिति अत्यंत ही दयनीय है। आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। प्राय: यह देखा गया है कि कोई छेड़खानी या बलात्कार की घटना के बारे में थाने में न तो शीघ्रता से प्राथमिकी दर्ज होती है और न ही उस पर सहानुभूतिपूर्वक तत्परता से कार्रवाई होती है। इससे मनबढ़ू और मनचले शिकायत करने वाले को प्रताड़ित करने लगते हैं। ऐसे कई उदाहरण आए हैं जिसमें लड़कियों ने तंग आकर आत्महत्या कर ली है। इसके बाद थाने के खिलाफ जनाक्रोश फैलता है, थाने का घेराव होता है। व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस फार्यंरग करने से नहीं चूकती और इस क्रम में निर्दोष मारे जाते हैं। पुलिस तत्परता से स नयी घटना का केस दर्ज करती है और फिर लोगों पर दमनचक्र शुरू हो जाता है। इसमें निर्दोषों को जेल में ठूंसना व महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार भी शामिल है। इस प्रवृत्ति को स्पष्ट रूप से उभरते हुए देखा जा सकता है। स्पष्ट है कि पुलिस कानून लागू करने को तरजीह नहीं देती, जबकि व्यवस्था के सामने उपस्थित चुनौती को पूरी सख्ती और बेरहमी से कुचलती है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि आम आदमी की अावाज बिल्कुल ही नहीं सुनी जाती। पुलिस जनता के लिए जबावदेह नहीं है। वह सत्ता में बैठे मालिकों को खुश रखने की चेष्टा में प्रयासरत रहती है। उनकी सोच यह है कि आधारभूत पुलिसिंग (बेसिक पुलिसिंग) में न तो प्रचार है और न ही कोई सेहरा मिलने की बात है। जबकि अभियान चलाने, चाहे वह आतंकियों के विरुद्ध हो या फिर अन्र्य हिंसक प्रवृत्तियों के विरुद्ध, में पूरा प्रचार है। असल में एक दिन का हीरो बनने की होड़ लगी रहती है।प्राथमिकताएं उलट-पुलट हो गयी हैं। इतनी उलट-पुलट कि प्राथमिकी दर्ज किए जाने की कानूनी अनिवार्यता को पुलिस सम्मानित नहीं करती। जनसाधारण के प्रति उसका व्यवहार तिरस्कार भरा होता है। इस तरह की व्यवस्था से समाधान पाया जाना संभव है। हुक्मरानों से जनता का सीधे सवाल पूछने का अधिकार कैसे बहाल हो, इसपर सोचना होगा। कोई लोकसेवक यह कहने की हिम्मत नहीं करे कि आप पूछने वाले न होते हो? थाना व प्रखंड स्तर पर सरकार के जो कार्यालय हों वह लोक संसद काम करे और उस लोक संसद को कानूनी दर्जा हो। हर
तरह के सवाल पूछने का अधिकार तो हो ही साथ ही साथ गलत जानकारी दिए जाने या गुमराह किए जाने पर लोक संसद अपनी अनुशंसाएं संबद्ध सरकारी सेवक को भेज सके। लोक संसद स्थानीय दफ्तरों के लिए सोशल ऑडिट इकाई के रूप में काम करे। इनकी रिपोर्ट विधानमंडल के पटल पर रखा जाए और उसपर सरकार ने क्या कार्रवाई की उसे समयबद्ध तरीके से सूचित करना अनिवार्य किया जाए। पुलिस के कार्यकलापों की ऑडिट करने के लिए राज्य स्तर पर एक बहुसदस्यीय स्वतंत्र संस्था हो, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व हो। यह जाति और धर्म पर आधारित न होकर कार्यक्षेत्र पर आधारित हो। मजदूरों, रिक्शाचालकों और डॉक्टरों, शिक्षाविदों व वकीलों का भी इसमें प्रतिनिधित्व हो।

(लेखक बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं)

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