आप भी मिलिये थ्री इडियट्स के असली फुनसुख वांगड़ू से जो असल में हैं सोनम वांगचुक

एशिया का नोबेल कहे जाने वाले प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करने वाले सोनम वांगचुक दैनिक जागरण से मुखातिब हुए।

By Ravindra Pratap SingEdited By: Publish:Sat, 28 Jul 2018 07:04 PM (IST) Updated:Sun, 29 Jul 2018 01:10 PM (IST)
आप भी मिलिये थ्री इडियट्स के असली फुनसुख वांगड़ू से जो असल में हैं सोनम वांगचुक
आप भी मिलिये थ्री इडियट्स के असली फुनसुख वांगड़ू से जो असल में हैं सोनम वांगचुक

नई दिल्ली, जेएनएन। प्रकृति, समाज और शिक्षा संव‌र्द्धन में विशेष योगदान के लिए एशिया का नोबेल कहे जाने वाले प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करने वाले सोनम वांगचुक दैनिक जागरण से मुखातिब हुए। उन्होंने देश में शिक्षा सुधारों की महती आवश्यकता पर विस्तार से अपनी बात रखी। पेश है अतुल पटैरिया द्वारा उनसे हुई इस चर्चा का अंश।

इस पुरस्कार और इस उपलब्धि को किस तरह आंकते हैं?

यह वह महान अवसर है, जिसने सुदूर पहाड़ों में बसने वाले हम चंद लोगों की समस्याओं, हमारे जीवन संघर्ष और हमारी चुनौतियों को देश-दुनिया के सामने ला खड़ा किया है। लेकिन मैं अकेला इसका हकदार नहीं हूं। लद्दाख के विकास का सपना देखने वाला हर व्यक्ति, हर युवा, हर छात्र और हर शिक्षक इस श्रेय का सहभागी है। मैं इसे राष्ट्र को और विशेषकर सभी लद्दाखवासियों को समर्पित करता हूं। अपने उन पूर्वजों को भी, जिन्होंने हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।

इससे दुनिया को क्या संदेश जा रहा है?

मैं जिन चंद लोगों के जीवन संघर्ष और उनके समक्ष खड़ी भीषण प्राकृतिक चुनौतियों का जिक्र कर रहा हूं, वे न केवल दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में बसने वाले गिनती के लोग हैं, बल्कि वे जातिगत, भाषागत, पर्यावरणगत और शैक्षिक व तकनीकी के मामले में भी अल्पसंख्यक हैं, जिनके लिए तमाम जमीनी चुनौतियों से पार पाना मैदानी भागों में बसने वाले दुनिया के बहुसंख्य लोगों के मुकाबले कहीं अधिक कठिन है। जिनके पास इन विशेष चुनौतियों का कोई रेडीमेड समाधान नहीं है, जैसा कि दुनिया के 99 फीसद लोगों को आसानी से उपलब्ध है। इस पुरस्कार की पृष्ठभूमि में दुनिया का ध्यान अब हमारे जैसे लोगों की चुनौतियों पर जाएगा और दुनिया इसे समझने का प्रयास करेगी।

       

लद्दाख के लिए आपके योगदान में आपकी मैकेनिकल इंजीनियरिंग का कितना योगदान है?

अधिक नहीं। क्योंकि मैदानी भाग में जीवन को आसान बनाने के लिए यह शिक्षा जो समाधान प्रस्तुत करती है, वह दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में काम नहीं कर सकता है। मैंने जो समाधान खोजे, उन्हें मैंने अपने लद्दाखी पूर्वजों की युक्तियों और शिक्षाओं से ही हासिल किया, जिनके बूते हमारे पूर्वज कठिनतम प्राकृतिक परिस्थितियों में अस्तित्व बचाए रखने में सफल रहे। हमें अपनी चुनौतियों का समाधान अपने प्राकृतिक वातावरण और संसाधनों के बीच रहते हुए स्वत: ही करना होगा।

क्या इससे हर तरह का समाधान मिल सकता है? कोसी नदी से होने वाली तबाही का भी?

कहा गया है कि सादगी परम परिष्कार है। मेरा पसंदीदा उपकरण (डिवाइस) स्वत: प्रकृति ही है। मेरे बनाए हिम-स्तूप को ही लीजिये, जाड़ों में एक ऊंचे कृत्रिम ढांचे पर जमा होती गई बर्फ धीरे-धीरे पहाड़ का रूप लेती है और गर्मियों में खुद पिघल कर बंजर भूमि में जीवन को जन्म देने में सहायक बनती है। केवल गुरुत्वाकर्षण के बूते यह स्वत: होता है। मैंने इस युक्ति को कहां से सीखा? यहीं से। 65-75 फीट तक ऊंचे हिम स्तूप बनाने में सफल रहा, जो जाड़ों से लेकर जुलाई तक जमे रहते हैं। मैंने क्या किया, बस यह उपाय ढूंढ निकाला कि सपाट सतह पर बिखरी बर्फ जो धूप पड़ने पर पिघल जाती है, उसे स्तूप की शक्ल देकर उसकी सतह को कम कर दिया जाए तो पिघलने से बची रहेगी। लिहाजा, हमारी समस्याओं का समाधान हमें किताबों के अलावा प्रकृति में भी खोजना होगा। कोसी की समस्या का समाधान बिहार के युवाओं को ही ढूंढना होगा, जरूर मिल जाएगा।

          

शिक्षा में सुधार को क्या उपाय किए जाने चाहिए?

हर राज्य की परिस्थितियों के अनुरूप वहां के स्कूल पाठ्यक्रम में व्यावहारिक समाधान देने वाली शिक्षा को जोड़ा जाना चाहिए। और यह प्रोजेक्ट बेस्ड हो, ताकि बच्चे व्यावहारिक रूप से खुद सीख-समझ सकें। आइआइटी और एनआइटी आज बच्चों को इंजीनियर नहीं बल्कि फैक्ट्री प्रोडक्ट बना रहे हैं। इनकी वस्तुनिष्ठ प्रश्नों पर आधारित प्रवेश परीक्षा को केवल स्क्रीनिंग तक सीमित कर देना चाहिए और दूसरे चरण में केवल उन छात्रों को आगे लाएं, जिन्होंने अपने स्कूल में, अपने अध्ययन काल में एप्लाइड इंजीनियरिंग, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, को अपनाकर अपने किसी प्रोजेक्ट के जरिये कुछ बेहतर उम्मीद जगाई हो। ऐसे बच्चे ही देश की चुनौतियों का असल समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे।

स्वतंत्रता दिवस पर युवाओं को क्या संदेश देंगे?

मैं तो स्वतंत्रता की प्रतीक्षा में हूं क्योंकि अंग्रेजी सिस्टम के अवशेष आज भी हमें गुलाम बनाए हुए हैं। हम लोग पुलिस और प्रशासन से आज भी उसी तरह डरते हैं, जैसा अंग्रेजी हुकूमत के दौर में हमारे पूर्वज डरा करते थे। आज भी कितने लोग प्रशासन और पुलिस को अपना सेवक मान पाए हैं? हर संपन्न व्यक्ति कमजोर को काबू में करना चाहता है। क्या यही स्वतंत्रता है? उच्च शिक्षित युवा विदेशियों का नौकर बनने को उतावला है। क्या यही स्वतंत्रता है? हमें इस फर्क को समझना होगा। हमारे युवा अपने क्षेत्र, अपने समाज और अपने देश के लिए समर्पित बनें।

           

मैं फुनसुक वांगड़ू नहीं सोनम वांगचुक हूं...

यह पुरस्कार किसी फिल्म के किरदार (थ्री इडियटस के फुनसुक वांगड़ू) को नहीं मुझे यानी सोनम वांगचुक को दिया जा रहा है। इस विषय में अधिक कुछ नहीं कहूंगा। फिल्म, फिल्म होती है और असल जिंदगी, असल जिंदगी होती है।

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