'राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र जटिल प्रणाली, यहां है हर कोई राजा'

दुनिया में सोशल कांट्रेक्ट की जगह अब लोकतंत्र है,जिससे सरकारें भी नागरिकों की तरह अनुशासित होती हैं।लेकिन बड़ी मछलियां बच निकलने में कामयाब रहती हैं।

By Lalit RaiEdited By: Publish:Sun, 25 Jun 2017 02:16 PM (IST) Updated:Sun, 25 Jun 2017 02:16 PM (IST)
'राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र जटिल प्रणाली, यहां है हर कोई राजा'
'राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र जटिल प्रणाली, यहां है हर कोई राजा'

राजकिशोर

प्रत्येक राजनैतिक तंत्र के साथ एक दर्शन जुड़ा होता है। राजतंत्र का दर्शन बिल्कुल साफ था। वह शासन करने के दैवी अधिकार पर टिका था। राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि था और प्रजा पर शासन करने के लिए भेजा गया था। खाने को अन्न हो या नहीं, देश में राजा का होना जरूरी था, ताकि अराजकता को रोका जा सके। यह आवश्यकता इतनी स्पष्ट और फौरी थी कि राजा के बिना भी काम चलाया जा सकता है, यह आंख वालों को भी दिखाई नहीं देता था।


सत्ता के साथ मनुष्य का संबंध बहुत पुराना है। समाज को संगठन चाहिए और संगठन को ऐक्यबद्ध रखने के लिए सत्ता। यहां मनुष्य का अपने बचपन का अनुभव मार्गदर्शन करता है। जीवन की प्रभात वेला में माता-पिता ही उसके शासक होते हैं। इसी से राजा को या अधिकारी को माई-बाप न केवल कहने, बल्कि समझने की परंपरा पैदा हुई है, जो मृत्यु र्पयत हमें बांधे रखती है। इस परंपरा के अनुसार राजा शासक ही नहीं, पालक भी होता है, जिसकी अपेक्षा माता-पिता से होती है। इसलिए अच्छे राजा की कसौटी यह बनी कि उसे, सब से पहले, शासन करना चाहिए और दूसरे, जन कल्याणकारी भी होना चाहिए। संकट के समय उसे प्रजा के काम आना चाहिए। मगर कोई राजा अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता। सत्ता जैसी भी हो, वह स्वभाव से ही केंद्रीकृत होती है। कोई अपनी जमीन या दौलत के साथ साझा कर सकता है, पर सत्ता के साथ साङोदारी की बात सोची भी नहीं जा सकती।

भारत में राजा के साथ-साथ ब्राह्मण ने भी अपने को अदंडनीय घोषित कर रखा था, जिसके कारण वह राज दरबार में भी निरंकुश हो सकता था। पश्चिम के बुद्धिजीवियों को यह विशेषाधिकार नहीं मिला, यह उनके तर्क में भी नहीं समाता था इसलिए उनमें से अनेक प्रताड़ित हुए और सुकरात जैसे दार्शनिकों और ब्रुनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पड़ा। आज उसका एक रूप पत्रकारों की हत्या में दिखता है।


रूसो जैसे विचारकों ने राजा की सत्ता को सीमित करने के लिए ‘सोशल कांट्रैक्ट’ जैसे सिद्धांत की खोज की। इस विचार के अनुसार, राजा ने जबरदस्ती लोगों पर कब्जा नहीं किया, बल्कि लोगों ने आपस में विचार-विमर्श कर अपने आप को राजा दिया। कभी राजा और जनता के बीच एक सामाजिक अनुबंध हुआ था, जिसमें राजा को, कुछ शर्तो के साथ, सत्ता दी गई थी और बदले में जनता ने उसे एक निश्चित मात्र में कर देना स्वीकार किया था। रूसो की मान्यता थी कि यदि राजा अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, तो उसे सत्ता से हटाने का अधिकार जनता को है। क्या सचमुच कभी ऐसा अनुबंध हुआ होगा?दावे के साथ कोई नहीं कह सकता। जन स्मृति में भी ऐसा कुछ नहीं है। लेकिन एक समय में ‘सोशल कांट्रैक्ट’ के सिद्धांत ने राजा की निरंकुशता को नियंत्रित करने की भावना को सबल बनाने में काफी योगदान किया था। अब हमारे पास ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की जगह संविधान और कानून का शासन है, जिससे सरकारें भी उसी तरह अनुशासित होती हैं जैसे नागरिक।

यह और बात है कि संविधान मछली पकड़ने का वह जाल है जिसमें छोटी मछलियां फंस जाती हैं और बड़ी मछलियां उसे चीर कर बाहर निकल जाती हैं। विजय माल्या का उदाहरण सामने है। जबकि जेएनयू के कन्हैया को, बिना किसी प्रमाण के, महीने भर से अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा। राजतंत्र की खूबी यह थी कि वह एक सीधी-सादी प्रणाली थी, जिसकी कमियां तुरंत दिखाई पड़ जाती थीं। कुशासन के लिए किसी एक को जिम्मेदार ठहराना हो तो राजा मौजूद था। राजा अच्छा तो शासन सफल, राजा खराब तो शासन विफल। शासन अच्छा हो, इसके लिए प्रजा की कोई जिम्मेदारी नहीं थी। राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र एक जटिल प्रणाली है। यहां हर कोई राजा है। राज्य की प्रभुसत्ता लोगों के बीच से निकलती है और लोगों में जा कर समा जाती है। इससे अनेक समस्याएं पैदा होती हैं जिनके समाधान का कोई रास्ता अभी तक नहीं निकाला जा सका है। जहां हजारों नहीं, लाखों नहीं, करोड़ों राजा हों, वहां का शासन ईश्वर ही चला सकता है।


राजतंत्र की सफलता के लिए महज एक व्यक्ति का अच्छा होना काफी था, पर लोकतंत्र की सफलता करोड़ों लोगों की अच्छाई पर निर्भर होती है। इसमें नागरिकों में से हर एक का योगदान होता है। प्रतिनिधित्व पर आधारित शासन, जिसे लोकतंत्र कहते हैं, का एक बुनियादी दोष यह है कि प्रत्येक ऐसे प्रतिनिधि को एक निश्चित अवधि के लिए प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया जाता है। इसके बीच में अगर वह पतित हो जाता है, तो उसे वापस बुलाने का प्रावधान अकसर नहीं है। इसलिए जहां कहीं भी प्रतिनिधित्व पर आधारित शासन है, ‘राइट टु रिकॉल’ की व्यवस्था होनी ही चाहिए। इसी अर्थ में डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था, जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं।

लोकतंत्र के मूल में दो बुनियादी धारणाएं हैं। जो धारणा पूरी तरह से दिवालिया है, फिर भी बाजार के अर्थशास्त्र में जिस पर बहुत-से सिद्धांत आधारित हैं, कि हर आदमी अपना भला सब से अच्छी तरह जानता है। अगर ऐसा होता, तो धर्मशास्त्र और नैतिकता की हजारों किताबों, असंख्य संतों और उपदेशकों की जरूरत नहीं पड़ती। इनकी जरूरत आज भी है, तभी इतने बाबा और संत पनपते रहते हैं। दरअसल, ज्ञान यही है कि हर आदमी अपने सर्वोच्च हितों की पहचान कर सके। सभी व्यवस्थाएं इस ज्ञान को ढंक कर रखने की कोशिश करती हैं और वे इसमें सफल भी हो जाती हैं। लोकतंत्र के पीछे दूसरी दार्शनिक धारणा यह है कि एक आदमी दूसरे सभी लोगों के हितों को न केवल जान सकता है, बल्कि इसके आधार पर काम भी कर सकता है। क्षमा करें, मानव चरित्र का यह वर्णन तथ्यों पर आधारित नहीं है। जिस आदमी के बारे में हम समझते हैं कि वह अपना भला खुद नहीं जानता, वह दूसरों का भला समझ सकता है, यह मान कर चलना मनुष्य से देवता होने की मांग करना है। यही कारण है कि किसी भी देश में लोकतंत्र जितना सफल है, उससे कहीं ज्यादा विफल है।


(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

 

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