Farmers Day 2020: ऐसे समय में कृषि कानून वापस लेने से इस तरह के विरोधों की प्रवृत्ति बढ़ेगी

नए कृषि कानून का विरोध करने वाले किसान काफी कुछ अडि़यल रुख अपनाए हुए हैं। ऐसे समय में यदि ये कानून वापस लिया जाता है तो ये भविष्‍य के लिए सही नहीं होगा। ऐसा हुआ तो भविष्‍य में हर कानून को लेकर यही होता रहेगा।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Tue, 22 Dec 2020 11:33 AM (IST) Updated:Wed, 23 Dec 2020 09:04 AM (IST)
Farmers Day 2020: ऐसे समय में कृषि कानून वापस लेने से इस तरह के विरोधों की प्रवृत्ति बढ़ेगी
विरोधियों को समाधान के लिए रास्‍ते तलाशने होंगे।

प्रो आरएस देशपांडे। ऐसा लगता है, आंदोलनकारियों ने बातचीत के सभी दरवाजे बंद कर दिए हैं। यह किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं होता है। यदि इस मोड़ पर कानून को वापस ले लिया जाता है तो यह निश्चित रूप से सर्वसम्मति से संसद द्वारा पारित कानूनों के विरोध की प्रवृत्ति को बढ़ावा देगा और इच्छुक लॉबी आंदोलन की ऐसी ही प्रक्रिया को अपनाकर सुधार और विकास के रास्ते में अड़ंगा डाल सकती हैं। केंद्र सरकार के कृषि मंत्री कई प्रस्तावों के साथ सामने आए, लेकिन इन प्रयासों को सफलता नहीं मिली।

कृषि विपणन क्षेत्र में सुधारों का लंबा इतिहास है। 1992 में उच्च स्तरीय समिति के साथ शुरू होता है। यूपीए सरकार में 12वीं योजना का कार्य समूह, 2003 का मॉडल एपीएमसी अधिनियम और 2007 में संशोधित, 2011 में राज्यों के कृषि मंत्रियों की समिति, गोकुल पटनायक रिपोर्ट 2011 और अंत में मुख्यमंत्रियों की उच्चस्तरीय समिति ने इसी तरह के सुधारों की सिफारिश की थी। मुख्यमंत्रियों की समिति में कमलनाथ और कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी भाग लिया था। र्मींटग में उन्होंने अपनी किसी भी असहमति को नहीं दर्शाया था।

2001-03 में मैंने एमएसपी के प्रभाव को लेकर भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के लिए एक अध्ययन किया था, जिसमें 11 राज्यों के किसानों से सैंपल लिए गए थे। हमारे अध्ययन में सामने आया कि एमएसपी लागू करने की प्रक्रिया में क्षेत्रीय स्तर पर बहुत विभिन्नता है। एमएसपी के जरिये तीन राज्यों के किसानों को विशेष रूप से लाभ मिला। ये तीन राज्य पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश हैं। किसान एमएसपी प्राप्त करने के लिए एजेंटों, आढ़तियों और अधिकारियों के माध्यम से भी बिक्री करना पसंद करते हैं, इस प्रक्रिया ने ऑपरेटरों और ग्राहकों के बीच बहुत मजबूत संबंध विकसित किए हैं। खरीद ग्रेडिंग और तोल भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। एनएसएसओ द्वारा 2002 में किसानों के स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि केवल 19 फीसद किसान ही खरीद केंद्रों के बारे में जानते हैं। 

कहीं भी और किसी को भी बेचने की स्वतंत्रता किसान का मूल अधिकार है और यह इस कानून द्वारा स्थापित है। इसी प्रकार, एक निश्चित सीमा तक अनाज का भंडारण और स्टॉक करना आपातकाल के समय कमोडिटी बाजार की उपलब्धता के उद्देश्य से भी महत्वपूर्ण है, लेकिन ऐसी वस्तुओं की स्टॉकिंग की सीमा को मूल्य के आधार पर तय किया जाना चाहिए। वास्तव में यह कानून द्वारा किया जाता है। कांट्रैक्ट फार्मिंग हमेशा मौजूद रही है और अब तक कांट्रैक्ट फार्मिंग असुरक्षित हो गई है, जहां ठेकेदारों का किसानों पर हाथ था। आखिर में, आंदोलनकारियों के अनुचित रवैये को देखते हुए मुझे लगता है कि केंद्र को निम्‍न बिंदुओं पर विचार करना चाहिए:

1. भारत सरकार, सभी राज्य सरकारों को एक एडवाइजरी जारी करने पर विचार कर सकती है कि संसद द्वारा पारित कृषि कानूनों पर राज्य विधानसभाओं में चर्चा की जाए और प्रत्येक राज्य सरकार क्रियान्वयन के बारे में उचित निर्णय ले सकती है। यह किसानों की चिंता को दूर करेगा। क्योंकि केंद्र सरकार किसी भी राज्य में इन्हें लागू नहीं करेगी, यदि राज्य के किसान इससे सहमत नहीं हैं। इसकी सूचना संबंधित राज्य सरकारों को केंद्र सरकार को देनी चाहिए।

2. एमएसपी को हटाया नहीं जाएगा और इसलिए एपीएमसी को भी। खरीदार के लिए एमएसपी से नीचे नहीं खरीदना अनिवार्य किया जा सकता है, और यदि किसान रिपोर्ट करता है तो राज्य सरकार को कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। इसे लागू करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी होगी। एपीएमसी को बंद करने का सवाल नहीं उठता क्योंकि यह राज्य के अधिकार क्षेत्र में आता है।

3. एमएसपी का क्रियान्वयन और खरीद राज्य और केंद्र सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी होगी। केंद्र सरकार इस उद्देश्य के लिए आनुपातिक धन आवंटित कर सकती है।

राज्य सरकारों को उनकी विधानसभाओं द्वारा कानूनों को अपनाने की स्वतंत्रता देना उपयोगी होगा। एमएसपी और खरीद प्रबंधन को भी राज्य सरकारों को सौंप दिया जाना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि यह मामले को हल करेगा।

(पूर्व निदेशक, इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बेंगलुरु)

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