चंद्रयान 1 ने चांद पर खोजा था पानी, चंद्रयान 2 में भी होगा कुछ बड़ा, दुनिया की लगी निगाहें

Mission Chandrayaan 2 भारत ने चंद्रयान-1 से ही अपने इरादे साफ कर दिए थे। पहले अभियान में ही बड़ी उपलब्धि हासिल करने की वजह से दुनिया को फिर किसी अप्रत्याशित खोज की उम्मीद है।

By Amit SinghEdited By: Publish:Mon, 22 Jul 2019 11:42 AM (IST) Updated:Mon, 22 Jul 2019 11:48 AM (IST)
चंद्रयान 1 ने चांद पर खोजा था पानी, चंद्रयान 2 में भी होगा कुछ बड़ा, दुनिया की लगी निगाहें
चंद्रयान 1 ने चांद पर खोजा था पानी, चंद्रयान 2 में भी होगा कुछ बड़ा, दुनिया की लगी निगाहें

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। अपने पहले ही अभियान चंद्रयान-1 से चंद्रमा पर पानी होने की खोज करके भारत ने अपने इरादे जता दिए थे कि भले ही देर आए लेकिन दुरुस्त आए हैं। अब तक तीन देश अपने मिशन चंद्रमा पर उतार चुके हैं। अब बारी हमारी है। दुनिया की टकटकी इसलिए भी लगी है क्योंकि भारत का यह मिशन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के उस हिस्से पर उतरेगा, जहां अब तक कोई देश नहीं जा सका है। लिहाजा किसी अप्रत्याशित खोज को लेकर सबकी उम्मीदें लगी हैं। 54 दिन की अपनी यात्रा पूरी करके जब लैंडर से निकल प्रज्ञान रोवर चंद्रमा की सतह पर चलेगा तो हर भारतीय का सीना तारे तोड़ लेने के गर्व से चौड़ा हो जाएगा।

एक तो चंद्रमा पर पहुंचना ही बहुत मशक्कत का काम है, दूसरे भारत ने चांद के उस स्थान पर पहुंचने की चुनौती स्वीकारी हैं, जहां आज तक किसी देश का झंडा नहीं फहराया है। अपने 54 दिन के अभियान में चंद्रयान-2 चांद के दक्षिणी ध्रुव के एटकेन बेसिन में उतरेगा। इस स्थान पर कभी क्षुद्र ग्रह के टकराने से बने गड्ढे से लावा का प्रवाह हुआ था।

अत्यधिक गर्म और सर्द मौसम
चंद्रमध्य रेखा पर दिन का तापमान 120 डिग्री सेल्सियस होता है। जबकि रात में यह तापमान -130 डिग्री तक पहुंच जाता है। विक्रम जहां उतरेगा, उस स्थान का रात में तापमान -180 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। इस सर्दी का अनुमान आप ऐसे लगा सकते हैं कि यह अंटार्कटिका की रात से भी ज्यादा ठंड हो जाती है। उपकरणों और सेंसर्स में लगे ठोस अवस्था वाले इलेक्ट्रॉनिक्स ताप और ठंड की इस अवस्था से ऊपर काम करना बंद कर देते हैं। तीन अभियानों ने ही बिताई है रात: अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में अब तक तीन ही ऐसे चंद्र अभियान हुए हैं जिन्होंने सफलतापूर्वक चंद्रमा पर रात बिताने में कामयाबी पाई है। इन सभी अभियानों में उपकरणों को गर्म रखने के लिए रेडियोआइसोटोप्स का इस्तेमाल किया गया था।

धूल का शूल
चंद्रमा पर मशीनों के लंबे समय तक काम करने में बड़ी बाधा वहां की धूल है। चूंकि चंद्रमा पर कोई मौसम प्रणाली नहीं है लिहाजा वहां धूल के कण बहुत धारदार हो जाते हैं। 2005 में नासा की एक तकनीकी रिपोर्ट बताती है कि इस धूल ने कैसे उतरते समय दृश्यता की बाधा पैदा की, मशीनों का काम प्रभावित किया। एक्सट्रा वेहिकुलर मोबिलिटी सूट और उपकरणों के कवर को फाड़ दिया। रेडिएटर्स के प्रदर्शन को कमजोर कर दिया। लोगों की आंखों और फेफड़ों को नुकसान पहुंचाया। अपोलो ल्युनर रोवर व्हीकल के चंद्रयात्रियों का कीमती समय चंद्रमा की धूल को साफ करते हुए बीता। उनके ऊपर धूल की परत होने के चलते सौर ऊर्जा सोखने की दर अप्रत्याशित रूप से कई गुना बढ़ गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि चंद्रयान दक्षिणी ध्रुव के जिस हिस्से में उतरने वाला है वहां धूल की बड़ी समस्या है।

सही सलामत उतरना
किसी भी चंद्र अभियान के लिए लैंडिंग सबसे बड़ी तात्कालिक चुनौती होती है। बीते अप्रैल महीने में इजरायल के एक निजी मिशन के तहत बेरेशीट लैंडर को चांद पर उतरना था, लेकिन उतरते समय उसकी गति ही धीमी नहीं हो सकी और वह विफल हो गया। चंद्रयान दो में लैंडर चांद की सतह से 100 किमी की ऊंचाई से उतरने के लिए ऑर्बिटर से निकलेगा। उतरते समय उस स्थान की तस्वीरें लेता रहेगा और 30 किमी की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद स्वत: ही तय करेगा कि उतरने के लिए कौन सा स्थान मुफीद होगा। चिंता इस बात की होती है कि उतरने वाला स्थान चट्टानी इलाका नहीं होना चाहिए।

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