Impact 2020: आपदा के रूप में आई महामारी COVID-19, सामने आया अवसरों का पूरा संसार

इस साल की शुरुआत में आए कोरोना वायरस संक्रमण के प्रकोप से पूरी दुनिया अब तक उबर नहीं पाई है लेकिन इसने लोगों के बीच भेद मिटा दिए चाहे वह कुछ समय के लिए ही क्‍यों न हो।

By Monika MinalEdited By: Publish:Mon, 28 Dec 2020 04:54 PM (IST) Updated:Mon, 28 Dec 2020 04:54 PM (IST)
Impact 2020: आपदा के रूप में आई महामारी COVID-19, सामने आया अवसरों का पूरा संसार
कोविड-19 महामारी अपने साथ लेकर आई ढेरों सबक

नई दिल्‍ली, जेएनएन। आज से कुछ दशक बाद जब किसी संदर्भ में परिस्थितियों का हिसाब-किताब किया जाएगा तो ‘कोरोना से पहले, कोरोना के बाद’ की ही बात होगी। चीन से पैदा हुई कोविड-19 महामारी एक साल पूरे करने जा रही है, लेकिन इस एक साल में इसने मानव सभ्यता को जितना बदला है, शायद ही किसी घटना या परिघटना ने वैसा परिवर्तन उत्पन्न किया हो। यह महामारी आपदा के रूप में आई, लेकिन अवसरों का पूरा संसार छोड़ गई। याद नहीं है कि साझा दुनिया का भाव कब इतनी मजबूती से महसूस किया गया था। पर्यावरण और आतंक जैसी चुनौतियों के मामले में जब कभी इस कसौटी का इम्तिहान आया तो तमाम किंतु-परंतु भी खड़े हो गए। कोविड-19 ने कुछ समय के लिए ही सही, भेद मिटा दिए हैं। आधुनिक युग की सहूलियतों ने इसके प्रकोप को बढ़ाया तो इस युग के कौशल ने ही उबरने की राह भी बताई। अब नई संस्कृति हमारे आसपास आकार ले रही है। अनुभव अनंत हैं। जीत करीब है, क्योंकि जीवन ने इतनी आसानी से हार मानने से मना कर दिया। यह जिजीविषा ही सबसे बड़ा संबल साबित हुई। सरकारों के उपायों, प्रशासन की सक्रियता और अदालतों की चिंता से भी आगे कोविड-19 को हराने का लोगों का जज्बा ही आखिरकार जीतेगा। इस विकराल चुनौती में लापरवाही क्षोभ जगाती है, लेकिन सभी को भरोसा सामाजिक संकल्प की शक्ति पर ही है। जब जीवन ठहर गया हो, हर तरफ अनिश्चितता का माहौल हो, सड़कों पर अपना ठिकाना बदलने की जद्दोजहद में जुटे लोगों की लंबी कतारें हों तब भी वह भरोसा ही था जो लोगों को संबल दे रहा था। कोविड-19 के लिए चीन को कितना जवाबदेह ठहराया जा सकेगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन इस आपदा ने पूरी दुनिया को बहुत कुछ सिखा तो दिया ही है। हो सकता है कि दुनिया अब ऐसी किसी चुनौती से जरा भी न घबराए!

लॉकडाउन प्राण रक्षा की लक्ष्मण रेखा

सांसें चलती रहें, इसके लिए लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प था। भारत में 22 मार्च, 2020 को जनता कफ ्र्यू के रूप में हुए ट्रायल के बाद 25 मार्च, 2020 से लॉकडाउन की क्रमिक शुरुआत हुई। 30 जून तक पांच चरणों में कुल 98 दिनों तक देश लॉकडाउन में रहा। अस्पताल, बैंक, किराना जैसी अत्यावश्यक सेवाओं-सुविधाओं को छोड़ शेष सब कुछ बंद था। 1.3 अरब आबादी वाले भारत के लिए यह कठिनतम समय था। उस देश में जहां आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबों, रोज कमाने-खाने वाले लोगों का हो, वहां समूची अर्थव्यवस्था पर ताला जड़ना अभूतपूर्व चुनौती था। कोरोना, लॉकडाउन और क्वारंटाइन...  भारत में अंग्रेजी के ये तीन शब्द डर का दूसरा नाम बन गए। जो बीता, वह अकल्पनीय था। प्रवासी श्रमिकों ने सर्वाधिक कष्ट उठाए। मीलों लंबी पदयात्रा को बाध्य हुए। अंतत: उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की व्यवस्था की गई। इनकी दशा से दुखी लोगों ने चंदा कर हवाई जहाजों की व्यवस्था भी की। अंततोगत्वा वे गांवों-घरों तक पहुंच गए। लॉकडाउन की प्लानिंग में अब दूसरी बड़ी चुनौती सामने थी। श्रमिक अपने गांव तो पहुंच गए, पर खाएंगे क्या? तब केंद्र सरकार द्वारा जारी ‘गरीब कल्याण योजना’, ‘गरीब अन्न योजना’ इत्यादि उनके लिए सहायक सिद्ध हुईं। छोटे-मोटे उद्योग-धंधों की भी स्थिति बिगड़ चुकी थी। ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा जारी 20 लाख करोड़ रुपए का राहत पैकेज और ‘आत्मनिर्भर भारत योजना’ क्रांतिकारी पहल साबित हुई। भला हो टेक्नोलॉजी का कि बच्चों की शिक्षा इस दौरान ठप नहीं हुई और स्वास्थ्य सेवाएं भी सुचारू रहीं। हां, लॉकडाउन से भारत की अर्थव्यवस्था को जो झटका मिला है, वह समय के साथ ही भर सकेगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित कुछ विशेषज्ञों का आकलन है कि प्रति व्यक्ति आय में जो कमी और ठहराव आया है, उसे पहले जैसी स्थिति में पहुंचने में ही तीन से पांच साल तक लग सकते हैं।

कोरोना युद्ध मास्क के पीछे नायक

कोविड-19 महामारी से लड़ने वाले उन सिपाहियों को सलाम जिन्होंने तब अपनी जान की परवाह किए बिना इस आपदा से संघर्ष किया जब हर कोई इस अज्ञात-अनजान खतरे से डरा-सहमा था। वे श्रेय और सराहना के हकदार हैं। उनके लिए तालियां-थालियां बजनी चाहिए। कोरोना वैक्सीन की तलाश में जुटे और फिर कामयाब हुए वैज्ञानिक हीरो के रूप में उभरेंगे, लेकिन उन लोगों को कभी नहीं भूला जाना चाहिए जो सुरक्षा के साधनों के प्रति शंकाओं के बीच जमीन पर जूझ रहे थे, अपनी और अपने परिवार की चिंता किए बगैर अपना फर्ज निभा रहे थे और इस सबसे अधिक एक किस्म की अस्पृश्यता का भी सामना कर रहे थे। कृतघ्न लोगों ने उन्हें निशाना भी बनाया, लेकिन उनके इरादे डिगे नहीं। कोरोना से मुकाबले के लिए उतरे डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, सुरक्षाकर्मी और स्वच्छाग्रही असली विजेता हैं। अपने देश में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके योगदान को कई बार रेखांकित किया और सुप्रीम कोर्ट ने आठ माह से बिना विश्रम लिए काम करने वाले डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति सहानुभूति भी जताई और उनकी मदद का भी आग्रह किया। आठ महीने तक लगातार और वह भी चुनौतीपूर्ण माहौल में काम करते हुए कोई भी मानसिक रूप से थक सकता है, लेकिन इन कोरोना वॉरियर्स के लिए यह दबाव ही जीत की प्रेरणा था। अगर इन कोरोना योद्धाओं को कानूनी संरक्षण देने की भी जरूरत महसूस की गई तो यह समझा जा सकता है कि मुट्ठी भर लोगों ने उनके प्रति कैसा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार किया होगा। कोरोना पर नियंत्रण के मामले में भारत की कामयाबी का आधार इन नायकों की जीत ही है। जिस देश में स्वास्थ्य का ढांचा पहले से लचर हो और हर किसी तक चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराना आज भी चुनौतीपूर्ण बना हुआ हो वहां स्वास्थ्यकर्मियों का ऐसा अनुकरणीय समर्पण एक मिसाल के रूप में याद किया जाएगा।

ओटीटी प्लेटफॉर्म मनोरंजन की नई खिड़की

कोरोना संकट के दौरान लॉकडाउन की वजह से फिल्म और मनोरंजन की दुनिया जब मुश्किल में थी तो ऑन डिमांड वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स ने इसको उबारने का काम किया। जब सिनेमाहॉल बंद हो गए और लोगों का घरों से निकलना बंद हुआ तब लोगों ने मनोरंजन के लिए ओटीटी को चुना। सिर्फ महानगरों में ही नहीं बल्कि छोटे शहरों के दर्शकों ने भी इस माध्यम पर अपना प्यार लुटाया। अप्रैल से लेकर जुलाई तक चार महीनों में करीब तीन करोड़ लोगों ने इन प्लेटफॉर्म्स को डाउनलोड किया। ओटीटी पर नजर रखने वालों और इंटरनेट सर्च के आंकड़ों ने इसकी पुष्टि की। आपदा के दौरान मनोरंजन का यह माध्यम लोकप्रिय हुआ, लेकिन कंटेंट को लेकर विवाद भी हुए। हिंसा, यौनिकता, अपशब्दों की भरमार और धर्म के चित्रण को लेकर मुकदमे हुए। विवाद अपनी जगह हैं, लेकिन इस माध्यम ने लोगों को मनोरंजन का एक ऐसा विकल्प दिया जिसमें विविधता बहुत अधिक है। छोटे शहरों की कहानियों को लेकर कई वेब सीरीज बनीं, जिन्हें दर्शकों ने खूब पसंद भी किया। इस दौरान लगभग हर भाषा की फिल्में ओटीटी पर रिलीज हुईं, बड़े से लेकर छोटे सितारों तक की। इस प्रकार इस माध्यम ने देश के मनोरंजन के कैनवस में एक अलग ही रंग भरा। कंसल्टेंसी फर्म प्राइसवाटरहाउस कूपर्स के आकलन के मुताबिक, भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ ओटीटी बाजार बन गया है। 2022 तक यहां इंटरनेट की सुविधा वाले मोबाइल की संख्या 80 करोड़ से अधिक होने का अनुमान है, तब देश में मनोरंजन की यह नई संस्कृति और विस्तार पाएगी जिसका व्यापक प्रभाव भी दिखेगा।

पर्यावरण प्रदूषण धुआं, धुंध और धृष्टता

पराली जलाना, आतिशबाजी, गंभीर वायु प्रदूषण, सर्दी और कोरोना जैसी महामारी.. इन सबका घातक मेल हमारे कुछ विशेषज्ञ-सचेतक समझ रहे थे, तभी इनके मिलनकाल से पहले ही वे इसे रोकने में जुटे थे। जब कोरोना महामारी अपने चरम पर थी, उन्हीं दिनों पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े किसानों द्वारा खेत में ही फसल अवशेषों (पराली/पुआल) को धुआंधार जलाना जारी था। यह गलत परंपरा पिछले कई दशकों से जारी है। एक अध्ययन के मुताबिक, पंजाब और हरियाणा में हर साल 3.5 करोड़ टन पराली जलाई जाती है। इससे 14.90 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड, 90 लाख टन कार्बन मोनो ऑक्साइड, 2.5 लाख टन सल्फर ऑक्साइड और 12.8 लाख टन पार्टिकुलेट मैटर इस क्षेत्र की हवा में घुल जाते हैं। इससे दिल्ली-एनसीआर में सांस से जुड़े रोगों में पचास फीसद तक इजाफा हो चुका है। पंजाब और हरियाणा में कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं। इसका प्रतिकूल असर स्वास्थ्य पर तो पड़ ही रहा है, साथ ही खेतों की उर्वरा शक्ति भी नष्ट हो रही है। उत्तर में पर्वतराज हिमालय के ग्लेशियर इस घटना से तेजी से पिघल रहे हैं जो एक बड़ी आबादी के जीवन के लिए अहम हैं। आज से पांच साल पहले 10 दिसंबर, 2015 को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में फसल अवशेष को जलाना पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था। वायु और प्रदूषण नियंत्रण कानून, 1981 में भी फसल अवशेष जलाना अपराध है, लेकिन तमाम कायदे-कानूनों के लचीले क्रियान्वयन से यह गलत परंपरा अभी तक धुंआ उगल रही है। 

टिड्डी दल का हमला फसलों पर छाया प्रकोप

2020 के मध्य में टिड्डियों के भीषण हमले ने सभी को हैरान-परेशान कर दिया। इससे पहले भारत में टिड्डियों का इस तरह का बड़ा हमला वर्ष 1993 में देखा गया था। दरअसल, टिड्डियों का पहला दल 2019 की शुरुआत में खाड़ी देशों में पहुंचा। फिर धीरे-धीरे वहां से पूरब का रुख किया। पाकिस्तान में तबाही के बाद पश्चिमी और मध्य भारत में अरबों की संख्या में दाखिल टिड्डियों ने करीब चार राज्यों में हजारों हेक्टेयर फसल बर्बाद कर दी। 2020 में भारत में टिड्डी दल का पहला हमला अप्रैल के आसपास राजस्थान में हुआ। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित इनका प्रकोप गुजरात और पंजाब के भी कुछ क्षेत्रों में रहा। भोपाल में विधानसभा भवन की दीवारों पर करोड़ों टिड्डियों के चिपके होने की तस्वीरें खूब वायरल हुईं। टिड्डियों के आक्रमण से निपटने के लिए कहीं कीटनाशकों का छिड़काव किया गया तो कहीं ड्रोन की मदद ली गई। किसानों ने पारंपरिक तरीके से ढोल-बर्तन आदि पीटकर भी इन्हें खदेड़ने का प्रयास किया। आखिरकार बरसात शुरू होने के बाद टिड्डी दल का प्रकोप कम होता गया।

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