Tatya Tope Death Anniversary 2023: तात्या टोपे ने सबसे पहले लड़ी थी आजादी की जंग, ऐसे चटाई थी अंग्रेजों को धूल

Tatya Tope Death Anniversary 2023 महान क्रांतिकारी तात्या टोपे का बलिदान दिवस 18 अप्रैल को है। तात्या ने ही आजादी के लिए लड़ी जाने वाली पहली लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। टोपे का नाम उन लोगों में शामिल है जिन्होंने सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू किया था।

By Versha SinghEdited By: Publish:Sun, 16 Apr 2023 08:12 PM (IST) Updated:Sun, 16 Apr 2023 08:12 PM (IST)
Tatya Tope Death Anniversary 2023: तात्या टोपे ने सबसे पहले लड़ी थी आजादी की जंग, ऐसे चटाई थी अंग्रेजों को धूल
तात्या टोपे ने सबसे पहले लड़ी थी आजादी की जंग

नई दिल्ली। Tatya Tope Death Anniversary 2023: 18 अप्रैल को महान क्रांतिकारी तात्या टोपे का बलिदान दिवस है। तात्या टोपे ने ही आजादी के लिए लड़ी जाने वाली पहली लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। तात्या टोपे का नाम उन लोगों में शामिल है, जिन्होंने सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह छेड़ा था। आइए विस्तार से जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी अहम बातें और कैसे उन्होंने 1857 की क्रांति की शुरुआत की थी उसके बारे में भी…

तात्या टोपे का जन्म

तात्या टोपे का जन्म 1814 में एक मराठी परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, हालांकि लोग उन्हें तात्या टोपे के नाम से बुलाते थे।

अंग्रेजों के खिलाफ हुई 1857 की क्रांति में तात्या टोपे का भी बड़ा योगदान रहा। जब यह लड़ाई उत्तर प्रदेश के कानुपर तक पहुंची तो वहां नाना साहेब को नेता घोषित किया गया और यहीं पर तात्या टोपे ने आजादी की लड़ाई में अपनी जान लगा दी। इसी के साथ ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कई बार लोहा लिया था। नाना साहेब ने अपना सैनिक सलाहकार भी नियुक्त किया था।

1857 का विद्रोह

1857 में नाना साहेब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, अवध के नवाब और मुगल शासकों ने बुंदेलखंड में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था।

इसका असर दक्षिण भारतीय राज्यों तक भी पहुंचा था। कई ब्रितानी और भारतीय इतिहासकार ये मानते हैं कि ग्वालियर के शिंदे शासक इस विद्रोह में शामिल नहीं थे लेकिन कुछ भारतीय इतिहासकारों के मुताबिक ग्वालियर के शासक भी इस विद्रोह में शामिल हुए थे। कहा जाता था कि बायजाबाई शिंदे ने विद्रोह की तैयारी की थी। कई शासक युद्ध में एक दूसरे की मदद कर रहे थे।

तात्या टोपे की भूमिका

तात्या टोपे पेशवा की सेवा में थे। उन्हें सैन्य नेतृत्व का कोई अनुभव नहीं था लेकिन अपनी कोशिशों के चलते उन्होंने यह भी हासिल कर लिया था। 1857 के बाद वे अपने आखिरी पल तक लगातार युद्ध में ही रहे या फिर यात्रा करते रहे।

तात्या टोपे के वंशज और तात्या टोपे का 'ऑपरेशन रेड लोटस' के लेखक पराग टोपे के मुताबिक बायजाबाई शिंदे इस विद्रोह के मुख्य प्रेरणा स्रोत थे।

तात्या टोपे को कई भूमिकाओं में रखा जा सकता है, वे नाना साहेब के दोस्त, दीवान, प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख जैसे पदों पर रहे थे। 1857 के स्वाधीनता संग्राम के शुरुआती दिनों में तात्या टोपे की योजना काफी कामयाब रही।

दिल्ली में 1857 के विद्रोह के बाद लखनऊ, झांसी और ग्वालियर जैसे साम्राज्य 1858 में स्वतंत्र हो गए थे। हालांकि झांसी की रानी को बाद में हार का सामना करना पड़ा था।

इसके अलावा दिल्ली, कानपुर, आजमगढ़, वाराणसी, इलाहाबाद, फैजाबाद, बाराबंकी और गोंडा जैसे इलाके भी अंग्रेजों से पूरी तरह मुक्त हो गए थे।

तात्या टोपे ने नाना साहेब की सेना को पूरी तरह संभाल रखा था। इसमें सैनिकों की नियुक्ति, उनका वेतन, प्रशासन और उनकी योजना सब तात्या टोपे ही देख रहे थे।

तात्या टोपे तेजी से फैसला करने के लिए जाने जाते थे और इसी वजह से उन्हें सभी लोगों से काफी सम्मान मिलता था। नाना साहेब के अपने मुख्य सचिव मोहम्मद इसाक और तात्या टोपे के साथ पत्र व्यवहार से यह जाहिर होता है।

रानी लक्ष्मीबाई के साथ संभाला था मोर्चा

कानपुर में अंग्रेजों को पराजित करने के बाद तात्या ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर मध्य भारत का मोर्चा संभाला था। क्रांति के दिनों में उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब का पूरा साथ दिया था। हालांकि उन्हें कई बार हार का भी सामना भी करना पड़ा था। वे अपने गुरिल्ला तरीके से आक्रमण करने के लिए जाने जाते थे।

बताया जाता है कि उन्होंने ब्रिटिश कंपनी में भी काम किया था। कहा जाता है कि कानपुर में ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था और उनके हमेशा अंग्रेजों से मतभेद रहते थे।

अंग्रेजों की नाक में कर दिया था दम

भारत के कई हिस्सों में उन्होंने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया और खास बात ये थी कि अंग्रेजी सेना उन्हें पकड़ने में नाकाम रही थी। तात्या ने तकरीबन एक साल तक अंग्रेजों के साथ लंबी लड़ाई लड़ी।

हालांकि 8 अप्रैल 1959 को वो अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और 15 अप्रैल, 1959 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। उसके बाद 18 अप्रैल को शाम 5 बजे हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फांसी पर लटका दिया गया।

इसके बाद लोगों द्वारा उनकी फांसी पर भी कई सवाल उठाए गए थे। तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब 'टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस' के लेखक पराग टोपे ने बताया कि शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फांसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए एक जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।

झांसी को कराया था मुक्त

ब्रितानी सैनिकों ने जब झांसी पर कब्जा किया तो उन्होंने झांसी को चारों तरफ से घेर लिया था। ऐसे में झांसी को बचाना जरूरी था, पेशवाओं ने तात्या टोपे को यह अहम जिम्मेदारी सौंपी थी। यह तात्या के जीवन की अहम घटना थी। कानपुर के नजदीक काल्पी से तात्या टोपे अपनी सेना के साथ तेजी से झांसी की ओर बढ़ रहे थे।

विष्णुभट गोड़से ने अपनी यात्रा वृतांत 'माझा प्रवास' में लिखा है कि इस युद्ध में तात्या टोपे की सेना बहुत बहादुरी से लड़ी, लेकिन तात्या ये युद्ध नहीं जीत सके थे। उनके शस्त्रों पर भी ब्रिटिशों ने कब्जा कर लिया, लेकिन इस युद्ध ने झांसी के लोग बेहद उत्साहित हो गए थे।

झांसी-काल्पी-ग्वालियर 

वहीं, जब पेशवा झांसी पर कब्जा करने में नाकाम रहे तब रानी लक्ष्मी बाई के पास झांसी छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। वे लोग ब्रिटिश सेना को चकमा देते हुए काल्पी की ओर बढ़े।

काल्पी में भी झांसी की रानी और तात्या टोपे की ब्रिटिश सैनिकों से भिड़ंत हुई, लेकिन उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली थी। इसके बाद उनकी सेना ग्वालियर की ओर बढ़ने लगी। जब ग्वालियर की सेना हार गई तो ग्वालियर के राजा ने धौलपुर के रास्ते आगरा जाकर शरण ले ली।

ग्वालियर की सारी शाही संपत्ति पर कब्जा जमाकर तात्या ने इससे सैनिकों को वेतन दिया और उसके बाद अंग्रेजों से ग्वालियर की सुरक्षा करने का काम शुरू किया। जब ब्रितानी सैनिकों को मालूम पड़ा कि पेशवा, झांसी की रानी और तात्या टोपे ग्वालियर में हैं, तब वे ग्वालियर की ओर बढ़ने लगे।

17 जून, 1858 को ब्रितानी सैनिक ग्वालियर के नजदीक पहुंच गए और यहां पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से सीधे युद्ध में लड़ी और वीरगति को प्राप्त हो गईं।

रानी लक्ष्मीबाई की मौत की खबर के बाद युद्ध के मैदान का पूरा नजारा ही बदल चुका था। ग्वालियर पर पेशवाओं की जीत क्षणिक साबित हुई। नाना साहेब के भतीजे रावसाहेब, तात्या टोपे और बांदा के नवाब अली बहादुर सब ग्वालियर से लापता हो गए।

इससे पहले 10 जून को रानी लक्ष्मीबाई और अली बहादुर को पकड़ने पर ब्रिटिश सेना ने दस-दस हजार रुपए के इनाम की घोषणा की थी। रानी लक्ष्मीबाई के निधन के बाद तात्या टोपे और राव साहेब को भी पकड़ने पर दस- दस हजार रुपए के इनाम की घोषणा की गई थी।

राव साहेब ने आत्मसमपर्ण की पेशकश की लेकिन ब्रितानी अधिकारियों ने उन्हें ब्रिटिशों के खिलाफ षड्यंत्र में शामिल होने की स्थिति में किसी तरह की रियायत देने से इनकार कर दिया था।

ऐसी स्थिति में उन्होंने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। अली बहादुर ने ब्रिटिशों के सामने आत्म समर्पण कर दिया और उन्हें इंदौर में पेंशन के साथ भेजा गया। लेकिन तात्या टोपे और राव साहेब ने लगातार संघर्ष को जारी रखा।

ग्वालियर के बाद कहां गए तात्या टोपे

ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या टोपे लगातार अपनी चालाकी और सूझबूझ से बचते रहे। ऐसा लगता है कि वे पहले राजपूताना गए, फिर मालवा और थोड़े समय के लिए गुजरात में भी रहे।

ग्वालियर से निकलने पर वे मथुरा गए और उसके बाद वो राजस्थान पहुंचे। फिर पश्चिम की ओर गए और वहां से दक्षिण की ओर निकल गए।

इससे यह भी साफ पता चलता है कि वो लगातार अपनी यात्रा की दिशाओं को बदल रहे थे। राजस्थान के टोंक जिले के सवाई माधोपुर जाने के बाद वे पश्चिम में बूंदी ज़िले के लिए निकल गए। वहां से भीलवाड़ा, गंगापुर गए। वहां से वापसी करते हुए मध्य प्रदेस झालरापाटन पहुंचे। वे कई दिनों तक लगातार यात्रा करते रहे।

तात्या टोपे और राव साहेब इस बीच आदिवासी लोगों के बीच में भी रहे। इस दौरान वे लगातार कोशिश कर रहे थे कि ब्रिटिशों के प्रति संघर्ष बंद ना हो।

आइए जानते हैं तात्या टोपे के बारे में कुछ विशेष बातें- 

पेशवाई की समाप्ति के बाद बाजीराव ब्रह्मावर्त चले गए। वहां तात्या ने पेशवाओं की राज्यसभा का पदभार ग्रहण किया।  1857 की क्रांति का समय जैसे-जैसे निकट आता गया, वैसे-वैसे वे नानासाहेब पेशवा के प्रमुख परामर्शदाता बन गए।  तात्या ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से अकेले सफल संघर्ष किया। 3 जून 1858 को रावसाहेब पेशवा ने तात्या को सेनापति के पद से सुशोभित किया। भरी राज्यसभा में उन्हें एक रत्नजड़ित तलवार भेंट कर उनका सम्मान किया गया था। तात्या ने 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई के वीरगति के पश्चात गुरिल्ला युद्ध पद्धति की रणनीति अपनाई थी। तात्या टोपे द्वारा गुना जिले के चंदेरी, ईसागढ़ के साथ ही शिवपुरी जिले के पोहरी, कोलारस के वनों में गुरिल्ला युद्ध करने की अनेक दंतकथाएं हैं। 7 अप्रैल 1859 को तात्या शिवपुरी-गुना के जंगलों में सोते हुए धोखे से पकड़े गए थे। बाद में अंग्रेजों ने शीघ्रता से मुकदमा चलाकर 15 अप्रैल को 1859 को राष्ट्रद्रोह में तात्या को फांसी की सजा सुनाई थी। 18 अप्रैल 1859 की शाम ग्वालियर के पास शिप्री दुर्ग के निकट क्रांतिवीर के अमर शहीद तात्या टोपे को फांसी दे दी गई थी। इसी दिन वे फांसी का फंदा अपने गले में डालते हुए मातृभूमि के लिए न्यौछावर हो गए थे।
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