यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पानी के लिए तरसेंगे आप और हम

पूरे देश में जल संकट दिनों-दिन गहराता जा रहा है। नीति आयोग की हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट में इस संकट को बेहद गंभीर बताया गया है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Mon, 25 Jun 2018 12:36 PM (IST) Updated:Mon, 25 Jun 2018 12:36 PM (IST)
यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पानी के लिए तरसेंगे आप और हम
यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पानी के लिए तरसेंगे आप और हम

(प्रो. लल्लन प्रसाद)। पूरे देश में जल संकट दिनों-दिन गहराता जा रहा है। नीति आयोग की हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट में इस संकट को बेहद गंभीर बताया गया है। उसके अनुसार देश में 70 प्रतिशत उपलब्ध जल दूषित है। पानी की गुणवत्ता में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है। दो लाख से अधिक लोग पानी की कमी और प्रदूषण से प्रति वर्ष जान गंवा बैठते हैं। वहीं देश के 21 बड़े शहरों में चंद वर्षो में जमीन के अंदर स्थित पानी का भंडार लगभग समाप्त होने की आशंका जताई जा रही है। पेयजल का संकट लगभग सभी शहरों में प्रशासन के लिए चुनौती बनता जा रहा है। पर्वतीय पर्यटन स्थलों में यात्रियों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।

दोगुनी हो जाएगी पानी की मांग 
2030 तक पानी की मांग पूर्ति से दो गुनी हो जाएगी। जिस देश में सिंध, गंगा, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र समेत लगभग 178 नदियां बहती हैं जिनमें कुछ विश्व की बड़ी नदियां भी शामिल हैं, बर्फ से ढकी पर्वतमालाएं हैं, तीन ओर विशाल सागर हैं, अनगिनत झरने, झील, तालाब और बांधों में संचित पानी हैं, वर्ष में चार महीने बड़े भूभाग में अच्छी बारिश होती है, वहां जल संकट हो, सुनकर कबीरदास का यह दोहा याद आ जाता है : ‘पानी बिच मीन पियासी रे। मोहे सुन-सुन आवत हांसी रे।’1इस स्थिति में देश को लाने की जिम्मेदारी नीति निर्धारकों, प्रशासकों एवं आम लोगों की है। प्राकृतिक कारण यानी बाढ़, सूखा और प्राकृतिक आपदाएं तो हैं ही। 1951 में देश की आबादी 36 करोड़ थी जो अब 126 करोड़ पर पहुंच रही है। जबकि सभी प्राकृतिक संसाधन सीमित होते जा रहे हैं।

पानी की बढ़ती मांग
सरकारें आबादी नियंत्रण की न तो कोई नीति बना पाईं न कानून। शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण जल की मांग बढ़ती जा रही है, प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। वर्षा और बाढ़ खेतों के रासायनिक खादों और कीटनाशकों को नदियों में ला देते हैं। अकेले गंगा नदी में 29 बड़े शहरों के सीवर, अरबों लीटर गंदा पानी, कूड़ा-करकट, कारखानों के जहरीले रसायन विष घोलते रहते हैं। नदी में आग लगने की बात कल्पनातीत अब नहीं रही। कुछ दशकों पूर्व गंगा का जल शुद्ध पेयजल था। ऋषियों-मनीषियों ने तो गंगा जल को अमृत तुल्य माना था। वह गंगा आज मैली है, उसका पानी नहाने और पीने के योग्य भी नहीं है। देश के विशाल भू-भाग को सींचने वाली नदियां जिस गति से प्रदूषित होती जा रही हैं उसे रोका नहीं गया तो जल संकट देश के लिए बड़े संकट के रूप में खड़ा हो सकता है।

शहरों में कारखाने
कई बड़े शहरों में जहां बड़ी संख्या में कल-कारखाने हैं, नदियां रासायनिक पानी के नाले में परिवर्तित हो गई हैं जिसमें पानी के जीव-जंतु और मछलियां तक जिंदा नहीं रह सकतीं।1देश के कुछ राज्यों में जहां रेगिस्तान या पठारी इलाके हैं, पानी की कमी प्रकृति की देन है। कुछ इलाके प्रति वर्ष सूखे की चपेट में आ जाते हैं। बारिश किसी वर्ष औसत से अधिक होती है तो कभी औसत से कम भी। सिंचाई के साधनों के समुचित विकास न होने से देश के किसान अभी भी मानसून देवता की कृपा पर निर्भर हैं। जिन इलाकों में सूखा पड़ जाता है, किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगती हैं। सूखा, प्राकृतिक आपदाओं, कृषि पदार्थो की सही कीमत न मिलने आदि कारणों से किसान कर्ज में ढूब जाते हैं।

किसानों की आत्‍महत्‍या
औसतन 12000 से अधिक किसान प्रति वर्ष आत्महत्या करते हैं। सूखा और बाढ़, दोनों ही फसल की बर्बादी के कारण होते हैं, लेकिल इन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की नीति और योजनाएं अधिकांश कागजों पर ही सिमट कर रह गई हैं। बारिश का आधे से अधिक जल समुद्र में चला जाता है। वर्षा जल के संचयन और सदुपयोग के अभाव में पानी की कमी स्वाभाविक है। सिंचाई के पुराने तरीके को जिनमें पानी का बड़ा भाग फसलों के उत्पादन में पूरी तरह नहीं लगता और बर्बाद हो जाता है, बदले जाने की आवश्यकता है। आज विश्व में डिप सिंचाई, स्प्रिंकलिंग आदि के प्रयोग हो रहे हैं। देश में भी इन्हें बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने की आवश्यकता है, जिसके लिए साधन उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है। पानी की एक-एक बूंद अब कीमती होती जा रही है। जनमानस में भी जागृति लाने का समय आ गया है।

पानी की कमी झेल रहे देश
पानी की कमी विश्व के अधिकांश देशों में होती जा रही है जो विश्व स्तर पर प्रयास से ही संभाली जा सकती है। पृथ्वी का 70 प्रतिशत हिस्सा पानी से ढका है, किंतु इसका करीब 3 प्रतिशत ही मनुष्य के लिए उपयोगी है। विश्व की आधी आबादी उन इलाकों में है जहां ताजा पानी उपलब्ध है। अधिकांश बड़े-बड़े शहर नदियों के किनारे बसे हैं। जो देश अपनी नदियों को साफ-सुथरा रख सके उन्हें पेयजल की समस्या से जूझना नहीं पड़ा। जो वर्षा और बाढ़ के पानी का संचय करने में सक्षम हुए उन्हें भी पानी की कमी का सामना नहीं करना पड़ा। किंतु विश्व के अधिकांश देश ऐसा नहीं कर पाए। फलस्वरूप उन पर जल संकट मंडरा रहा है। पानी के संभावित संकट पर विश्व स्तर पर पहली चर्चा अर्जेटीना में यूनाइटेड नेशन्स वाटर कांफ्रेंस 1977 में हुई।

सम्मे्लन में उठा मुद्दा
1990 में नई दिल्ली में ग्लोबल कंसलटेशन ऑन सॉफ्ट वाटर एंड सैनिटेशन सम्मेलन में भी यह मुद्दा उठा था। 1992 में डब्लिन कांफ्रेंस में इसके लिए चार सिद्धांत प्रतिपादित किए गए। ताजा जल सीमित है, ह्रास होने वाला साधन है। पानी के प्रबंधन में इसका इस्तेमाल करने वालों, नीति निर्धारकों और योजना बनाने वालों यानी सबकी भागीदारी हो। पानी की पूर्ति, प्रबंधन और बचाव में महिलाओं की अहम भूमिका मानी जाय। पानी आर्थिक पदार्थ है, मुफ्त में मिलने वाली चीज नहीं। 1998 में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि पानी की कमी और प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य, आर्थिक एवं कृषि विकास और पर्यावरण के लिए खतरा हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओइसीडी) ने भी पानी की कीमत निर्धारण की नीति बनाने पर जोर दिया ताकि पानी का सदुपयोग हो सके।

बेहद अनमोल है पानी 
विकसित और विकासशील सभी देश पानी को अब कीमती पदार्थ मानते हैं, मुफ्त में मिलने वाली चीज नहीं और इसके प्रबंधन को प्रभावशाली बनाने पर जोर दे रहे हैं। पानी के संकट की गहनता इस बात से भी आंकी जाती है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर हो सकता है। विश्व की अधिकांश बड़ी नदियां एक से अधिक देशों की सीमाओं में बहती हैं। जैसे-जैसे पानी की मांग बढ़ेगी। पानी के बंटवारे को लेकर देशों में आपस में तनाव बढ़ेंगे, युद्ध की नौबत आ सकती है। जॉन हापकिन विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार 1998 में विश्व में 40 करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे थे, 2050 तक 400 करोड़ लोगों पर यह संकट आ जाएगा। पानी की कमी और प्रदूषण का असर लोगों के जीवन स्तर पर पड़ेगा, आमदनी का बड़ा हिस्सा पानी पर खर्च करना पड़ेगा।

मूल्यवान राष्ट्रीय परिसंपत्ति
भारत में राष्ट्रीय जल नीति 1987 में बनी जिसमें जल को ‘मूल्यवान राष्ट्रीय परिसंपत्ति’ की संज्ञा दी गई। जल संरक्षण, आवंटन, बाढ़ और सूखा प्रबंधन जैसे विषयों पर नीति निर्धारण की बात कही गई, किंतु जमीनी स्तर पर काम बहुत कम हुआ। जल की कमी और प्रदूषण बढ़ता ही गया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने शासनकाल में बड़ी-बड़ी नदियों को जोड़ने की बात कही। उनकी योजनाओं पर उनका शासन समाप्त होने के बाद पानी फिर गया। वर्तमान सरकार इस दिशा में नए सिरे से प्रयास कर रही है जो अभी कागजों पर है। जल संकट देश के दरवाजे पर दस्तक दे चुका है। पानी को लेकर गैंगवार और हत्याएं होने लगी हैं, राज्यों के बीच नदियों के पानी के बंटवारे का विवाद बढ़ता जा रहा है। जल प्रबंधन को अभी गंभीरता से नहीं लिया गया तो स्थिति दिनों दिन बदतर होती जाएगी।

हल निकालना जरूरी
बारिश के जल का भंडारण, नदियों के किनारे की नम भूमि (वेटलैंड) की सुरक्षा, भूमिगत जल के दुरुपयोग पर रोक, नदियों, झीलों और पानी के अन्य स्नोतों की प्रदूषण से मुक्ति, सिंचाई के नए साधनों-डिप, स्प्रिंकल आदि का बड़े पैमाने पर उपयोग, इस्तेमाल हुए जल की रीसाइक्लिंग, पेयजल के लिए शहरों में आधुनिक तकनीक पर जोर, बाढ़ और सूखे से बचाव के लिए दूरगामी सोच और योजनाएं, शहरीकरण एवं औद्योगीकरण जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर भारी न पड़ें इसके लिए कारगर उपाय युद्ध स्तर पर करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही बढ़ती आबादी पर नियंत्रण तो आवश्यक है ही। देश के राजनीतिक दल इस समस्या को वोट बैंक से जोड़ने के बजाय देश के हित में इसका हल निकालें तो अच्छा होगा।

मानवता को खतरा
विश्व स्तर पर औद्योगिक क्रांति, हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के बाद अब नीली क्रांति की चर्चा होने लगी है। जल संकट पूरे विश्व को, पूरी मानवता को संकट में डाल सकता है। समुद्र का जल अभी तक पीने और सिंचाई तथा अन्य उपयोगों के लिए योग्य नहीं समझा जाता था। अब डीसैलिनाइजेशन (विलवणीकरण) तकनीक से उसे उपयोगी बनाया जा रहा है। इस तकनीक का विकास जल संसाधन प्रबंधन में वैसे ही क्रांति ला सकता है जैसे सोलर एनर्जी ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र में ला रही है। भारत के तीन ओर समुद्र है, नई तकनीक कॉमर्शियल उत्पादन के योग्य हो जाय तो जल संकट का अच्छा हल निकल सकता है। इस दिशा में और अनुसंधान एवं प्रयोग की आवश्यकता है।

(लेखक अर्थशास्त्री हैं)

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