साइन लैंग्वेज को राइट टू लैंग्वेज बनाए जाने की मांग कर रहे मूक-बधिर

बधिरों के हित संवद्र्धन से जड़े अखिल भारतीय संगठन- नेशनल एसोसिएशन ऑफ डेफ का कहना है कि यह संख्या एक करोड़ 80 लाख है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 25 Jan 2020 10:16 AM (IST) Updated:Sat, 25 Jan 2020 10:16 AM (IST)
साइन लैंग्वेज को राइट टू लैंग्वेज बनाए जाने की मांग कर रहे मूक-बधिर
साइन लैंग्वेज को राइट टू लैंग्वेज बनाए जाने की मांग कर रहे मूक-बधिर

नई दिल्ली, मनु त्यागी। हम मौन हैं, बोल-सुन नहीं सकते, लेकिन बोलने-सळ्नने का हक उतना ही है, जितना आपको...। अभिव्यक्ति का हक उतना ही है जितना आपको...। भले जुबां साथ न दे, समाज के स्वर कानों तक पहुंचते न हों, पर एहसास है, आभास है, क्योंकि हम भी इंसान हैं...। इशारों की ही सही, लेकिन यही हमारी भाषा है, यही अभिव्यक्ति। इसे संवैधानिक मान्यता मिलने से हमारी यह भाषा संरक्षित और समृद्ध होते हळ्ए हमारे समाज के लिए मददगार सिद्ध होगी...। यह कहना है नेशनल एसोसिएशन ऑफ डेफ के निदेशक अनळ्ज जैन का। संगठन की ओर से न केवल इसे लेकर कैंपेने चलाया जा रहा है वरन गत वर्ष कोर्ट में याचिका भी लगाई गई है।

अनुज कहते हैं, हमारा कैंपेन देश की मूक-बधिर आबादी का प्रतिनिधित्व है, उनकी आवाज है। दरअसल, इनके पास अभिव्यक्ति का जो सहज साधन है, वह है सांकेतिक भाषा, जिसे साइन लैंग्वेज कहते हैं। इसके जरिये ये अपनी बात पूरे अधिकार से रखते हैं। ये लोग सांकेतिक भाषा का संरक्षण और संवद्र्धन भी चाहते हैं ताकि इनका यह एकमात्र माध्यम इनकी आवाज बना रहे। मांग सिर्फ इतनी सी है कि ये जिस भाषा में खुद को अभिव्यक्त करते हैं, उसे समाज और संविधान स्वीकार्यता दे, उसका सम्मान करे। देश के संविधान में फिलहाल 22 भाषाएं अधिकृत भाषा के रूप में सूचीबद्ध हैं। हमारी मांग है कि 23वीं भाषा हमारी भी हो। इसे भाषा के अधिकार में शामिल किया जाए...।

अनुज ने सांकेतिक भाषा में एक सहयोगी के माध्यम से हमसे कहा, मैं जब छोटा था मुझे भी अपने अधिकारों का पता नहीं था। मेरी तीन बहनें भी मेरी तरह मूक- बधिर थीं। हम ऐसे ही अपने अधिकारों को जाने-समझे बगैर बड़े हो गए, लेकिन अब चाहता हूं कि आगे दिक्कतें न आएं। इसीलिए पुलिस के माध्यम से और कंपनियों में जाकर मूक-बधिरों के अधिकारों के बारे में जागरूक करते हैं। वर्कशॉप की जाती हैं। होता यह है कि कंपनियों में जब कोई मूक-बधिर नौकरी करता है तो लोग उससे किनारा करते हैं। समाज में हर कोई उनकी सांकेतिक भाषा तो नहीं समझ सकता, लेकिन हम साधारण तरीकों से भी उन तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। हालांकि अब धीरे-धीरे बदलाव भी आ रहे हैं। मैं 15 साल से मूक-बधिरों के अधिकारों को उन तक पहुंचा।

सिग्नेचर कैंपेन से जागे लोग

अनुज ने बताया कि याचिका पर निर्णय आना शेष है। इसके अलावा सिग्नेचर कैंपेन भी शुरू किया है, जिस पर अब तक सालभर में तकरीबन 50 हजार लोग साइन कर सांकेतिक भाषा के अधिकार की जरूरत जता चुके हैं। उन्होंने कहा, सरकार को इस व्यथा पर सोचना चाहिए।

रूमा बना रहीं काबिल

एक दिन अचानक चैनल बदलते वक्त मूक-बधिर समाचारों पर नजर पड़ी। मुझे थोड़ा अजीब लगा क्योंकि मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी। तय किया कि मूक-बधिरों के लिए कुछ करूंगी, उन्हें सुशिक्षित करूंगी। इसके लिए पहले मैंने खुद जाना समझा कि आखिर ये बच्चे सीखते कैसे हैं और फिर व्यवस्थित शुरुआत की इनका

सहयोग करने की...। यह कहना है रूमा रोका का, जो मूक-बधिरों के कल्याण के लिए संघर्षरत हैं। रूमा ने 2004 में सांकेतिक भाषा का कोर्स किया और ऐसे बच्चों के लिए स्कूल खोला। रूमा कहती हैं कि यह सब आज कहने में आसान लगता है, लेकिन खुद को उसी स्तर पर ले जाकर उन्हीं की तरह एहसास करने के बाद ही यह संभव हो सका।

दरअसल, ऐसे बच्चों को कम उम्र से ही प्रशिक्षित करने की जरूरत होती है, ताकि समय रहते वे सब कळ्छ सीखकर मुख्यधारा में शामिल हो सकें। जिंदगी की खूबसूरती को जी सकें और अपनी जिंदगी में भी कुछ रंग भर सकें। कहती हैं, मैंने वर्ष 2005 में नोएडा डेफ सोसायटी का गठन किया था। हमारे देश में एक करोड़ बीस लाख बधिर हैं, जिनमें से 80 फीसद ऐसे हैं, जिन्हें आधारभूत शिक्षा भी नहीं मिलती। अपने छोटे से घर के एक कमरे में पांच बच्चों के साथ इसकी शुरुआत की थी और अकेली शिक्षक थी, लेकिन आज 1200 छात्र हैं। कई साल से तो अब ये छात्र खुद ही मेरे यहां और बच्चों को लेकर आते हैं। किसी से किसी तरह का कोई शुल्क नहीं लिया जाता है।

अब तो हर साल कहीं न कहीं मुख्य धारा में जुड़कर काम कर रहे हैं। अब 2400 बच्चों समाज में समान रूप से नौकरी मिल चुकी है। मॉल, बैंक, मैन्यूफैक्चर में सभी जगह नौकरी कर रहे हैं। बकौल रूमा, जो लोग सुन नहीं पाते हैं, हमें उन्हें इतना काबिल बनाना था और बनाना है कि सुनने के अलावा वे कुछ भी कर सकें, ठीक वैसे ही जैसे कोई सामान्य इंसान कर सकता है। खळ्शी है कि मैं अपने स्तर पर इसमें सफल हो रही हूं, लेकिन बहुत कळ्छ किया जाना बाकी है।

स्कूलों में नहीं हैं साइन लैंग्वेज के शिक्षक अनुज जैन कहते हैं, आपको जानकर हैरानी होगी कि मूक-बधिरों के लिए जितने भी स्कूल हैं, उनमें सांकेतिक भाषा के कळ्शल शिक्षकों का नितांत टोटा रहता है। वहां बच्चों को सांकेतिक भाषा में बात करना सिखाने के बजाए उन्हें दूसरों की बात को सुनने और समझने पर ज्यादा जोर दिया जाता है। वर्ष 2016 में दिव्यांगता अधिकार विधेयक-2016 को पारित किया गया। उसके बाद मैंने डेफ एसोसिएशन के माध्यम से मूक- बधिर स्कूलों में शिक्षकों के स्तर पर भी बदलाव के लिए मांग रखी है। लोगों को यह समझाया है कि यदि एक मूक-बधिर बच्चे को स्कूली स्तर पर ही सांकेतिक भाषाओं का ज्ञान दिया जाए, उसकी पहली भाषा, जिसमें वह सबकळ्छ सीखे सांकेतिक हो। हर मूक-बधिर को सांकेतिक भाषा नहीं आती। इसीलिए हमारा सबसे पहला लक्ष्य यही है कि स्कूल भी इस भाषा से सुशिक्षित हों। 2011 में हमने बधिरों के लिए ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने को लेकर याचिका लगाई थी, जिसके बाद अब बधिर इसके लिए अप्लाई कर सकते हैं।

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