भारत के लिए चिंता का सबब है चीन और पाकिस्तान के बीच मजबूत होती दोस्ती

लगता है कि चीन भारत को तब तक उकसाता रहेगा जब तक इसका धैर्य जवाब न दे जाए। बिना तल्खी के इसका जवाब कैसे दिया जाए, भारत इसी परिस्थिति का सामना कर रहा है

By Kamal VermaEdited By: Publish:Fri, 11 May 2018 12:54 PM (IST) Updated:Fri, 11 May 2018 05:24 PM (IST)
भारत के लिए चिंता का सबब है चीन और पाकिस्तान के बीच मजबूत होती दोस्ती
भारत के लिए चिंता का सबब है चीन और पाकिस्तान के बीच मजबूत होती दोस्ती

[कुलदीप नैयर]।भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गर्व से चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई का समर्थन किया। वह फर्स्ट फ्रंट के सेना प्रमुख चियांग काई शेक को हरा कर आए थे। चीन के प्रधानमंत्री ने भारत की आजादी के आंदोलन का समर्थन किया था, जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत की आजादी दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों के विजय पर निर्भर नहीं है। हालांकि चाऊ एन-लाई ने नेहरू के साथ विश्वासघात किया। उनका भारत पर हमला करना एक ऐसा प्रहार था जिसे नेहरू बर्दाश्त नहीं कर पाए। इसके बाद गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों ने मिलकर कोलंबो प्रस्ताव में संशोधन किया और आंशिक रूप से नेहरू की इज्जत लौटा दी थी। इस प्रस्ताव ने नई सीमा को मान्यता दी थी जहां चीन ने ताकत के जरिये सीमा रेखा खींच दी थी। इसके बाद से दोनों देशों के रिश्तों में खट्टापन चला आ रहा था। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन की ओर से तय सीमा मान ली है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी यह तर्क दे सकती है कि उन्होंने वही स्वीकार किया जो कानूनी है। ऐतिहासिक क्षण मानकर जिसका स्वागत किया जा रहा है वह बीजिंग के सामने दयनीय आत्म-समर्पण है।

चीन और भारत

वास्तव में यह एक पराजय है। अगर कांग्रेस पार्टी ने यह किया होता तो भारत को बेचने वाली शक्ति के रूप में उसका जुलूस निकाल दिया जाता। चीन और भारत कभी कभार ही इस पर सहमत हुए हैं कि असली सीमा-रेखा किस जगह है। नेहरू ने कहा कि उन्होंने भारतीय सेना को घुसपैठियों को बाहर भगाने और क्षेत्र को साफ करने के लिए कहा है। उस समय से, दोनों के बीच रिश्ते कमोबेश दुश्मनी के हैं। कुछ समय पहले डोकलाम में जिच के समय भारत ने अपनी ताकत दिखाई। चीन को मौजूदा सीमा से पीछे हटना पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी की पिछले सितंबर में ब्रिक्स के दौरान हुई यात्रा से तनाव जरूर कम हुआ। उस समय मोदी की यात्रा का सकारात्मक पक्ष यह था कि दोनों देशों ने आतंकवाद से लड़ने की बात दोहराई थी, लेकिन यहां भी चीन ने अपना ही सिद्धांत रखा।

नई दिल्ली की चिंता

नई दिल्ली की चिंता यह है कि चीन और पाकिस्तान के बीच मित्रता मजबूत होती जा रही है। ज्यादा समय नहीं हुआ है जब चीन ने अरुणाचल से जाने वाले भारतीयों का वीजा नत्थी करना शुरू कर दिया था। चीन दिखाना चाहता था कि यह एक ‘अलग इलाका’ है और भारत का हिस्सा नहीं है। भारत ने इस बेइज्जती को चुपचाप सहन कर लिया। चीन ने बिना किसी आपत्ति के अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा बताने वाले नक्शे को स्वीकार कर लिया। अरुणाचल प्रदेश और चीन की सीमा के बीच एक छोटे से क्षेत्र को लेकर विवाद को याद करने के लिए अरुणाचल प्रदेश की स्थिति पर कभी-कभार ही सवाल उठाया गया है। चीन के लिए तिब्बत भारत के कश्मीर की तरह है, लेकिन दोनों के बीच एक अंतर है। पिछले साल दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश यात्रा ने चीन के तिब्बत को अपने में मिलाने के कुछ दिनों पहले की याद दिला दी।

नेहरू ने नहीं उठाई कोई आपत्ति  

नेहरू ने उस समय कोई आपत्ति नहीं उठाई, क्योंकि चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के साथ उनके व्यक्तिगत संबंध थे। दलाई लामा की यात्रा ने तिब्बत के बारे में संदेह नहीं पैदा किया, लेकिन इसने एक बार फिर बीजिंग की ओर से तिब्बत के विलय पर बहस को ताजा कर दिया। चीन ने उनकी यात्रा को एक ‘उकसावा’ बताया। इसने भारत को चेतावनी दी थी कि दलाई लामा की यात्रा दोनों देशों के बीच के सामान्य संबंधों पर असर डालेगी। डोकलाम के साथ यह निश्चित तौर पर बढ़ गया। फिर भी भारत ने अपनी स्थिति बनाए रखने में सफलता पाई। वास्तव में भारत के साथ चीन की समस्या की जड़ें अंग्रेजों की ओर से किए गए भारत-चीन सीमा के निर्धारण में हैं। चीन मैकमोहन रेखा को मानने से मना करता है जो अरुणाचल प्रदेश को भारत के हिस्से के रूप में बताता है। इस क्षेत्र में होने वाले किसी भी गतिविधि को चीन शक की नजर से देखता है।

ताकतवर देशों में शुमार भारत

चीन के विरोध जाहिर करने के बावजूद रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा ा से यही जाहिर होता है कि भारत झगड़े के लिए तैयार है, अगर ऐसा हो जाता है। उस समय भारतीय सैनिकों के पास पहाड़ पर युद्ध के लिए जूते नहीं थे, जबकि आज भारत को ताकतवर देशों में शुमार किया जाता है। ऐसा लगता है कि चीन भारत को तब तक उकसाता रहेगा जब तक इसका धैर्य जवाब न दे जाए। जब युद्ध नहीं होना है तो चीन के पास यही विकल्प बचता है। बिना झगड़े के इसका जवाब कैसे दिया जाए, भारत इसी परिस्थिति का सामना कर रहा है।बीजिंग भारत-चीन भाई-भाई का परिदृश्य वापस लाना चाहता है। दोनों देशों के बीच डोकलाम के गतिरोध के बाद भारत के प्रधानमंत्री की पहली चीन यात्रा के तुरंत बाद चीन के विदेश मंत्रलय ने एक बयान में कहा कि शांतिपूर्ण चर्चा तथा एक-दूसरे की ‘चिंताओं तथा आकांक्षाओं’ का सम्मान करते हुए आपसी मतभेद को संभालने की ‘परिपक्वता तथा विवेक’ दोनों देशों में है।

समझौते के लिए सीमा

निष्पक्ष, उचित तथा एक-दूसरे को स्वीकार्य समझौते के लिए सीमा के सवालों पर विशेष प्रतिनिधियों की बैठक का उपयोग करने पर भी वे राजी हुए। बयान में कहा गया कि दोनों सेनाएं विश्वास कायम करने वाले कदम उठाएंगी और सीमा पर शांति के लिए संवाद तथा सहयोग बढ़ाएंगी। प्रधानमंत्री मोदी तथा चीन के प्रधानमंत्री शी चिनफिंग की शिखर वाता में इस पर भी जोर दिया गया कि चीन भारत के बीच विकास संबंधी करीबी साझेदारी हो ताकि दोनों सदैव सही दिशा में चलें। नवीनतम कदम का उद्देश्य दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत करना है। अपनी दो दिनों की यात्रा के अंत में भारतीय प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति वुहान इस्ट लेक तट के किनारे चले तथा ‘शांति, संपन्नता तथा विकास’ के लिए एक ही नाव में सुस्ताने वाले और मैत्री के माहौल में सैर किया। यह शुभ संकेत है।

[लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं]

chat bot
आपका साथी