कोरोना महामारी के बीच एक अच्‍छी खबर, कृषि उत्पादन 5 प्रतिशत बढ़ने की संभावना

कोरोना संकट के दौर में कृषि क्षेत्र में उत्‍पादन बढ़ने की उम्‍मीद एक अच्‍छी खबर है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Sun, 14 Jun 2020 10:29 AM (IST) Updated:Sun, 14 Jun 2020 10:29 AM (IST)
कोरोना महामारी के बीच एक अच्‍छी खबर, कृषि उत्पादन 5 प्रतिशत बढ़ने की संभावना
कोरोना महामारी के बीच एक अच्‍छी खबर, कृषि उत्पादन 5 प्रतिशत बढ़ने की संभावना

सोमपाल शास्त्री। कोराना महामारी से अस्त-व्यस्त अर्थव्यवस्था के निराशाजनक वातावरण में कोई उत्साहजनक समाचार है तो वह अकेले कृषि क्षेत्र से। कृषि उत्पादन 5 प्रतिशत बढ़ने की संभावना है। औद्योगिक उत्पादों की मांग में जब ऐतिहासिक गिरावट आई है, वहीं ट्रैक्टर, कृषि मशीनरी और उर्वरकों की मांग में रिकार्ड वृद्धि के संकेत मिले हैं। अच्छे मानसून की भविष्यवाणी से भी इस घटक से मिलने वाले योगदान के प्रति नवीन आशा का संचार हुआ है। वर्तमान वैश्विक महामारी से कई महत्वपूर्ण सबक मिले हैं। प्रथम तो यह कि आधुनिक भौतिक प्रगति की चकाचौंध में कृषि के महत्व को कम करके देखने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होने लगी थी।

राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में 1951 में कृषि का 61 फीसद योगदान घटकर 15-17 रह जाने का हवाला देकर जाने-माने अर्थशास्त्री और नीति निर्माता इस घटक की चर्चामात्र से कतराने लगे थे। अब उन्हें मानना होगा कि आधुनिक युग के कारों, जहाजों, एयरकंडीशनरों, रेफ्रीजेटरों, होटलों, सैर-सपाटों, सिनेमाओं, समारोहों जैसे आर्थिक प्रगति के प्रतीक साजोसामान के बिना भी जीवन चल सकता है। पूरे विश्व ने अहसास किया कि इनमें से अधिकांश वस्तुएं और गतिविधियां अनावश्यक ही नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक बेचैनी एवं प्रदूषण में वृद्धि कर मानव जीवन और पृथ्वी के अस्तित्व को संकट में डालने के हेतु बन गये हैं। परंतु खाद्य पदार्थों के अभाव में तो जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

यह सत्य भी दृष्टि से ओझल नहीं होना चाहिये कि खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता सीधे राष्ट्र सुरक्षा से जुड़ी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान और भारत में खाद्य सामग्री के अभाव से उत्पन्न विभीषिका को भूलने की गलती स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिये। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कृषि की प्रगति की एक समग्र समेकित रणनीति के निर्माण की अविलंब अपेक्षा है। कृषि में निवेश, विशेषकर सरकारी निवेश, कई दशकों से सतत घटता रहा है। कृषि के विकास में सिंचाई की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

भारत की हरित क्रांति भी केवल उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रही जहां सिंचाई के सुनिश्चित साधन उपलब्ध हैं। आज भी हमारे देश की केवल 45 फीसद कृषि भूमि सिंचित है, जहां प्रति हेक्टेयर उत्पादकता का औसत 4 टन है। शेष 55 फीसद वर्षाधारित खेती का औसत उत्पादन लंबे समय से 1.2 टन प्रति हेक्टेयर पर अटका है। ग्रामीण क्षेत्रों के 82 फीसद गरीब जन इन्हीं क्षेत्रों में बसते हैं। भुखमरी, कुपोषण और गरीबी को कम से कम समय में और निश्चयात्मक रूप से दूर करने का सर्वाधिक कारगर उपाय सिंचाई है।

विडंबना यह है कि पांचवीं पंचवर्षीय योजना के बाद सिंचाई के विकास पर व्यय नगण्य सा रहा है। इस ओर अविलंब ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। एक अन्य निराशाजनक बात है कि समकालीन अर्थशास्त्रीय चर्चा में कृषि के घटते योगदान को बारंबार दोहराया जाता है, परंतु उसके कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण योगदानों को अनदेखा किया जाता है। प्रथम तो यह कि हमारी अर्थव्यवस्था के अन्य घटकों के इतने विकास के बावजूद खेती अभी भी देश के 45 फीसद लोगों को रोजगार प्रदान करती है।

दूसरे, औद्योगिक क्षेत्र द्वारा विनिर्मित वस्तुओं की लगभग 45 फीसद मांग ग्रामीण क्षेत्र से आती है, जिनकी क्रयशक्ति का मुख्य स्नोत खेती है। तीसरे, सभी भारतीय बैंकों की ग्रामीण शाखाओं का ऋण और जमा राशि का अनुपात पिछले लगभग पांच दशकों से 30:70 रहना दर्शाता है कि ग्रामीण लोगों की बचत का 70 फीसद भाग बैंकों द्वारा अर्थव्वस्था के अन्य घटकों का वित्तपोषण करने के लिये उपयोग होता है। चौथे, कृषि से 

इतर व्यवसायों जैसे कि उद्योग, सेवा और शहरी क्षेत्रों के लिये श्रमिकों और सैनिक-अद्र्धसैनिक बलों की 80-90 फीसद कार्यशक्ति ग्रामीण क्षेत्रों से आती है। उनके शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को सुरक्षित किये बिना राष्ट्र की रक्षा तथा उन्नति कदापि संभव नहीं है। देश के निर्यात में भी कृषि का योगदान 12-14 फीसद रहता है। भारतीय कृषि को एक स्थायी दृढ़ आधार प्रदान करने के लिए इसमें सरकारी निवेश में भारी वृद्धि करने के साथ-साथ कृषकों को उनके उत्पादों का समुचित मूल्य सतत मिलना नितांत अनिवार्य है।

2014 के संसदीय चुनाव प्रचार के दौरान किये गये सी-2 लागत पर 50 फीसद जोड़कर देने के वायदे को साढ़े चार वर्ष लटकाने के बाद चालाकी से ए-2+पारिवारिक श्रम कर देना किसानों के साथ सरासर धोखा है। हाल ही में घोषित कानूनी सुधारों से किसानों को दी जाने वाली तथाकथित आजादी भी एक और भुलावा है, क्योंकि मंडियों में मिलने वाला मूल्य न्यूनतम नहीं बल्कि अधिकतम है। बाहर तो इतना भी नहीं मिलता और न मिलेगा। आजादी के नाम पर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के अपने उत्तरदायित्व से पल्ला जरूर झाड़ लेगी।

आवश्यक जिंस कानून में ढील देने से मुनाफाखोरों जमाखोरों को उपभोक्ताओं का शोषण करने की खुली छूट और मिल जायेगी। आवश्यकता तो इन कानूनों और व्यवस्थाओं का समुचित उपयोग व पालन कराने की थी, न कि इन्हें कूड़ेदान में फेंककर हाथ उठा देने की। वर्तमान संकट के दौरान सबसे अधिक दुर्गति मजदूरों और किसानों की हुई। किसानों में भी सर्वाधिक हानि सब्जी, फल, फूल, दूध, अंडा, मुर्गी, मछली आदि पैदा करने वाले किसानों को उठानी पड़ी है।

बाधित आवाजाही से ये सब वस्तुएं या तो खेत में सड़ रही हैं या भाव इतने गिर गये हैं कि लागत भी वसूल नहीं हो पा रही। सरकार यदि वास्तव में कृषि को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे तुरंत अपनी नारावादी तदर्थ नीति-रीति छोड़कर एक समग्र समेकित नीति पर मंथन करना चाहिये। भारत की जलवायु और जैव विविधता पूरे विश्व में अप्रतिम है। इसके समुचित उपयोग से भूख, कुपोषण, बेरोजगारी, गरीबी दूर करने तथा सब्जी, फल, औषधीय एवं सुगंधदायक पदार्थों के निर्माणनिर्यात करके भारत विश्व की अग्रणी आर्थिक शक्ति बन सकता है। 

(लेखक पूर्व कृषि मंत्री हैं)

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