गणतंत्र दिवस पर राजपथ से मैं जसदेव सिंह..

'गणतंत्र दिवस पर राजपथ से मैं जसदेव सिंह' यह पुरकशिश आवाज करीब पाच दशक से देश को गणतंत्र दिवस की परेड का रेडियो और टेलीविजन पर हिन्दी में कमेंट्री का पर्याय है, जिसके जेहन में बहुत सारी यादें भी हैं।

By Edited By: Publish:Thu, 26 Jan 2012 09:52 AM (IST) Updated:Thu, 26 Jan 2012 04:42 PM (IST)
गणतंत्र दिवस पर राजपथ से मैं जसदेव सिंह..

नई दिल्ली। 'गणतंत्र दिवस पर राजपथ से मैं जसदेव सिंह' यह पुरकशिश आवाज करीब पाच दशक से देश को गणतंत्र दिवस की परेड का रेडियो और टेलीविजन पर हिन्दी में कमेंट्री का पर्याय है, जिसके जेहन में बहुत सारी यादें भी हैं। इस साल जसदेव सिंह ने एक निजी टीवी चैनल के लिए गणतंत्र दिवस की कमेंट्री की है।

वर्ष 1963 गणतंत्र दिवस परेड का हिन्दी में आखों देखा हाल सुना रहे जसदेव सिंह ने बताया कि कमेंट्री एक मुश्किल विधा है, जिसमें सही उच्चारण, बेहतरीन आवाज और ज्ञान का समन्वय बेहद जरूरी है। रेडियो के लिए कमेंट्री करते वक्त श्रोता के सामने एक तस्वीर खींचनी जरूरी है, जबकि टेलीविजन के लिए कमेंटरी करते वक्त पर्दे पर दिख रहे दृश्य के अलावा दर्शकों को जानकारी देनी होती है।

बीते सालों में आए बदलाव के बारे में सिंह ने कहा पहले गणतंत्र दिवस पर पुलिस की सख्ती कम होती थी। खोमचे वाले भी दिखाई देते थे और लोग खाने पीने की चीजें लेकर पहुंचते थे। मगर वक्त के साथ सब कुछ काफी बदल गया और अब सुरक्षा कारणों से सख्ती काफी बढ़ गई है।

करीब पाच दशक तक टीवी और रेडियो के लिए कमेंट्री करने वाले जसदेव सिंह ने बताया कि एक दफा वह 26 जनवरी को चार बजे से पहले राजपथ पहुंच गए और मूंगफली वाले के चारों तरफ लोगों को आग सेंकते हुए देखा और इसका जिक्र उन्होंने अपनी कमेंट्री में किया।

पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित सिंह ने कहा, दूरदर्शन और निजी चैनलों के आने के बाद भी देश के लोग गणतंत्र दिवस की परेड देखने के लिए काफी बड़ी तादाद में आते हैं और इसमें किसी तरह की कमी नहीं आई है।

आलंपिक आर्डर से सम्मानित सिंह ने बताया कि राजपथ पर देश की रक्षा करने वाले जवान कदमताल करते चलते हैं तो मौजूद लोगों की आखों में सम्मान का भाव दिखाई देता है, जो देश के गणतंत्र की शक्ति है। वह स्वयं भाव विभोर हो जाते हैं।

गणतंत्र दिवस परेड के बारे में सिंह ने कहा कि मेरा ऐसा मानना है कि परेड में झांकियों को कुछ कम किया जाना चाहिए। लोक कलाकारों और नटों के करतबों को शामिल किया जा सकता है, जिसका आम जनता के बीच आकर्षण काफी होता है। इस तरह कुछ नए प्रयोग के प्रयास किए जाने चाहिए।

कमेंट्रेटर बनने के बारे में उन्होंने बताया कि मेरे परिवार ने एक जी ई रेडियो सेट खरीदा था और उस पर महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा का अंग्रेजी के कमेंट्रेटर मेलविल डिमेलो की कमेंट्री सुनकर मैंने अपनी मा से हिन्दी में कमेंट्री की इच्छा जताई थी।

रोचक तथ्य यह है कि वर्ष 1950 में आल इंडिया रेडियो के आडिशन में असफल रहने वाले सिंह ने 1955 में रेडियो जयपुर में 200 रुपए वेतन पर 'आवाज का सफर' शुरू किया। 1961 में पहली दफा लाल किले से स्वतंत्रता दिवस की कमेंट्री की और 1963 में राजपथ से गणतंत्र दिवस की कमेंट्री की।

नौ आलंपिक खेलों, छह एशियाड और आठ हॉकी विश्वकप की कमेंट्री करने वाले सिंह ने कहा कि आखिर अंग्रेजी की बैसाखियों के सहारे कब तक चलेंगे, लेकिन कमेंट्री करते समय तकनीकी शब्दों का हिन्दी में अनुवाद नहीं किया जाना चाहिए। शब्दों के प्रयोग का भी काफी महत्व है, क्योंकि कमेंट्री को आम आदमी से लेकर विशेषज्ञ भी सुनता है।

उन्होंने बताया कि कमेंट्री में वह उर्दू के शेर और हिन्दी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं की कहावतों का प्रयोग करते हैं, जिससे यह काफी रोचक और कर्णप्रिय हो जाती है। इस साल गणतंत्र दिवस पर सिंह ने एक निजी चैनल के लिए कमेंट्री की है।

जसदेव सिंह ने बताया कि सन 63 की 26 जनवरी भुलाए नहीं भूलती। गणतंत्र दिवस के मौके पर राजपथ के दोनों ओर लोगों का भारी हुजूम उमड़ा था। कुछ ही महीने पूर्व पड़ोसी चीन के साथ जंग में मिली शर्मनाक पराजय से देश सहमा हुआ था।

पराजय की पीड़ा और हताशा के इस माहौल में राजपथ पर देश की सामरिक शक्ति का जायजा लेने पहुंचे लोग तब एकदम से चौंक पड़े, जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू खुद 30-40 सांसदों के साथ परेड करते हुए देश से मुखातिब हुए थे। राष्ट्र की एकता, अखंडता और देश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता वह अविस्मरणीय दृश्य अब भी आंखों मे कैद है। तमाम झंझावातों को परे हटाकर देश को आगे ले जाने का पंडित नेहरू का वह जज्बा भुलाया नहीं जा सकता।

जयपुर आकाशवाणी में नौकरी करते हुए मेरी दिली तमन्ना थी कि मैं हिंदी में कमेंट्री करूं। मेरी यह ख्वाहिश पूरी हुई, जब मेरा तबादला दिल्ली कर दिया गया। संयोग से वर्ष 1963 से ही मुझे गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कमेंट्री करने का मौका मिला। उसके बाद से मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। क्या नजारा हुआ करता था उन दिनों। गणतंत्र दिवस की परेड देखने के लिए सुबह साढ़े तीन बजे से ही लोगों का हुजूम राजपथ पर उमड़ पड़ता। सर्दी खूब होती थी। लिहाजा लोग गर्म कपड़े पहनकर और कंबल आदि लेकर तो आते ही थे, बिस्तर भी लेकर पहुंच जाते। कंधे पर बच्चों को बिठाए, घर-परिवार के तमाम लोगों को साथ लिए दिल्ली और आसपास के लोग अलसुबह पहुंचकर समारोह के शुरू होने का इंतजार करते। ऐसा लगता था कि वाकई राष्ट्रीय पर्व का आयोजन किया जा रहा हो।

बीते चार-पांच दशकों में तमाम परिवर्तन आ गया है। बदलाव की यह झलक 26 जनवरी को राजपथ पर भी दिखती है। कमेंट्री पहले भी होती थी, आज भी होती है लेकिन अब ऐसा लगता है कि रक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए कागजात के आधार पर कमेंट्री ज्यादा होती है। लोगों को बाकायदा प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत है, ताकि वे जनमानस में हिलोरे मारती राष्ट्रीयता को शब्दों में बयां कर सकें।

इस राष्ट्रीय त्योहार के मौके पर मैंने लगातार कई दशकों तक कमेंट्री की। देश का प्यार मुझे मिला। पहले रेडियो-दूरदर्शन के लिए कमेंट्री की, अब निजी चैनल पर करता हूं।

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