कम नंबर पाने वाले छात्रों के लिए भी कम नहीं हैं अवसर, कई राहें कर रही इंतजार

90 फीसद अकों की होड़ में शामिल होने की सोच सिस्टम से पैदा हुई है। लिहाजा अगर इस सिस्टम को बदल दिया जाए तो इस मानसिकता में बदलाव लाने की शुरुआत की जा सकती है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Sun, 12 May 2019 04:23 PM (IST) Updated:Sun, 12 May 2019 05:15 PM (IST)
कम नंबर पाने वाले छात्रों के लिए भी कम नहीं हैं अवसर, कई राहें कर रही इंतजार
कम नंबर पाने वाले छात्रों के लिए भी कम नहीं हैं अवसर, कई राहें कर रही इंतजार

प्रो राजेंद्र प्रताप गुप्ता। क्रिकेट खिलाड़ी सचिन रमेश तेंदुलकर, ओयो रूम्स के संस्थापक 24 साल के रितेश अग्रवाल, कवि और लेखक हलधर नाग, देश के प्रथम नोबेल विजेता रवींद्रनाथ टैगोर में क्या समानता है? आपका उत्तर होगा कि ये अपने-अपने क्षेत्र की महान हस्तियां हैं। बिल्कुल सही। दूसरी समानता इनके बीच यह है कि इन सभी ने औपचारिक शिक्षा नहीं ग्रहण की। परीक्षा में इनके बहुत अच्छे नंबर नहीं आए थे। ऐसे लोगों की फेहरिस्त बहुत लंबी है और इन लोगों से उन अभिभावकों और छात्रों को सीख और प्रेरित होने की दरकार है जिनके बच्चे या जो परीक्षा में नंबरों की होड़ में जगह नहीं बना पाते। उन्हें मायूस होने की जरूरत नहीं हैं। तमाम नई राहें उनकी प्रतिभा की बाट जोह रही हैं। अंकों के इस तनाव को यहीं छोड़कर जिंदगी की राह में आगे बढ़ जाना है। नई सरकार चुनने की तैयारियां जोरों से चल रही हैं।

चंद दिनों में देश की नई सरकार बन भी जाएगी। इस सरकार से भी लोगों को यही उम्मीदें होंगी कि वह नंबर गेम वाली इस स्कूली शिक्षा में कुछ नया और ताजापन लाए। ये उपसंहार है उस प्रस्तावना का जो हाल ही उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड, सीबीएसई और सीआइएससीई सरीखे कई जाने-माने शिक्षा बोर्ड नतीजों के साथ शुरू हुआ। पहली बार रिकॉर्ड बना। सीआइएससीई बोर्ड में 12वीं के छात्रों को शत-प्रतिशत अंक मिले। अन्य बोर्ड भी पीछे नहीं रहे। 99, 98 फीसद अंक हासिल करना तो सामान्य बात हो गई है। अब मान लीजिए कोई छात्र तुक्के में या किसी और तरीके से उन्हीं सवालों की तैयारी करके परीक्षा देने जाता है जो परीक्षा में पूछे जाते हैं। उन सवालों के अलावा उसे कोई ज्ञान नहीं है। वह टॉप कर जाता है। ऐसे में क्या उसका 100 में से 100 नंबर लाना उसके बुद्धिजीवी बनने का द्योतक होगा।

उसके विपरीत कोई छात्र बहुत प्रतिभाशाली है, लेकिन दुर्योग से परीक्षा में आए सवाल वह ठीक से नहीं कर पाता और उसके कम अंक आते हैं तो क्या उसकी प्रतिभा पर पानी फिर जाएगा। क्या अंकों के आधार पर प्रतिभा तय की जाएगी या फिर प्रतिभा के आधार पर आकलन किया जाए। आखिर छात्र अंकों की इस रेस में दौड़ने को क्यों विवश हो रहे हैं। स्कूली शिक्षा को सीखने-सिखाने और ज्ञान आधारित शिक्षा में कैसे तब्दील किया जाए? इन्हीं अनुत्तरित सवालों की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

पिछले लेख में बताया गया था कि परीक्षा में अंकों और फीसद के प्रति बढ़ता हमारा जुनून कैसे उन छात्रों पर प्रतिकूल असर डाल रहा है जो 90 फीसद से अधिक वाले क्लब में शामिल नहीं हो पाते हैं। साथ ही 12वीं में अच्छे अंक लाने के बाद भी कई टॉपर्स महत्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण नहीं कर पाते हैं। उदाहरण के लिए, सीबीएसई बोर्ड के 94 हजार से अधिक छात्रों ने 90 फीसद से अधिक अंक प्राप्त किए हैं तो क्या इसका मतलब यह है कि आइआइटी / मेडिकल / अन्य ऐसी शीर्ष संस्थानों की सीटें इन्हीं छात्रों को मिल जाएंगी।

असल में ऐसा नहीं है। मुझे यूपी के एक कुलीन मिशनरी स्कूल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति समिति के सदस्य के रूप में अपने एक विमर्श की याद आती है; एक लड़की ने टिप्पणी की, सर, मेरी बहन को 12वीं कक्षा में 95 फीसद अंक मिले, लेकिन वह एक भी प्रतियोगी परीक्षा को उत्तीर्ण नहीं कर पाई। इतने उच्च अंक प्राप्त करने का क्या महत्व है? यही 95 फीसद वाली लीग में शामिल होने वाली दौड़ का लब्बोलुआब है। लेकिन फिर भी, अंकों के लिए होड़ मची है। अगर हमें इस समस्या का समाधान करना है, तो हमें यह देखने की जरूरत है कि समस्या कहां से शुरू होती है।

आज, अंकों के लिए प्रतिस्पर्धा केवल छात्रों के बीच नहीं बल्कि परीक्षा बोर्डों के बीच भी है। मुझे याद है कि पिछली सदी के आखिरी दशक में आइसीएससी, आइएससी बोर्ड उच्चतम फीसद के लिए जाने जाते थे और इसलिए अन्य बोर्ड भी उसी रास्ते पर चलने लगे। इसलिए ज्यादा अंक दिलाने के लिए बोर्ड उदार हुए जो छात्रों को सर्वश्रेष्ठ अंक प्राप्त करने की दौड़ में बदल गया। विभिन्न बोर्डों के बीच उच्चतम फीसद देने की इस दौड़ को हल करने का सबसे सरल तरीका है एकल राष्ट्रीय बोर्ड जैसे एनईईटी।

कृत्रिम बाधाओं को दूर करना

जेईई जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं का मानदंड कक्षा 12 में 75 फीसद है। जब हम किसी प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से प्रवेश पाते हैं तो यह मानदंड अतार्किक लगता है। जब कोई किसी स्ट्रीम के लिए प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करता है, तभी यह उचित है। इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि न्यूनतम 75 फीसद लाने का छात्रों का तनाव कम होगा। अभी तो छात्र 100 फीसद का लक्ष्य रखते हैं जिससे कि कड़ाई से हुए मूल्यांकन के बाद भी वे क्वालीफाई करने वाले मानक 75 फीसद तक पहुंच सकें।

छात्रों द्वारा सौ में से सौ अंक हासिल कर लेने की वजह कीवर्ड मार्किंग है। अगर परीक्षक उत्तर में तय कीवर्ड को पाता है तो छात्र को पूरा का पूरा नंबर दे देता है। यहां, एसएटी (शॉर्ट आंसर टाइप) और एलएटी (लांग आंसर टाइप) प्रश्नों की अहमियत खत्म हो गई है और इसलिए हमें कीवर्ड-आधारित मूल्यांकन से बाहर आना चाहिए। परीक्षक को उत्तर की उपयुक्तता के आधार पर छात्र का मूल्यांकन करना चाहिए, कीवर्ड के आधार पर नहीं। हम यह न भूलें कि भारत के सबसे अच्छे वैज्ञानिक, डॉक्टर और इंजीनियर छठे और सातवें दशक के हैं, जब इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाएं भी एलएटी पर आधारित होती थीं, न कि केवल बहु विकल्पीय प्रश्नों पर, जैसा कि आज है।

व्यापक मूल्यांकन

आज की परीक्षा प्रणाली एक वर्ष में सिखाई गई छात्र की याद करने की क्षमता का मूल्यांकन है, जिसे तीन घंटे के अंतराल में कुछ प्रश्नों के उत्तर देने की प्रणाली के माध्यम से परीक्षण किया जाता है, और बाकी छात्र की स्मृति, कीवर्ड और मूल्यांकनकर्ता पर निर्भर करता है। हमें व्यापक मूल्यांकन की ओर बढ़ने की जरूरत है। छात्रों का व्यापक मूल्यांकन स्कूल पाठ्यक्रम और प्रैक्टिकल (50 फीसद); जीवन कौशल की दक्षता (15फीसद); व्यक्तिगत क्षमताओं और विशेष रुचियों (20फीसद ) और सामुदायिक कार्य और सामाजिक प्रभाव (15 फीसद) पर आधारित होना चाहिए।

बढ़ती सीटें

1992 में अंतिम शिक्षा नीति में सुधार के बाद से हमारी आबादी 59 फीसद बढ़ गई है, लेकिन सीटें अभी भी मांग से बहुत कम हैं। हमें इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके अलावा, सभी छात्रों की ये हसरत होती है कि वे सरकारी वित्त पोषित कुलीन संस्थानों में दाखिले के लिए उच्चतम संभव अंक प्राप्त करें। क्योंकि उनकी फीस कम होती है। इसलिए, सरकार को सामाजिक रूप से शिक्षा को बेहतर बनाना चाहिए और शिक्षा में भारी निवेश करना चाहिए।

 

इसके अलावा, यह समय है कि हमें टॉपर छात्रों और औसत अंक पाने वाले छात्रों का मूल्यांकन करना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्र और समाज की भलाई के लिए क्या किया। इससे माता-पिता को समझाने में मदद मिलेगी कि वे अपने बच्चे को ज्यादा से ज्यादा अंक लाने को लेकर बहुत व्यग्र न हों। इससे छात्रों और अभिभावकों का इससे जुड़ा तनाव कम होगा। इसी के साथ हमें प्रत्येक क्षेत्र में हर साल नौकरियों की अनुमानित संख्या को भी बताना होगा जिससे लोग केवल आइआइटी, आइआइएम और मेडिकल के लिए मारामारी न करें। अंत में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 90 फीसद अकों की होड़ में शामिल होने की सोच सिस्टम से पैदा हुई है। लिहाजा अगर इस सिस्टम को बदल दिया जाए तो इस मानसिकता में बदलाव लाने की शुरुआत की जा सकती है। 

10वीं का हाल

मई के पहले सप्ताह में सीबीएसई बोर्ड ने दसवीं के नतीजे जारी किए। इस परीक्षा में कुल 17.5 लाख परीक्षार्थी शामिल हुए थे। इनमें से रिकॉर्ड 2.25 लाख छात्रों ने 90 फीसद या इससे अधिक अंक अर्जित किए। 57,256 छात्रों ने 95 फीसद या उससे अधिक अंकों का तिलिस्म भी तोड़ डाला। पिछले साल के मुकाबले इस बार अधिक अंक पाने वाले छात्रों की संख्या करीब दोगुनी हो गई। छात्रों के उत्तीर्ण होने का फीसद ऐतिहासिक रूप से 91.1 फीसद रहा। 

उत्तीर्ण होने का फीसद

बोर्ड परीक्षाओं का तनाव कम करने के लिए सीबीएसई ने 2009 में सीसीई (कांटीन्यूअस एंड कंप्रेहेंसिव ईवैल्युएशन) प्रणाली लागू की। इसके तहत साल भर स्कूल आने वाले छात्रों के विभिन्न आयामों का आकलन किया जाता था। जिस साल बोर्ड ने यह प्रणाली लागू की उस बार छात्रों का उत्तीर्ण फीसद 88.84 रहा। 2018 यानी पिछले साल सीबीएसई को फिर से उसी पुराने ढर्रे पर लौटना पड़ा। तब उत्तीर्ण फीसद 86.7 रहा।

आपकी आवाज

कठिन परिस्थितियों में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले छात्रों की उपलब्धि बेशक सराहनीय है, लेकिन ये भी देखना चाहिए कि वे इन अंकों के बोझ से न दबें रहें और अपना भविष्य अंकों की होड़ के हवाले न कर दें।

-रमाकांत तिवारी

आधुनिकता के इस दौर में शिक्षा का महत्व सिर्फ नौकरी पाना ही रह गया है। माता-पिता को चाहिए की बच्चों को बताएं कि शिक्षा व्यक्तित्व का निर्माण, ज्ञान व कौशल में सुधार करके, एक सभ्य मनुष्य बनाने में भी महान भूमिका निभाती है।

-सौरभ शुक्ला

पहले के लोग शिक्षा को मिशन मानते थे। लेकिन 21वीं सदी की पीढ़ी नौकरी को मिशन मानकर शिक्षा ग्रहण करती है।-अन्नू शुक्ला। योग्यताओं के पैमाने इस लिहाज से निर्धारित किए जाएं जहां सिर्फ अंकों का ही बोलबाला न हो। स्कूली शिक्षा को बस्ते और अंकों के भारी बोझ से मुक्त करना हर हाल में जरूरी है। - कैलाश वाजपेयी। कुछ दशक पहले छात्रों का गुड सेकंड डिवीजन भी टॉप करने सरीखा होता था। क्या उन छात्रों को आगे चलकर बेहतर नौकरियां नहीं मिलीं। मांग और आपूर्ति का सिद्धांत यहां भी लागू है।

- साहिल

 (लेखक राष्ट्रीय शिक्षा नीति समिति के पूर्व सहयोगी हैं)

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