स्वर्ग से सुंदर सिक्किम का शानदार सफर

गर्मी भीड़ से बचना हो और प्रकृति के खूबसूरत नजारों को निहारना हो तो सिक्किम आने का प्लान बनाएं। रोमांच और यादगार सफर के लिए सिक्किम की कौन सी जगहें हैं बेस्ट इनके बारे में जान ले

By Priyanka SinghEdited By: Publish:Fri, 03 May 2019 01:49 PM (IST) Updated:Sat, 04 May 2019 11:10 AM (IST)
स्वर्ग से सुंदर सिक्किम का शानदार सफर
स्वर्ग से सुंदर सिक्किम का शानदार सफर

जब मैदानी इलाकों में गरमी बरस रही हो और ठंडी हवाओं के झोंको को महसूस करना हो तो सिक्किम का रुख करें। जब प्रकृति के खूबसूरत नजारों को निहारना हो और जिंदगी भर न भूलने के दृश्यों को यादों में संजोना हो तो सिक्किम जाएं। जब हिमालय की गोद में खुद को पाने का सपना पूरा करना हो, बर्फीली चोटियों को सूरज निकलते समय धवल से सुनहरा होते देखना है तो जाएं सिक्किम में। लेकिन सिर्फ सीजन में। समय के चयन में गड़बड़ी मुश्किल में डाल सकती है। मौसम का पता कर लें, रास्तों की जानकारी ले लें। पहाड़ों में पर्यटकों की भीड़ शायद नहीं भाए लेकिन सीजन में ही खिलते हैं फूल यहां, साफ मिलता है आसमान, लुभाते हैं बर्फ से ढके पहाड़ और लगता है जैसे स्वर्ग से भी सुंदर है सिक्किम...

दिल्ली से बागडोगरा की फ्लाइट पकड़ते समय कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हम प्रकृति के इतने करीब जाएंगे कि दूर से दिखने वाली बर्फीली चोटियों को करीब से छू सकेंगे। शून्य से नीचे के तापमान पर कंपकंपी महसूस करेंगे और मौसम की मनमानी समझ सकेंगे। बागडोगरा से गंगटोक का 124 किमी का सफर करीब चार घंटे का रहा होगा लेकिन पश्चिम बंगाल से सिक्किम की ओर बढ़ते हुए लंबी काली सड़कें संकरी होती गईं। खाई और पहाड़ के बीच गाड़ी दौडऩे लगी और पहाड़ों के बीच बसे कस्बे नजर आने लगे। जब ड्राइवर रोशन ने ऊपर से गंगटोक का पूरा नजारा दिखाने के लिए गाड़ी रोकी तो दिलकश नजारे ने दिल में जगह बना ली। अप्रैल का महीना था फिर भी ठंड कुछ ज्यादा ही थी। घुमावदार रास्तों को कौतूहल से देखते हुए हम उस गेस्ट हाऊस में पहुंच गए जहां हमारा रूकने का इंतजाम था। कमरे तैयार थे और खाना भी। लंबे सफर के बाद सुहावने मौसम और घर जैसे खाने ने आगे की कठिनाईयों को सहन करने की ऊर्जा दे दी थी।

वह शहर जहां बसती है संस्कृति

दूसरे दिन हमें गंगटोक की खास जगहों को ही देखने जाना था जिसमें पहला नाम रूमटेक मॉनेस्ट्री का था। गंगटोक से करीब 24 किलोमीटर की दूरी पर, 5000 फीट की ऊंचाई स्थित है। यहां का स्थापत्य और दीवारों पर निर्मित भित्ती चित्र तिब्बती संस्कृति के परिचायक हैं। यह मठ करमापा लामा का प्रमुख स्थान है और 300 वर्ष पुराना है। इस मठ के साथ हनुमान टोक और गणेश टोक हैं। स्थानीय भाषा में टोक का अर्थ मंदिर से है। एक रोपवे गंगटोक को ऊपर से दिखाता है। बहुत छोटी सी राइड है लेकिन रोमांचक है। इसके अतिरिक्त गंगटोक में कई व्यू प्वाइंट हैं जहां से दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंगा दिखाई देती है। गंगटोक का एमजी मार्ग पर्यटकों के लिए खरीदारी और घूमने का केंद्र हैं।

बर्फ से जमी थी छांगू झील

गंगटोक से अगले दिन हमें छांगू लेक और और नाथूला दर्रा जाना था लेकिन सुबह से ही चर्चा थी कि छांगू झील का रास्ता खुला मिलेगा या नहीं? नाथूला का परमिट मिलेगा या नहीं? हमें छांगू झील की परमिशन तो मिली लेकिन नाथूला पास जाने का परमिट नहीं मिला। 12,310 फीट की ऊंचाई पर थी छांगू लेक और 14,200 फीट की ऊंचाई पर है नाथूला दर्रा। इस दर्रे को कभी सिल्क रूट के नाम से पूरी दुनिया में जाना जाता था। यह भारत के सिक्किम और तिब्बत की चुम्बी घाटी को जोड़ता है। छांगू लेक को त्सोंगमो झील भी कहते हैं। पहाड़ के कठिन और संकरे रास्तों को पार करते हुए जब हम छांगू लेक पहुंचे तो बर्फ से पूरी तरह जमी इस झील को देखने हजारों पर्यटक उमड़े थे। नजारा वास्तव में रोमांचक था। वहां 200 रुपए में किराए पर बर्फ में पहनने के जूते लिए और बर्फ में मस्ती करने का मन बनाया। झील से थोड़ा ऊपर कैफे है लेकिन सब जगह रेडीमेड कॉफी और चाय ही मिलती है। जिसमें चीनी भरपूर होती है। हम चाय का खास मजा तो नहीं ले पाए लेकिन सर्द हवाओं में गरम चुस्की ने आराम जरूर दिया। छांगू से लौटते समय हमने नाथुला दर्रा जाने के लिए सेना की चौकी पर पूछा तो पता चला कि ऊपर बर्फ है, गाड़ी स्किट कर रही है नाथूला नहीं जा सकते।

बाबा मंदिर, एक सैनिक देता है पहरा

बहुत सुना था कि सिक्किम में एक सैनिक का मंदिर है जो आज भी सरहदों पर पहरा देते हैं। बाबा मंदिर से मशहूर यह मंदिर छांगू लेक के भी ऊपर है। यह भारतीय सेना के जवान हरभजन सिंह का मंदिर है। लोग कहते हैं कि बाबा हरभजन सिंह आज भी अपनी ड्यूटी करते हैं। इतना ही नहीं आज भी चीन के साथ जब बैठक होती है तो उनकी कुर्सी खाली रखी जाती है, उनके सामने खाने-पीने का सामान परोसा जाता है और यह माना जाता है कि वे वहां बैठे हैं।

सिक्किम का आखिरी गांव लाचुंग

अगले दिन लाचुंग जाने का कार्यक्रम था। यह सिक्किम का छोटा सा कस्बा है. लेकिन यहां रूक कर पर्यटक नॉर्थ सिक्किम की यमथांग घाटी और जीरो प्वाइंट जाते हैं। यमथांग घाटी का प्रवेश द्वार है लाचुंग। इन कस्बों में रूकने के लिए सामान्य से होटल मिलते हैं जिनमें सुविधाओं के नाम पर रहने, सोने और खाने का इंतजाम होता है। वैसे जो पहाड़ के सफर पर निकले उसे इससे ज्यादा और चाहिए भी क्या? कठिन था पहाड़ों का 115 किमी का सफर। चुंगथांग होते हुए खूबसूरत पहाड़ी रास्ते से हम 8500 फीट ऊपर स्थित लाचुंग पंहुचे।

 

रास्ते की मुश्किलें कम नहीं

लाचुंग से आगे बढ़ने पर रास्ते में ड्राइवर आने-जाने वाले चालकों से पूछ रहा था कि यमथांग घाटी का रास्ता खुला है कि नहीं? हर किसी का जवाब था कि नहीं, लेकिन हम यमथांग घाटी के लिए निकल पड़े और कुछ देर बाद वह प्वाइंट आ गया जहां जाकर गाडिय़ां खड़ी हो गईं थीं। जैसे-तैसे हमारी गाड़ी वहां से निकल पाई और अब हमें यमथांग जाना था। पहाड़ों में हमें मैगी वो मोमोज़ ही मिले।

खूबसूरत घाटी, फूल और बहती नदी

यमथांग घाटी लाल और गुलाबी रोडोडेंड्रोंस फूलों के लिए मशहूर है, लेकिन अप्रैल के तीसरे सप्ताह में फूल अभी खिले नहीं थे। यहां आए ज्यादातर पर्यटक पश्चिम बंगाल के थे। 12000 फीट पर स्थित इस घाटी पर पहुंचने पर खुली धूप स्वागत करती मिली। साफ पहाड़ी नदी लाचुंग चू की कलकल, बड़ी चट्टान पर लेट कर धूप की सिंकाई और चारों तरफ बर्फ के पहाड़। हर लम्हा सहेजने का समय था लेकिन ऑक्सीजन की कमी ने ज्यादा देर ठहरने नहीं दिया। इससे 20 किमी आगे चीन की सीमा के पास जीरो प्वाइंट है।

जब जूझना पड़ा ऑक्सीजन की कमी से

यमथांग से हम लाचेन आए जो एक पहाड़ी कस्बा है। लाचेन में रात को रूक कर ही सुबह-सुबह गुरुडोंगमर झील जा सकते हैं। यह झील करीब 17,800 फीट की ऊंचाई पर है। हालांकि वहां ऑक्सीजन की कमी होने और सांस लेने में तकलीफ होने की कहानी हर कोई सुना रहा था। बर्फ और भूस्खलन से सड़क टूटी थी। मुश्किल से दस किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से हम आगे बढ़ पा रहे थे। याक दिखाई दे रहे थे। चढ़ाई के बाद कोई पांच किलोमीटर की रोड बहुत अच्छी थी। यह बर्फीला पठार था। इसके आगे ऊंचाई पर झील थी। इस झील की खासियत है कि सर्दी में भी इसका एक कोना नहीं जमता। कहते हैं कि गुरुनानक के चरण यहां पड़े थे।

पहाड़ों में मिले मैगी और मोमो

बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच जहां दूर-दूर तक सफेद चादर बिछी हो वहां खाने-पीने का क्या ठिकाना हो सकता है? लेकिन 15,000 फीट की ऊंचाई पर भी एकाध छोटी सी दुकान मिल जाती है। जहां पैकेट बंद नाश्ते और गरमागरम चाय के साथ मैगी और मोमो मिल ही जाते हैं। विशेष बात यह है कि इन दुकानों को महिलाएं ही निपुणता से चला रही होती हैं। एक तरफ कढ़ाई में मसाला मैगी और कॉफी बनाती हैं तो दूसरी तरफ दुकान के सामने रूकी गाडिय़ों से उतरे लोगों को जो सामान खरीदना होता है उसका भी पूरा ध्यान रखती हैं। जब मैंने पूछा कि सीजन में काफी भीड़ संभालनी पड़ती होगी, तो वे कहती हैं, मैडम, यहां तो कभी सीजन ऑफ ही नहीं होता। अक्टूबर के बाद विदेशी सैलानी आने लगते हैं।

भारतीय सेना खड़ी सेवा में

सिक्किम में कभी भी, कितनी भी ऊंचाई पर आप जाएं आपको आपके साथ-साथ कोई मिलेगा तो वह है भारतीय सेना। सेना के जवान इतने कठिन मौसम में हमारी सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं। सुदूर चौकी पर बैठे अपने साथियों को बेस कैंप से सुविधाएं मुहैया करा रहे हैं। 15000 फीट की ऊंचाई पर थांगू में सेना के कैंप के बाहर हमारे लिए एक स्लोगन लिखा है कि 'जब आप वापस जाएं तो सबको बताएं कि उनके कल के लिए हम अपना आज कुर्बान कर रहे हैं।' वास्तव में उस स्लोगन का एक-एक शब्द सही है। जहां कोई बस्ती नहीं वहां सेना बसती है। उनके टैंक बर्फ से लदे हैं। घोड़े भी खड़े हैं जो वहां सामान ले जाएंगे जहां गाड़ी नहीं जा सकती। गुरुडोंगमर पर हम सांस नहीं ले पाए लेकिन उसके ऊपर चीन की सीमा पर सेना के जवान तैनात है और सरहदों की सुरक्षा कर रहे हैं तभी तो हम निश्चिंत होकर यहां सांस ले रहे हैं।

सिक्किम में पहले लें परमिट

सिक्किम में पहाड़ी जगहों पर जाने के लिए परमिट लेना जरूरी है। इसे गंगटोक के एम जी मार्ग स्थित टूरिज्म डिपार्टमेंट के ऑफिस से लिया जा सकता है। परमिट के लिए दो पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ और एक आईडी प्रूफकी जरूरत पड़ती है। सफर के एक दिन पहले ही परमिट जरूर ले लें। जगह जगह इसको चेक किया जाता है और आगे जाने की इजाजत दी जाती है।

हिंदी भाषी को कोई मुश्किल नहीं

सिक्किम में नेपाली और भूटिया भाषा बोलते हैं लोग, लेकिन हमें हिंदी को लेकर कोई परेशानी नहीं हुई। गंगटोक से लेकर लाचेन, लाचुंग, चुंगथांग तक, दुकानदार से लेकर आम आदमी तक, हर किसी ने हमारे साथ हिंदी में अच्छी तरह से बात की। भाषा की समस्या यहां जरा भी नहीं है। वे आपस में अपनी भाषा में बात करते लेकिन पर्यटकों से हिंदी में।

जानें से पहले जान लें ये बातें

मौसम का हाल जान लें। परमिट जरूर ले लें। गरम कपड़े पहन कर निकलें, विशेष रूप से इनर, टोपा और दस्ताने।

जंगल में किसी फूल को छूने से पहले उसके बारे में पता कर लें। पहाड़ों में सफर की शुरुआत सुबह-सुबह करें। खाने-पीने का सामान अपने साथ रखें।

कैसे पहुंचे- गंगटोक जाने के लिए करीबी एयरपोर्ट बागडोगरा है जो करीब 124 किमी दूर है।

नजदीकी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी है जिसके बीच की दूरी करीब 120 किमी है। दोनों जगह से प्राइवेट या शेयर्ड टैक्सी से गंगटोक पहुंच सकते हैं।

यशा माथुर 

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