लोक-संवेदना और जायसी का पद्मावत

अभी हाल ही में पद्मावती विषयक आख्यान के फिल्मीकरण को लेकर विवाद छिड़ा तो महाकवि जायसीकृत ‘पद्मावत’ भी चर्चा के केंद्र में आया। इस महाकाव्य में इतिहास और कल्पना का कैसा उपयोग हुआ है पढ़िए इस आलेख में...

By Babita KashyapEdited By: Publish:Mon, 20 Mar 2017 04:18 PM (IST) Updated:Tue, 21 Mar 2017 10:31 AM (IST)
लोक-संवेदना और जायसी का पद्मावत
लोक-संवेदना और जायसी का पद्मावत

सूफी कवियों ने अवधी साहित्य में अनेक महाकाव्य लिखे हैं। प्रेमाख्यानक परंपरा इन्हीं की देन है। ये सूफी कवि मुसलमान होते थे लेकिन इनकी रचनाएं उन तमाम सीमाओं को तोड़ती हैं जो मनुष्यों के बीच दीवार की तरह बना दी जाती हैं। ये कवि मनुष्य की भावनात्मक एकता के प्रतीक हैं। ये कवि अपने दौर के मुस्लिम शासकों का चरित्र-गान नहीं करते थे। उनकी तारीफ में महाकाव्य नहीं रच डालते थे। ये अपने वक्त में राजमुखी नहीं, लोकमुखी थे। ये लोक में फैली लोकगाथाओं, जिसमें जनता का दिल धड़कता था, को आधार बनाकर उसे

महाकाव्य का आकार देते थे। इनका आधार लोक-संवेदना होती थी।

मध्यकाल में जहां एक तरफ सत्ता को लेकर अंधापन, बर्बरता, मारकाट थी तो वहीं दूसरी तरफ लोक में प्रेमगाथाएं थीं जिनमें लोग प्रेम जैसे मूल्य की आस्था और मनुष्यता को गाते-सुनते थे। इनमें एक आदर्श होता था। अवध के इन सूफी कवियों ने इस बात 1की अहमियत को समझा। इन्होंने हिंदू-घरानों की इन प्रेमगाथाओं को फारसी मसनवी शैली के ढांचे में ढालकर महाकाव्यात्मक रूप दिया। इससे जो रचनात्मक उत्पाद निखरकर आया वह खालिस हिंदुस्तानी था। लोग यह भी ‘नोटिस’ ले सकते हैं कि अवध की साझा संस्कृति और सांस्कृतिक संवाद की परंपरा कितनी पुरानी और मजबूत है।

वह अवधी भाषा में है। वह लखनऊ के किसी नवाबी दौर के मेहराब से नहीं निकली या निकली भी हो तो बहुत बाद में और अलग चाल में। उसकी जमीन लोक की है, अवधी की है। आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम कवियों की इतनी बड़ी संख्या, उर्दू के अतिरिक्त, शायद ही अवधी के अलावा दूसरी किसी भारतीय भाषा में हो।

जैसा कि बहुधा पारंपरिक भारतीय कथाओं में होता है कि उनमें एक आदर्श रचने की कोशिश होती है। एक सत्य का पक्ष होता है दूसरा असत्य का। सर्जक की सहानुभूति सत्य पक्ष के साथ होती है। कथा-नायक सत्य पक्ष का होता है। 

खलनायक असत्य की राह चलता है। ये सूफी प्रेमाख्यान रचने वाले भी इस भारतीय वैशिष्ट्य को निरंतरता देते हैं। जमीनी कथा-संवेदना की पूरी कद्र करते हैं। अवधी कापहला सूफी प्रेमाख्यान है मुल्ला दाउद का ‘चंदायन’। लोक में फैली ‘लोरिक-चंदा’ की कहानी को आधार बनाकर लिखा गया है। अवधी साहित्य के इतिहास लेखक श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’ इन्हें अवधी का पहला कवि भी मानते हैं। कई अन्य सूफी प्रेमाख्यानक हैं, कुतुबन का ‘मिरगावत’, मंझन की ‘मधुमालती’, उसमान की ‘चित्रावली’, शेखनवी का ‘ज्ञानदीप’, नूसमुहम्मद की ‘इंद्रावती’, अनुराग-‘बांसुरी’ आदि लेकिन जिस ग्रंथ की गंभीर चर्चा चतुर्दिक और सर्वाधिक होती है, वह है मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’।

अभी हाल के पद्मावती और अलाउद्दीन के प्रसंग के फिल्मीकरण को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है, उसमें पद्मावत एकाएक याद किया जाने लगा। वजह कि पद्मावती का जिक्र पहली बार यहीं हुआ है। रचना में पद्मावती राजा रत्नसेन की पत्नी है। जिसके रूप-सौंदर्य की चर्चा दिगदिंगत में फैली थी। उस समय का दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी उसे किसी भी कीमत पर पाना चाहता है। फलत: युद्ध होता है। पद्मिनी सती हो जाती है। चूंकि जायसी साहित्यकार थे, इतिहासकार नहीं, इसलिए पद्मावती की ऐतिहासिकता संदिग्ध मानी जा रही है। लेकिन इसी बहाने इतिहास के न सही, साहित्य के सच को तो देखा ही जा सकता है।

पद्मावत महाकाव्य में कल्पना और इतिहास दोनों का उपयोग हुआ है, ऐसा आलोचक मानते आए हैं। ऐसी

रचनात्मक छूट साहित्यकार को होती है। पद्मावत के इतिहास और कल्पना के संदर्भ में हिंदी साहित्य में जायसी को चर्चा में लाने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को दिया जाता है। शुक्ल जी की मान्यता है कि ‘पद्मावत की संपूर्ण आख्यायिका को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।

रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा से लेकर चित्तौड़ लौटने तक हम कथा का पूर्वाद्र्घ मान सकते हैं और राघव के निकाले जाने से लेकर पद्मिनी के सती होने तक उत्तराद्र्घ। ध्यान देने की बात यह है कि पूर्वाद्र्घ तो बिलकुल कल्पित कहानी है और उत्तराद्र्घ ऐतिहासिक आधार पर है।’ चित्तौड़ पर हमला और अलाउद्दीन संबंधी बातें उत्तराद्र्घ में ही हैं। आगे वे कर्नल टाड और ‘आइने-अकबरी’ के हवालों से अपने ऐतिहासिकता के दावे को प्रमाणपुष्ट करते हैं।

पद्मावत की कथा लोक की है। उसे ऐतिहासिक संदर्भों से मिलाया है जायसी ने। आज भी अवधी की लोककथा

में, ‘सिंहल की रानी’ के सौंदर्य की चर्चा है। तोते से पूछने का प्रसंग भी है, जो जायसी के यहां है। नागमती, जो राजा रत्नसेन की पहली पत्नी हैं, वे तोते से अपनी सुंदरता के बारे में ही पूछती हैं। जवाब में उन्हें पद्मिनी की सुंदरता की श्रेष्ठता का पता चलता है। दर्पण में मुंह देखती हुई वे तोते से पूछती हैं- 

देस देस तुम फिरौ रे सुअटा

मेरे रूप और कहु कोई?

(देश-देश तुम घूमते हो, हे तोते, क्या मेरे जैसी सुंदर कोई और है?)

जवाब मिलता है-

काह कहौं सिंहल कै रानी तोरे रूप भरै सब पानी।

(सिंहल की रानी, यानी पद्मावती का क्या बखान करूं!

तुम्हारी सारी सुंदरता तो उसके सामने पानी भरे। यानी कहीं

न टिके।

जायसी ने सुंदर समन्वय किया है, लोक-संवेदना और इतिहास का। कवि ने काफी कुछ ‘जोड़ा’ है। यह उनके लिए

आसान नहीं था। इस मिलावट में उन्होंने रकत की लेई लगाई है। गाढ़ी प्रीति को आंसुओं से भिगा-भिगाकर गीला किया है-

मुहमद यह कवि जोरि सुनावा।

सुना सों प्रेम पीर गा पावा॥

जोरी लाइ रकत कै लेई।

गाढ़ी प्रीति नयन जल भेई॥

जायसी ने पद्मावत में लोक-संवेदना के सच को कहा है। एक आदर्श को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। यह

प्रेम कहानी उस आदर्श को रखने की कोशिश है जिसमें प्रेम मनुष्यता के साथ किया जाए। जबरी नहीं। तभी वह बैकुंठी  होता है। ‘मानुस प्रेम भयउ बैकुंठी’। रतनसेन उनका आदर्श नायक है। पद्मावती नायिका है। अलाउद्दीन खलनायक है। रतनसेन और अलाउद्दीन दोनों पहले-पहल सुनकर ही पद्मावती के प्रति आकर्षित होते हैं। रतनसेन तोते से उसकी सुंदरता को सुनकर जोगी बनकर साधना आदि से पाने की कोशिश करता है। अलाउद्दीन  राघवचेतन के मुंह से उसकी सुंदरता को सुनकर चित्तौड़ पर चढ़ाई करके उसे पाने की जुगत लगाता है। एक प्रेमी का रूप लेता है दूसरा रूप के लोभी का। एक अपने प्रेम के दौरान तमाम व्यक्तिगत दुख उठाता है।

दूसरा उसे पाने के लिए बहुतों को दुख उठवाता है। रतनसेन के प्रेम करने में पद्मावती विवाहित स्त्री नहीं है। अलाउद्दीन के आकर्षित होने से पूर्व ही उसे एक राजा की विवाहित स्त्री का स्तर मिल चुका है। यह भी तत्कालीन आदर्श के हिसाब से ठीक नहीं बैठता कि किसी विवाहित स्त्री से दिल लगाया जाए। यह आदर्श पद्मावत से लगभग पचास साल बाद लिखे एक दूसरे अवधी महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ में जाहिर है कि दूसरे की स्त्री के ‘लिलार’ को चौथ के चंद्रमा (जिसे देखना अनिष्ट करता है) की तरह तज देना चाहिए

सो परनारि लिलार गोसाई।

तजहु चौथि चंदा की नाई॥

मध्यकालीन बर्बरता, हिंसा और अंधेपन को देखते

हुए यह यह रचनात्मक आदर्श कितना प्रासंगिक रहा होगा,

अनुमान किया जा सकता है। ताकत व सत्ता से बाकी चीजें तो हासिल की ही जाती थीं लेकिन क्या प्रेम जैसी भावनाएं भी हासिल की जा सकती हैं? पद्मावती का जौहर, सती होना भी मध्यकालीन आदर्श के तहत ही था, ताकत के अहंकार को मिट्टी में मिला देता है। अलाउद्दीन को चित्तौड़ तो मिलता है लेकिन पद्मावती नहीं, मिलती है उसकी राख!

छार उठाइ लीन्हि इक मूठी।

दीन्हि उड़ायि पृथ्वी झूठी॥

ताकत व सत्ता के प्रतीक के रूप में अलाउद्दीन है। लोक ने दिल्ली के सुल्तान को इसके लिए चुना। उससे बेहतर सत्ता और ताकत का प्रतीक कौन होता! लोक की संवेदना स्पष्ट है। इस चिंतन में हिंदू-मुसलमान की मजहबी दीवारें नहीं हैं। इसमें अवध की साझी (कंपोजिट) चिंतन परंपरा है। अवधी महाकाव्य ‘पद्मावत’ का साहित्यिक सच भी यही है। 

द्वारा-श्री दीपंकर मिश्र, सी-1/3 रेडियो कॉलोनी कैंप, 

नई दिल्ली-110009

अमरेंद्रनाथ त्रिपाठी

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