अश्वत्थामा हूं मैं

बात फिल्मों की हो या जिंदगी की, बेहद गंभीर और सुलझे हुए इंसान हैं नाना पाटेकर। अभिनय से लेकर समाजसेवा तक में समान रूप से सक्रिय इस कलाकार से बात की स्मिता श्रीवास्तव ने...

By Pratibha Kumari Edited By: Publish:Sun, 19 Feb 2017 04:56 PM (IST) Updated:Sun, 19 Feb 2017 05:05 PM (IST)
अश्वत्थामा हूं मैं
अश्वत्थामा हूं मैं

जटिल किरदारों के पर्याय माने जाते हैं नाना पाटेकर। फिल्मों के साथ-साथ वे सामाजिक कार्यो में व्यस्त हैं। वे
‘नाम’ नामक एनजीओ भी संचालित करते हैं। यह संस्था सूखे से प्रभावित किसानों के परिवारों की मदद करती
है। अपने लंबे कॅरियर में उन्होंने विविध किरदार निभाए हैं। अब फिल्म ‘वेडिंग एनिवर्सिरी’ में वे एक बार फिर
जटिल किरदार में दिखेंगे।

एक दिन की कहानी
‘वेडिंग एनिवर्सिरी’ के बारे में नाना बताते हैं, ‘हर इंसान ताउम्र मुखौटे पहनकर चलता है। ऐसे में अगर किरदार
मिलें जो निष्कपट हों, जेहन की बातें व्यक्त हो सकें तो उन्हें जीने में आनंद आता है। मेरा एक हमउम्र दोस्त है। एक्सीडेंट के चलते उसे ब्रेन इंजरी हो गई। क्लाट निकलने के बाद कुछ अंश रह जाते हैं। उन्हें कुरेद कर नहीं निकाला जा सकता है वरना शरीर के किसी अन्य हिस्से को गहरा आघात लग सकता है। परिणामस्वरूप उसकी मन:स्थिति बच्चों की माफिक हो गई है। असल समस्या मुझे पता है। हम 45 साल से दोस्त हैं। अगर उसे कोई बात खल गई तो दो-टूक बोल देता है। एक बेहतरीन बात उसने कही कि तुम अकेले मत मरना। मैं तुम्हारे साथ
मरूंगा। उसकी यह बात मेरे जेहन में उतर गई। वेडिंग एनिवर्सिरी में मेरा किरदार वैसा है। वह परिणामों को
लेकर चिंतित नहीं होता है। यह एक दिन की कहानी है। माही गिल ने अच्छा काम किया है। कहानी की पृष्ठभूमि
गोवा में है। वहीं शूट भी हुई है। फिल्म थोड़ा रहस्यमयी है।’

तब नाना नहीं रहता
पिछले साल रिलीज ‘नटसम्राट’ में नाना पाटेकर के संजीदा अभिनय को बहुत सराहा गया था। उसके बाद ‘वेडिंग एनिवर्सिरी’ जैसी फिल्म करने के संदर्भ में नाना कहते हैं, ‘बहुत उम्दा दावत खाने के बाद दाल-भात खाने की इच्छा होती है। यह हकीकत है। बहरहाल, ‘नटसम्राट’ जैसी फिल्में एकाध बार ही कलाकार के हिस्से में आती हैं। उस मिजाज की दो फिल्में मिलें तो खुद को खुशकिस्मत मानूं। दरअसल, कलाकार दायरे में सिमटकर काम नहीं करता। महाभारत युद्ध के दौरान द्रोणाचार्य के बेटे अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांच पुत्रों की हत्या कर दी थी। उसे श्रीकृष्ण ने श्राप दिया था कि वह पाप ढोता हुआ निर्जन स्थानों पर भटकेगा। कहा जाता है कि अश्वत्थामा अपनी मुक्ति के लिए भटक रहा है। कलाकार होने के कारण मुझे लगता है कि मैं अश्वत्थामा हूं। मैं अपनी जिंदगी कभी जी नहीं पाता हूं। मैं किरदार में खो जाता हूं। उन्हें आत्मसात करते हुए छह से आठ महीने गुजर जाते हैं। तब मैं नाना नहीं रहता। लिहाजा मेरे सुख-दुख के लिए स्थान नहीं होता। मुझे समर्पित कलाकार कहा जाता है। उसकी भरपाई मेरे परिजनों को करनी पड़ती है। मैं उन्हें पूरा वक्त नहीं दे पाता। किरदार से निकलने पर मैं उन्हें थोड़ा समय दे पाता हूं। तब तक दूसरी फिल्म मिल जाती है।’

घुटन ने बना दिया कलाकार
नाना अपनी सुपरहिट फिल्म ‘प्रहार’ का सीक्वेल बनाने से इंकार करते हैं। वे कहते हैं, ‘वह क्लासिक फिल्म थी। उसे छेड़ना मुनासिब नहीं समझता। ’ नाना स्वीकारते हैं कि कलाकारों की सामाजिक जिम्मेदारी है। वे कहते हैं, ‘सिनेमा प्रभावी माध्यम है। उसके माध्यम से बहुत कुछ कहा जा सकता है। सिर्फ एंटरटेनमेंट से काम नहीं चलेगा। घर के बाहर आग लगे तो हम शांत नहीं बैठ सकते। मैं कलाकार नहीं था। मेरे अंदर बहुत घुटन थी।
उसकी वजह से मैं नाटक और सिनेमा से जुड़ा। मैंने कभी दावा नहीं किया कि बेहतरीन कलाकार हूं।’

हमारा भी कुछ कर्तव्‍य है
नाना शहीद सैनिकों के सहायतार्थ भी काम कर रहे हैं। उनके परिवारों की मदद के लिए वे लोगों से भी हाथ बढ़ाने
का आह्वान कर रहे हैं। वे कहते हैं, ‘सैनिक देश सेवा में तत्पर हैं। हमारा भी उनके प्रति कुछ कत्र्तव्य बनता है।
पिछले साल सीआरपीएफ, बीएसएफ और आर्मी के करीब चार सौ लोगों की जनहानि हुई। नाम के माध्यम से
हमने प्रत्येक परिवार को ढाई लाख देना सुनिश्चित किया है। यह मामूली धनराशि है। उससे जवानों को जवानों को संतुष्टि होगी कि उनके साथ देशवासी खड़े हैं।

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