रंग बरसे कमेटी की बैठक

सब चाहते हैं कमेटी की होली हाइटेक हो, होलिका दहन का डिजिटल सीन रहे, मिलन के दिन डांसर बुलाई जाए मगर यह सब हो कैसे!

By Babita KashyapEdited By: Publish:Tue, 14 Mar 2017 12:22 PM (IST) Updated:Tue, 14 Mar 2017 12:33 PM (IST)
रंग बरसे कमेटी की बैठक
रंग बरसे कमेटी की बैठक

अचानक किसी ने ऐसी बात कह दी कि भाई के चेहरे का रंग उड़ गया। अच्छा हुआ जो उन्होंने ‘रंग बरसे कमेटी’

की बैठक बुला ली थी, वरना ऐसी रंगबाजियों की खबर  ही न मिलती। बैठक में एक दर्जन से ज्यादा लोग मौजूद

थे। ये सब मुहल्ले के नामीगिरामी थे। भाई ने प्यार से सबको निहारा, ‘ऐसा है...हमारे ऊपर ऐसी बातों का रोंया तिनकाभर भी असर नहीं होने वाला। हमारी बात सबसे अलग है। यह ख्याल रहे कि हमको होली में सद्भाव की

नदियां बहा देनी हैं। इतना भाईचारा दिखना चाहिए कि इलाके में धरने भरने की जगह न बचे। एक भी आदमी

भाईचारे से बचना नहीं चाहिए। बच गया तो फिर जानते ही हो हम क्या करेंगे!’

जिसने बात कही थी उसने फिर कहा, ‘भाई आप निसाखातिर रहें। यह तो मैंने आपको खबर दी कि पड़ोस

के मोहल्ले की कमेटी भी रंग पर है। कोशिश तो वे लोग करेंगे कि सबसे आगे रहें पर रंग बरसे कमेटी के आगे कोई

कभी टिका है भला? और टिकना भी नहीं चाहिए। शहर में धूम मचाने के यही कुछ मौके होते हैं। ऊपर से आदेश

आया है कि त्योहारों का इस्तेमाल करो। नाम चमकाओ, पब्लिसिटी करो। आए दिन सियासत में जरूरत पड़ती रहती है। याद रखो, भंग में रंग तो होना चाहिए। एक ने ललककर कहा, ‘भाई थोड़ी सी प्राब्लम आ गई है। इससे

कैसे निपटें?’ भाई इतनों को निपटा चुके थे कि निपटाने के मामले में उनको निपट अकेला माना जाता था। भाई ने इशारे से पूछा। वह बताने लगा, ‘इस बार दुश्मनों की सूची अपडेट कर नहीं मिली है। रिवायत है कि होली के

दिन दुश्मन भी गले मिल जाते हैं।

जब पता ही न होगा कि कौन-कौन दुश्मन है तो हम किसको-किसको बेफालतू गले लगाते फिरेंगे?’ भाई मुदित हुए, ‘तुम होशियार और जिम्मेदार आदमी हो। रीति-रिवाज तुम जैसे लोगों के दम से ही बचे हैं। खैर, इस बार जितने हैं उतनों से गलेबाजी कर-करवा लेना। अब तो टाइम नहीं बचा वरना कुछ दुश्मन और बना डालते। वैसे हम लोग सालभर लगे तो इसी काम में रहते हैं। कमेटी जब चंदा लेती है, सारा इंतजाम करती है तो यह जिम्मा भी उसी का है कि सबके हिस्से में गले लगाने के लिए कम से कम एक दुश्मन तो आए वरना होली का महत्व ही समाप्त हो जाएगा। हम पुरखों को क्या मुंह दिखाएंगे!’

भाई की बात में ‘चंदा’ शब्द आते ही कोने में सिकुड़कर बैठे आदमी की आंखों में सूरज-चंदा चमक उठे। ‘भाई,

खाली बातें झेल रहे हैं सारे मेंबर। पता है कि कमेटी का खजाना खाली है। ठन-ठन गोपाल में भी ठन-ठन तो सुनाई

देती है। यहां तो वह भी नहीं है!’ भाई गंभीर हो गए, ‘यह गंभीर बात है। सालभर में कुछ खास मौके ही तो होते हैं जब रसीदें कटती हैं। सब चाहते हैं कि कमेटी की होली हाईटेक हो, होलिकादहन का डिजिटल सीन रहे, मिलन के दिन डांसर बुलाई जाएं, गुझिया पिरकिया तो ठीकै है मगर कुछ और भी रहे। तो यह सब ठेंगा दिखाने से होगा। नत्थू, तुम बताओ प्राब्लम क्या है?’

नत्थू की आंखों में फिर सूरज-चंदा चमके। ‘ऐसा है भाई, दक्खिन वालों ने इस साल से अलग इंतजाम करने की सोची है। इस चक्कर में चंदे का चूरन हुआ जा रहा है। हमारी कमेटी के लोग भी अलल्ले-तलल्ले करते रहते हैं।’ भाई बेचैन हो उठे। ‘ऐसे कैसे चलेगा? तुम लोग चंदा नहीं वसूल पा रहे, लानत है। कहां हमारा देश मंगल तक

पहुंच रहा है और तुम लोग लोगों के घरों तक नहीं पहुंच पा रहे हो। लोग सीधी तरह चंदा न दें तो उलटबांसी सुनाओ।

कबीरदास किस दिन काम आएंगे और कह दो, रसीदों का हिसाब रखा जा रहा है। जिसके नाम की रसीद न दिखी,

उसको देख लिया जाएगा बल्कि सुन और समझ भी लिया जाएगा।...ऐसा करो, अपने लड़कों से कहो कि वसूली

पर कमीशन दिया जाएगा। यह भी प्रचार करो कि रसीदों में से इनामी ड्रा निकाला जाएगा। जीतने वाले को मां के

हाथ का बना खुरमा-नमकपारा-पिचिक्का दिया जाएगा।

जब और लोग विज्ञापन में मां का इस्तेमाल कर सकते हैं तो हम काहे पीछे रहें! अब का कहें, कोई और जमाना होता तो चंदा न देने वालों का खटिया-पलका-मचवा होली में झोंक देते। मजबूर है अब। इन सब कामों से हमारे पुरखों ने जाने कितना मनोरंजन किया है। उसे जाने दो लेकिन चंदे में कमी आई तो तुम सब पर लानत है।’

एक बहुत देर से चिंतन कर रहे थे। भाई से मुखातिब हुए। ‘भाई, पिछले साल कुछ ऐसी-वैसी घटनाएं सुनने को

मिली थीं। छेड़खानी वगैरह...’ भाई ने सामने बैठे नौजवानों को देखा। नौजवान मुस्कुराए। भाई ने भौंहें तरेरीं, ‘हां सही कहा आपने। इससे हमारी बदनामी होती है लेकिन एक बात समझनी चाहिए। साल में कुच्छै मौके तो आते हैं जब छेड़ाछाड़ी का प्रोग्राम खुशी-खुशी होता है लेकिन यह बात भी समझनी चाहिए कि लोगों से औरों का सुख नहीं देखा जाता। लोगों ने अपनी उमर में तो छेड़ लिया,अब जिनकी उमर है उनके पीछे छड़ी लेकर दौड़ रहे हैं। चलो कोई बात नहीं।’

एक नौजवान उचककर बोला,‘भाई तब हमारी होली का क्या होगा?’ भाई मुस्कुराए, ‘तुम ऐसे उचकते हो तभी

लोग तुमको उचक्का कहते हैं। अभी हमने अपनी बात पूरी नहीं की। ऐसा है, तुम लोग यह सब दिन कायदे से निपट जाने दो। कोई शिकायत का मौका न आने दो। हमपर भरोसा रखो। तुम लोगों को भी शिकायत का मौका न मिलेगा। यकीन रखो, हर हाथ को काम मिलेगा। कुछ ऐसा इंतजाम करेंगे कि जी भर के छेड़ लेना। सारी कसर निकाल लेना। तुम नौजवान ही तो देश का भविष्य हो। अभी चुप रहना। बाकी इतना समझ लो कि होली तो ठीकै है, मगर इसका दीगर फायदा न मिला तो सब बेकार।’

अब कुछ लोग कसमसाए। ‘भाई,बुरा न मानो, आपने इतनी इतनी बातें टिका दी हैं कि दिल मायूस होता जा रहा

है। यह न करो, वह न करो। तो करें क्या?’ भाई के भीतर कोई दार्शनिक जाग उठा, ‘तुम लोग नादान हो। करना सब है, मगर करने की तरह करना है। तुम लोगों ने रंगमंच का लफ्ज सुना है। क्या होता है वहां? नाटक होता है न! हमारे एक पढ़े-लिखे साथी ने बताया है कि होली में तो रंग ही रंग होते हैं। रंगमंच वालों ने आइडिया यहीं से मारा है। वे जमकर नाटक करते हैं। तो हमको क्या करना है, हमें भी यहां नाटक करना है। बल्कि समझदार लोग नाटक ही करते हैं। किसको फुरसत है गले मिले, दिल मिलाए, हंसे- बोले, खिलाए-पिलाए, आए-जाए! थोड़ा कहा बहुत

समझना। भूल-चूक न हो वरना लेने के देने पड़ जाएंगे।’ अब रंग बरसे कमेटी रंग में आ चुकी थी! 

सुशील सिद्धार्थ

किताबघर प्रकाशन, 24 अंसारी

रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-2

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