महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के मेढ़ा लेखा गांव में आदिवासी दर्शन, यहां रोम-रोम में समाया है 'आदि'

आदि दर्शन पर रांची में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में देश-विदेश के विशेषज्ञों ने कहा कि जहां-जहां आदिवासी हैं वहीं जंगल और पर्यावरण के संरक्षण की गारंटी है।

By Alok ShahiEdited By: Publish:Sun, 19 Jan 2020 08:37 AM (IST) Updated:Sun, 19 Jan 2020 09:12 AM (IST)
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के मेढ़ा लेखा गांव में आदिवासी दर्शन, यहां रोम-रोम में समाया है 'आदि'
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के मेढ़ा लेखा गांव में आदिवासी दर्शन, यहां रोम-रोम में समाया है 'आदि'

रांची, [संजय कृष्ण]। महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला नक्सली हिंसा के लिए जब-तब सुर्खियों में रहता है, लेकिन इसी जिले का एक गांव मेढ़ा लेखा सामुदायिकता की नई कहानी लिख रहा है। यहां 500 की आबादी है, लेकिन किसी के नाम निजी जमीन नहीं। जमीन का हर टुकड़ा ग्रामसभा के नाम है। सामुदायिकता ही यहां के जीवन का आधार है। रांची में चल रहे आदि दर्शन पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में भाग लेने आए मोहन हीरभाई हीरालाल व देवजी नवलू तोफा ने जागरण से अपने अनुभव साझा किए।

तोफा ने कहा, यह गांव आदि दर्शन को जीता है। यहां किताबों में नहीं, जीवन में दर्शन का समावेश है। हीरालाल कहते हैं कि यहां 1000 हेक्टेअर में जंगल है और 100 हेक्टेअर में खेती होती है। जंगल व खेती पर 500 आबादी का अधिकार है। अधिकार को लेकर कई बार वन विभाग के साथ अहिंसक संघर्ष भी हुआ। संघर्ष जब लंबा चला तो तत्कालीन वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश गांव में आए और फिर उन्होंने कानून के अनुसार वन का अधिकार ग्रामसभा को दिया। वनोपज पर भी जंगल का अधिकार है। यहां बांस की प्रचुर खेती होती है। इसे ग्रामसभा ही बेच सकती है। निजी कुछ भी नहीं। खेती भी सामूहिक होती है। जब गांव में नए बच्चे का जन्म होता है तो उसका भी हक हो जाता है।

वे जोर देकर कहते हैं, हमारा बस एक ही नारा है-'केंद्र व राज्य में हमारी सरकार', 'मेरे गांव में हम हीं सरकार।' इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि केंद्र व राज्य में हमारी सरकार है, यानी हमारे प्रतिनिधि वहां हैं, जिन्हें अपना वोट देकर भेजते हैं, लेकिन गांव में हमारी सरकार होगी यानी ग्रामसभा की। यहां सभा में हर परिवार से एक महिला-एक पुरुष का भाग लेना अनिवार्य है। यदि एक भी अनुपस्थित रहता है या एक भी व्यक्ति किसी योजना या विचार से सहमत नहीं होता है, उसे लागू नहीं किया जाता है। हमारे यहां सब काम सर्व सहमति से होता है। इसके तीन मूलाधार है-अध्ययन, अङ्क्षहसा व सर्वसहमति। अध्ययन यानी अपने हक-कानून को जानना। वे इस गांव में 1986 में अध्ययन के सिलसिले में आए थे फिर यह गांव-घर भी अपना ही हो गया।

तोफा जनजाति समुदाय हैं। इसे कोया कहते हैं। बाहरी लोग गोंड नाम से पुकारते हैं। तोफा कहते हैं, जो बाहरी लोग आदिवासियों के जीवन का अध्ययन करने आए, गोंडवाना लैंड पर जो आदिवासी आबादी रहती है, उसे गोंड नाम दे दिया जबकि हम सब कोया है यानी इंसान। जैसे झारखंड के हो। हो का मतलब आदमी होता है। तोफा आदि दर्शन के बारे में ईश्वर की अवधारणा जैसी हमारे यहां ऐसी कोई अवधारणा नहीं है। हां, कोया भाषा का एक शब्द है पेन। हम उसे ही पेन कहते हैं, जो हमारे समाज का ऐसा कोई आदमी जो समाज के लिए बड़ा काम किया हो।

सीएए व एनआरसी के सवाल पर कहते हैं कि हमारे यहां इसकी कोई समस्या नहीं है। हमारी ग्रामसभा बहुत मजबूत है। जब जिसे 'आदिवासी' कहते हैं, उसे सरकार भी मान लेती है। हम कानून को मानने वाले हैं। हम अपनी आजादी के साथ दूसरों की आजादी की भी कद्र करते हैं। हां, चलते-चलते हीरालाल जरूर कहते हैं, यहां आदि दर्शन पर सेमिनार हो रहा है, लेकिन वनाधिकार पर कोई बात नहीं कर रहा, जबकि जंगल के बिना आदिवासी का अस्तित्व नहीं। यही उसके जीवन का दर्शन है।

 

चेक रिपब्लिक से आई राधिका बोर्दे कर रहीं है झारखंड के आदिवासियों पर रिसर्च

लोग प्रकृति का मूल्य नहीं समझ रहे हैं। आधुनिक होने की होड़ में पर्यावरण को कलुषित कर रहे हैं। मौजूदा परिदृश्य में जरूरी है कि वे प्रकृति प्रेमी आदिवासियों से सीख लें, आदिवासी समुदाय के गुणों को आत्मसात करे।  आदिवासी समाज विकसित है। चेक रिपब्लिक में सामाजिक भूगोल विषय पर रिसर्च कर रही राधिका बोर्दे का यह कहना है। राधिका आदिवासी और प्रकृति से जुड़े विषयों पर तीन वर्षों के  रिसर्च प्रोजेक्ट पर रांची आई हुई हैं।

वह कहती हैं, आदिवासी समुदाय से हमें जल, जंगल तथा जमीन के प्रति अनुराग से सीखने की जरूरत है। हमें किसी विकसित देशों के विकास मॉडल को अपनाने से पूर्व उस देश में पर्यावरण से हो रहे नुकसान को भी देखना होगा। हम जिस विकास को अपना रहे हैं, वहां विकास कम विनाश ज्यादा है। ऐसा माना जाता है कि आदिवासी समाज बेहद पिछड़ा समाज है। उन्हें आधुनिक होने की जरूरत है, लेकिन हम आदिवासी समाज की ओर देखें तो पाएंगे कि वे हमसे कहीं अधिक विकसित हैं। हमारे विकास में प्रदूषण है, कोलाहल है, विनाश है। आप आदिवासी क्षेत्रों में जाएं तो सभी चीजें अपने मूल स्वरूप में दिख जाएंगी।

नाले की शक्ल में बची है नदियां

वृक्ष, नदी, पहाड़, हवा हर चीजें वैसी ही हैं जैसी सैकड़ों वर्ष पहले थीं।  इससे इतर हमारे शहरों या गांवों को देखें तो नदियां या तो समाप्त हो चुकी हैं या नाले की शक्ल में बची हैं। पहाड़ समाप्त हो गए हैं। जंगल जहां थे वहां आधुनिक मॉल बना दिए गए हैं। पीने का जल दूषित हो चुका है। वायु जानलेवा बन चुकी है। हम कैसा विकास चाह रहे हैं। दिल्ली आधुनिक है, मगर वहां सांस लेने के लिए साफ हवा तक नहीं है।

chat bot
आपका साथी