आभासी मंच पर बिखरी कविताओं की फुलझड़ी, देश-विदेश की कवयित्रियों ने भरे प्रेम व ममता के रंग
गृहस्वामिनी के बैनर तले आभासी मंच पर अंतरराष्ट्रीय काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें देश-विदेश की कवयित्रियों ने एक से बढ़कर एक रचनाएं प्रस्तुत की। तृप्ति मिश्रा ने मायके आई हुई बेटियों के मनोभावों को शब्दों में बांधकर एक मधुर गीत प्रस्तुत किया।
जमशेदपुर, जासं। जमशेदपुर से प्रकाशित महिलाओं की पत्रिका गृहस्वामिनी के बैनर तले आभासी मंच पर अंतरराष्ट्रीय काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश-विदेश की कवयित्रियों ने एक से बढ़कर एक रचनाएं प्रस्तुत की। कैलिफोर्निया से रचना श्रीवास्तव ने ‘बहुत दे दी सजा हमको, अब तो क्षमा कर दो...’ ऐसी ही पंक्तियों की पुकार से कवितापाठ के मंच को परमपिता को समर्पित किया और पिता को विविध आयामों से सजाते हुए अपनी कविता समर्पित की।
यूनाइटेड किंगडम से ऋचा जैन ने स्त्री विमर्श पर नारी शक्ति को नमन करते हुए दो कविताएं प्रस्तुत की ‘हूं निर्भया’ और ‘मैं भूत बनकर आऊंगी'। सिंगापुर से शार्दुला नोगजा ने वर्तमान विश्व व्यवस्था के लिए चिंता का कारण बने रहने वाले फिलिस्तीन-अफगान युद्ध को दृष्टि में रखकर ‘युद्ध में बच्चे’ शीर्षक से ज्वलंत विषय को कविता के रूप में प्रस्तुत कर श्रोताओं के विचारों में झंझावात पैदा कर दी। इसके बाद ब्रिटेन निवासी शैल अग्रवाल ने जीवन की विसंगतियों पर अनेक क्षणिकाएं प्रस्तुत कीं, "रिश्ते भी आज अटैचियों जैसे...’। अमेरिका से शशि पाधा ने रिश्तों की उलझन पर सकारात्मक संदेश देते हुए अपनी कविता "तुरपाई" मंच पर रखा- "रिश्तों की तुरपाई बाकी, तुम कर दो या मैं करूं, उघड़ी कोई सिलाई, तुम कर दो या मैं करूं’। इसके साथ ही उन्होंने भारत में बच्चियों के साथ होने वाले शारीरिक दुर्व्यवहार से व्यथित हो रहे अपने मन को शब्दों में बांधकर किसी पीड़ित लड़की के अंदर के अंतर्नाद को अपनी कविता के माध्यम से परोसा।
इन्होंने भी सुनायी कविता
लुधियाना से सीमा भाटिया ने जहां अपनी कविता को 'मां के दूध का कर्ज नहीं उतार पाऊंगी...' जैसे शब्दों से मां को समर्पित किया, वहीं दूसरी ओर भारत से ही रत्ना मानिक ने 'यादों के संदूक' शीर्षक कविता के अंतर्गत जीवन से जुड़े मधुर संस्मरणों को प्रस्तुत कर सबको अपने-अपने विगत जीवन से जोड़ने का प्रयास किया। संचालक के अनुरोध पर गृहस्वामिनी की संपादक अर्पणा संत सिंह ने भी अपनी कविता 'कठपुतली’ के माध्यम से स्त्री ह्रदय में जन्म लेने वाले उस असंतोष को शब्द देने की कोशिश की, जो उसके मानसिक और भावनात्मक शोषण का मौन प्रत्युत्तर होता है। अंत में संचालक तृप्ति मिश्रा ने मां पर अपना एक मुक्तक सुनाकर और मायके आई हुई बेटियों के मनोभावों को शब्दों में बांधकर एक मधुर गीत प्रस्तुत किया।