वासुदेवकोना में लड़ी गई थी आजादी की पहली लड़ाई

By Edited By: Publish:Wed, 04 Apr 2012 01:03 AM (IST) Updated:Wed, 04 Apr 2012 01:04 AM (IST)
वासुदेवकोना में लड़ी गई थी आजादी की पहली लड़ाई

रायडीह : राष्ट्रवाद के अवशेष और स्मृतियां बिखरी है रायडीह प्रखंड के वासुदेवकोना गांव में। यह एक ऐसा गांव है। जहां से स्वाधीनता संग्राम की प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी। शहीद बख्तर साय और शहीद मुंडल सिंह के नेतृत्व में लड़ी गई लड़ाई ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी सेना को मिली प्रथम चुनौती थी। अंग्रेजी सेना को अपनी जान बचाने के लिए जगह तलाशनी पड़ी थी। युद्ध के मैदान में पराजित अंग्रेजी सेना वापस लौट जाने को विवश हो गए थे। राजस्व संग्रह कर अंग्रेजी हुकूमत को देने से इंकार कर विद्रोह की चिंगारी भड़काने वाले दोनों वीर योद्धाओं के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे अंग्रेज। जान बचाने के लिए दोनों योद्धाओं को जंगल और पहाड़ की शरण लेनी पड़ी, अंत में जशपुर के महाराजा के चक्रजाल में फंस कर दोनों योद्धा अंग्रेजों के बंदी बने और दोनों को आजाद भारत में फांसी की सजा पाने वाले प्रथम अमर शहीद का गौरव प्राप्त हुआ। दोनों वीर योद्धाओं की शहादत दिवस पर बुधवार को रायडीह में समारोह का आयोजन किया जाएगा और उनके बताए मार्गो पर चलने का संकल्प भी लिया जाएगा। अमर शहीद बख्तर साय छोटानागपुर प्रमंडल के नवागढ़ रियासत के जागीरदार थे। वे प्रजा पालक और धर्म परायण व्यक्ति थे। अंग्रेजी हुकूमत ने छोटानागपुर के महराजा हृदय नाथ शाहदेव से संधि किया था और 12000 रुपए वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया था। जागीरदार एवं रैय्यत उस समय माल गुजारी देने में असमर्थ थे। नवागढ़ के जागीरदार के पास भी हृदय नाथ शाहदेव कर वसूलने के लिए गुमस्ता हीरा लाल को भेजा था, लेकिन जागीरदार बख्तर साय ने कर देना स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि रैय्यतों पर बोझ बढ़ाना उचित नहीं है। बख्तर साय ने उत्तेजित होकर गुमस्ता का सिर काट कर छोटानागपुर के महाराजा के पास भेजवा दिया था। महराजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी से शिकायत थी। फरवरी 1812 में रामगढ़ मजिस्टेट ने हजारीबाग की सैन टुकड़ी को लेफ्टिनेंट एच ओ डोनेल के नेतृत्व में नवागढ़ रवाना किया था। इसी बीच रामगढ़ बटालियन के कमांडेंट आर हिगाट ने खत लिखकर बरवे, जशपुर और सरगुजा के राजाओं से क्षेत्र की नाकाबंदी करने में सहायता करने की अपील की थी। अंग्रेजी सेना ने जागीरदार बख्तर साय के किला को घेर लिया था। इस बात की जानकारी पनारी रियासत के जागीरदार मुंडल सिंह को मिली। मुंडल सिंह बख्तर साय की सहायता के लिए नवागढ़ पहुंच गए। दोनों ने पहाड़ के ऊपर मोर्चा बना लिया और पत्थर के टुकड़ों को सिहार लताएं की रस्सी से बांध दिया। जब डोनेल ने रातू के महाराजा के सरदार मुंडराम को सैनिकों के साथ पकड़ने के लिए आदेश दिया, तब मुंडराम सैनिकों के साथ डालू पहाड़ी में चढ़ने लगे। बख्तर साय के सैनिकों ने पत्थर से बंधे रस्सी को काटना आरंभ कर दिया। जिससे सैनिक लुड़कने लगे। मुंडराम और उसके सैनिक पत्थरों से दबते चले गए और मरते गए। उससे खून की नदी बहने लगी। जहां खून की नदी बही थी, उस स्थल को रक्त बांध की संज्ञा दी गई। अंग्रेजों के शेष सैनिकों को बख्तर साय के नेतृत्व वाली सैनिक ने गोलियों से मार गिराया। बचे सैनिक डोनेल के नेतृत्व में वापस लौट गए। पराजित डोनेल ने रामगढ़ के बटालियन को छोटानागपुर के पहाड़ी इलाके के अनुरूप सैन व्यवस्था फिर से गठित करने का आदेश दिया। कैप्टन ई सफ सीज ने कमान अपने हाथ में ले लिया। आठ मार्च 1912 को कोलकाता से दानापुर कमांडिंग अफसर के पास सैनिक देने का आग्रह किया गया था। कैप्टन सीज सैनिकों को लेकर नवागढ़ पर अचानक धाबा बोल दिया। बख्तर साय और मुंडल सिंह अंग्रेजी सेना का लोहा लेते रहे। दोनों धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगे और अपने किला से निकल कर कडरु कोना गुफा में रहने लगे। अंग्रेजों ने कुटनीति का सहारा लेते हुए उस झरना में गाय को काट कर खून बहा दिया था, जिससे पानी का रंग लाल हो गया था। जशपुर के राजा ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया और दोनों वीर योद्धाओं को गिरफ्तार करवा दिया। 23 मार्च 1812 को यह गिरफ्तारी हुई और आनन फानन में चार अप्रैल 1812 को दोनों को कोलकाता के फोर्ट विलियम के किला में फांसी की सजा दी गई।

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