राज्यनामा जम्मू-कश्मीर

मतभेदों के चलते नहीं हो रहा फेरबदल राज्य प्रशासन में बीते कई दिनों से व्यापक फेरबदल की तैयारी चल र

By Edited By: Publish:Wed, 19 Oct 2016 01:01 AM (IST) Updated:Wed, 19 Oct 2016 01:01 AM (IST)
राज्यनामा जम्मू-कश्मीर

मतभेदों के चलते नहीं हो रहा फेरबदल

राज्य प्रशासन में बीते कई दिनों से व्यापक फेरबदल की तैयारी चल रही है। राज्य पुलिस संगठन में भी आइजी व डीआइजी रैंक के अधिकारियों की एडजस्टमेंट भी लंबित पड़ी हुई है। कई वरिष्ठ अधिकारी बीते कई दिनों से ऐसे पदों पर कार्य कर रहे हैं, जो उनके रैंक और प्रशासनिक प्रतिष्ठा व अनुभव के आधार पर उनके कनिष्ठ जनों को सौंपे चाहिए। इससे संबंधित अधिकारियों की कार्यक्षमता के प्रभावित होने के साथ-साथ प्रशासनिक तंत्र में भी कई तरह की दिक्कतें पैदा हो रही हैं। इन सभी का संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार ने नागरिक प्रशासन और पुलिस तंत्र में व्यापक फेरबदल की तैयारी कर ली। सूचियां भी तैयार हो गई और राज्य कैबिनेट की बैठक भी बुला ली गई। जीएडी ने भी सूची तेयार कर कैबिनेट में अंतिम मुहर के लिए भेज दी। लेकिन कैबिनेट बैठक हुई और जीएडी द्वारा तैयार की गई सूची ज्यों की त्यों ही वापस आ गई। इसके अलावा वादी में गत दिनों से जारी हिंसक प्रदर्शनों में लिप्त सरकारी कर्मियों को सेवामुक्त किए जाने का प्रस्ताव भी तैयार था। उस प्रस्ताव पर भी कोई फैसला नहीं हुआ। हालांकि, बैठक से पहले कहा जा रहा है कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त सरकारी अधिकारियों को इस बार ठिकाने लगाते हुए व्यापक प्रशासनिक फेरबदल होगा। लेकिन हुआ कुछ नहीं। छानबीन करने पर पता चला कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई पर सब सहमत थे, लेकिन प्रशासनिक फेरबदल में अपने चहेतों के लिए उचित पदों के मुद्दे पर बात नहीं बन रही थी। इस पर कई कैबिनेट मंत्रियों की आपस में बहस भी हुई और एक दूसरे के राजनीतिक हितों को नुकसान पहुंचाने व क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी खूब लगे। मामला तूल न पकड़े और सभी मतभेदों के बातचीत के जरिए सुलझाने के लिए प्रशासनिक फेरबदल को टालना ही मुख्यमंत्री ने बेहतर समझा। संबंधित अधिकारियों ने बताया कि मुख्यमंत्री नहीं चाहती कि राज्य के मौजूदा हालात में गठबंधन सरकार में किसी तरह की मनमुटाव की बात बढ़े क्योंकि इसका ग्राउंड सिचुएशन पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इसलिए उन्होंने फेरबदल के प्रस्ताव को स्थगित कर दिया। संबंधित अधिकारियों के मुताबिक, यह पहला मौका नहीं है जब कैबिनेट बैठक में पीडीपी-भाजपा के मंत्रियों के मतभेदों के चलते कोई फैसला टला हो। ऐसा लगभग हर बैठक में हुआ है।

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परेशान हैं मलिक और मीरवाइज

कश्मीर घाटी में सिलसिलेवार बंद के 100 दिन बीत चुके हैं। समाज का हर वर्ग इस बंद से परेशान है। राज्य सरकार चाहती है बंद का यह सिलसिला जल्द से जल्द समाप्त हो, विपक्ष भी कहता है किसी तरह से सामान्य स्थिति बहाल हो। लेकिन एक खेमा और भी है जो चाहता कि यह सब जल्द से जल्द बंद हो, ऐसा चाहने वाले उदारवादी हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेयरमैन मुहम्मद यासीन मलिक हैं। ये दोनों आम कश्मीरियों की परेशानियों को हल करने के लिए या उनकी जिंदगी बेहतर बनाने के लिए इस बंद के दौर से मुक्ति नहीं चाहते, बल्कि अलगाववाद की जमीन पर अपनी घटती जगह से परेशान हैं, क्योंकि बीते 100 दिनों के दौरान जिस से तरह से कट्टरवादी सईद अली शाह गिलानी ने खुद को कश्मीर का सबसे बड़ा अलगाववादी नेता, पाकिस्तान समर्थक साबित किया है, उससे ये परेशान हैं। मलिक और मीरवाइज ने सिलसिलेवार बंद का दौर शुरू होते ही कट्टरपंथी गिलानी को एक पत्र लिख कर कहा था कि उन्हें हिरासत में लिया जा सकता है। इसलिए गिलानी कश्मीर में भारत विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जो भी फैसला लेंगे, वह उन्हें व उनके समर्थकों को मंजूर होगा। उस प्रोग्राम को कामयाब बनाने में पूरा सहयोग किया जाएगा। गिलानी साहब ने इस खत का पूरा इस्तेमाल किया और इसके जरिए उन्होंने न सिर्फ कश्मरियों को बल्कि पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं को भी अच्छी तरह समझा दिया कि वही अकेले कश्मीर के निर्विवाद अलगाववादी नेता हैं। मीरवाइज और यासीन मलिक भी उन्हें ही अपना नेता मानते हैं। इससे गिलानी को कश्मीर की अलगाववाद की सियासत में हुए फायदे का अंदाजा लगाया जा सकता है। मीरवाइज मौलवी उमर फारूक और यासीन मलिक जो इस समय जेल में बंद हैं, की हालत काटो तो खून नहीं जैसी हो चुकी है। वह उस दिन को कोस रहे हैं, जिस दिन उन्होंने गिलानी को यह पत्र भेजा था। अब वह दुआ कर रहे हैं कि कश्मीर में उनके द्वारा शुरू किया गया सिलसिलेवार बंद का दौर जल्द खत्म हो ताकि वह बाहर आएं और जो थोड़ा बहुत जनाधार व साख बची है, उसे किसी तरह संभाला जाए।

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नहीं बदले डॉ. अब्दुल्ला

राज्य की सियासत में फिर से सक्रिय हो रहे डॉ. फारूक अब्दुल्ला अब पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक नजर आ रहे हैं। उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस की खिसकती सियासी जमीन को बचाने की जिम्मेदारी गत एक माह से संभाल रखी है। पहले पार्टी के भीतर नाराज कुछ लोगों को उन्होंने समझाया। इसके बाद उन्होंने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के खिलाफ मोर्चेबंदी शुरू कर दी। उन्होंने सभी गैर सत्ताधारी दलों की एक बैठक बुलाई और उसमें हालात का जायजा लेते हुए स्थिति सामान्य बनाने के लए अपने कई सुझाव भी रखे। इसके बाद वह जम्मू के सीमावर्ती इलाकों में पाकिस्तानी सेना की गोलाबारी से हुए नुकसान का जायजा लेने पहुंच गए। जम्मू में भी उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस के स्थानीय नेताओं के साथ-साथ कांग्रेस व कुछ अन्य दलों के नेताओं के साथ संपर्क साधा। लेकिन दोनों ही जगह उनकी बयानबाजी में जमीन आस्मां का अंतर नजर आया। कश्मीर में उन्होंने अलगाववादी नेताओं की रिहाई की वकालत की और उसी पाकिस्तान के साथ दोस्ती पर जोर दिया जिस पर वह कभी बम बरसाने पर जोर देते हुए कहते थे कि जब तक पाकिस्तान रहेगा, कश्मीर में बदअमनी रहेगी। पाकिस्तान की दोस्ती कश्मीरियों के लिए महंगी है। जम्मू में उन्होंने हुर्रियत का कोई जिक्र नहीं किया। वहां सिर्फ उन्होंने राष्ट्रवाद व सांप्रदायिक सद्भाव का जिक्र करते हुए पाकिस्तानी गोलीबारी की निंदा की। डॉ. अब्दुल्ला के इन तेवरों और बयानबाजी को उम्मीद के अनुरूप रियासत की सियासत में या फिर आम हल्कों में किसी ने ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। इससे नेशनल कांफ्रेंस के कुछ नेता हैरान थे और उन्होंने जब कारण तलाशते हुए लोगों से बात की तो जवाब मिला कि जनाब डॉ. अब्दुल्ला को कहिए कि अब वह अपनी सियासत का अंदाज बदलें। उनमें कहीं कोई बदलाव नहीं आया है। वह पहले भी कश्मीर में एक बात करते थे और जम्मू में दूसरी व दिल्ली में तीसरी। उम्मीद थी कि वह अब पूरी रियासत में एक ही बात सुनाएंगे, लेकिन कश्मीर में वह अलगाववादियों का पक्ष लेते हैं तो जम्मू में उनके खिलाफ नजर आते हैं। लोग अब उनकी सियासत को समझ चुके हैं।

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