विश्व दिव्यांग दिवसः आत्मबल की हिम्मत से कश्मीर के मीर और तेली भाई बन गए परिवार के लिए संबल
मार्केट के अनुरूप उन्हें डिजाइन का सुझाव मिला और मीर ब्रदर्स के हुनर को नया आयाम मिला। आज मीर ब्रदर्स के तैयार किए हुए कश्मीरी कढ़ाई वाले शॉल देश विदेश में भी पसंद किए जाते हैं।
जम्मू, अवधेश चौहान। शारीरिक बल की अपेक्षा आत्मबल में ज्यादा ताकत होती है, जो शारीरिक दुर्बलता के बावजूद विशिष्ट पहचान दिलाती है। चलने फिरने में अक्षम तीन भाई मीर ब्रदर्स आज दुनिया में मशहूर कश्मीरी सिलाई कढ़ाई में माहिर हैं। वहीं, आंखों में रोशनी न होने के बाद भी तेली ब्रदर्स ऊन से कंबल बनाते हैं।
कश्मीर के बडगाम जिले के नारबल कस्बे के छोटे से गांव गतापोरा में रहने वाले तीन सगे भाई दिव्यांग हैं। आज इन्हें देश विदेश में मीर ब्रदर्स के नाम से जाना जाता है। मीर ब्रदर्स का कहना है कि उन्हें अल्लाह ने शारीरिक बल नहीं दिया, लेकिन उन्हें किसी का मोहताज नहीं बनाया। बचपन से ही तारिक अहमद मीर, नजीर अहमद मीर व फारूक अहमद मीर मसकुलर डिस्ट्राफी नामक बीमारी से जूझ रहे हैं। बचपन से ही मसल्स कमजोर होना शुरू हो गए थे। तीन बेटों के दिव्यांग होने पर भी पिता मोहम्मद सुल्तान ने हिम्मत नहीं हारी। तारिक अहमद का कहना है कि कई चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए न सिर्फ उन्होंने शॉलों की कढ़ाई का काम सीखा बल्कि उनके बेहतरीन काम की वजह से आज उनका समाज में नाम है। वे दूसरों को भी यह हुनर सिखाकर स्वाबलंबी बना रहे हैं।
शॉल कढ़ाई का शौक विरासत में मिला
तारिक बताते हैं कि कढ़ाई का शौक उन्हें विरासत से मिला। पिता अपने समय में अच्छी कढ़ाई करते थे। कई वर्षों तक दूसरों के लिए काम किया। मेहनत का सारा फायदा बिचौलिए ले जाते थे, फिर सोचा क्यों न अपना काम किया जाए। वर्ष 2009 में छोटा सा स्पेशल हैंड्स फॉर कश्मीर नाम का ग्रुप बनाया फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज उनके ग्रुप में करीब 40 युवा कश्मीरी शॉल पर कढ़ाई कर रहे हैं।
जिंदगी में कई चुनौतियों का किया सामना
फारूक अहमद मीर 90 फीसद तक दिव्यांग हैं। उनका कहना है कि जिंदगी में उन्होंने कई चुनौतियों का सामना किया। उन्हें अफसोस है कि राज्य के हथकरघा विभाग से कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। विभाग श्रीनगर और उसके बाहर कई प्रदर्शनी लगाता है, लेकिन उनके ग्रुप को कभी न्योता नहीं मिला। वर्ष 2008 में नेशनल ट्रस्ट इनिशिएटिव मार्केङ्क्षटग के तत्वाधान में एसोसिएशन ऑफ रिहेबिलिटेशन जो सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के अधीन है, ने हथकरघा बुनकरों के लिए मार्केट उपलब्ध करवाई। इसमें दिव्यांगों को कश्मीरी हथकरघा हुनर को सामने रखने का मौका मिला, लेकिन वर्ष 2015 के बाद मंत्रालय ने प्रदर्शन के लिए फंङ्क्षडग बंद कर दी।
2017 में मीर ब्रदर्स को मिली नई पहचान
मीर ब्रदर्स के लिए दरवाजे बंद नहीं हुए। वर्ष 2017 में दिल्ली की चैरिटेबल ट्रस्ट जिसने कश्मीर के हथकरघा उद्योग को ही नहीं बल्कि मीर ब्रदर्स के हुनर को भी पहचाना। उन्होंने मीर ब्रदर्स को स्पेशल हैंड्स ऑफ कश्मीर फॉर देयर प्रोजेक्ट 2017-18 से पहचान दिलाई। मार्केट के अनुरूप उन्हें डिजाइन का सुझाव मिला और मीर ब्रदर्स के हुनर को नया आयाम मिला। आज मीर ब्रदर्स के तैयार किए हुए कश्मीरी कढ़ाई वाले शॉल देश विदेश में भी पसंद किए जाते हैं।
तेली ब्रदर्स के कंबलों की भी है मांग
श्रीनगर के हजरतबल से सटे चकबाग इलाके में रहने वाले तेली ब्रदर्स भी अपने हुनर का लोहा मनवाते हैं। वे बेशक अपने हुनर को निहार नहीं सकते, लेकिन उनकी उंगलियां उनके हुनर को बयां कर देती हैं। मोहम्मद हुसैन तेली और उनका छोटा भाई गुलाम नबी तेली बचपन से ही नेत्रहीन है। मोहम्मद हुसैन बताते हैं कि दिव्यांग होने के बाद उन्हें अपना मुस्तकबिल अंधेरे में लगा। परिवार में गुरबत होने पर भी हमने हिम्मत नहीं हारी।
दोनों भाइयों ने कंबलों की बुनाई का काम किया
दोनों भाइयों ने कश्मीरी कंबलों की बुनाई शुरू कर दी। उनके फैशनेबल कंबल आज कश्मीर में ही नहीं बल्कि देश विदेश के पर्यटकों की भी पहली पंसद हैं। तेली ब्रदर्स की कंबलों पर डिजाइङ्क्षनग और आकर्षण सबको भाता है। मोहम्मद हुसैन तेली का कहना है कि गुरबत के बावजूद हमने देहरादून नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर हैंडीकैप्ड में ट्रेनिंग ली जहां उन्हें मोमबत्ती बनाने, कुर्सियां बुनने व चाक बनाने की ट्रेङ्क्षनग मिली लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। फिर कश्मीर के हथकरघा हुनर को आगे बढ़ाने की सोची। अब दोनों भाई कंबलों के अलावा कुशन बनाने में भी युवाओं को स्वाबलंबी बना रहे हैं।