दैनिक जागरण ने सांसद सुरेश कश्‍यप को सौंपा ना‍गरिकों का मांग पत्र, ये मुद्दे किए उजागर

संसदीय क्षेत्र शिमला के सांसद सुरेश कश्यप को ऑकलैंड स्कूल के सभागार में दैनिक जागरण की ओर से नागरिक मांगपत्र सौंपा गया।

By Rajesh SharmaEdited By: Publish:Tue, 05 Nov 2019 02:39 PM (IST) Updated:Tue, 05 Nov 2019 03:43 PM (IST)
दैनिक जागरण ने सांसद सुरेश कश्‍यप को सौंपा ना‍गरिकों का मांग पत्र, ये मुद्दे किए उजागर
दैनिक जागरण ने सांसद सुरेश कश्‍यप को सौंपा ना‍गरिकों का मांग पत्र, ये मुद्दे किए उजागर

शिमला, जेएनएन। संसदीय क्षेत्र शिमला के सांसद सुरेश कश्यप को ऑकलैंड स्कूल के सभागार में दैनिक जागरण की ओर से नागरिक मांगपत्र सौंपा गया। लोकसभा चुनाव के दौरान दैनिक जागरण ने शिमला संसदीय क्षेत्र की मुख्य समस्याओं और लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों को प्रमुखता से उजागर किया था। इस कार्यक्रम में शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज, सामाजिक न्‍याय एवं अधिकारिता मंत्री राजीव सैजल समेत नगर निगम महापौर कुसुम सदरेट भी मौजूद थीं। नागरिक मांगपत्र सौंपे जाने के कार्यक्रम में दैनिक जागरण के मुख्य महाप्रबंधक मोहिंद्र कुमार, राज्य संपादक नवनीत शर्मा, महाप्रबंधक रणदीप सिंह, पूर्व आइएएस अधिकारी सुनील चौधरी, डॉ. अरुण शर्मा, डॉ. केआर भारती, शिमला जिला प्रशासन के आला अधिकारियों के साथ कई प्रतिष्ठित लोग उपस्थित रहे।

शिमला संसदीय क्षेत्र का घोषणा पत्र के राष्ट्रीय मुद्दे

(क) प्रदेश के सेब पर विदेश का संकट

समस्या/अपेक्षा

हिमाचल की पहचान सेब राज्य के तौर पर होती है मगर विदेशी सेब ने यहां के सेब को चुनौती खड़ी कर दी है। गुणवत्ता के आधार पर देखा जाए तो प्रदेश में उत्पादित होने वाला सेब विदेशी सेब के आगे टिक नहीं पाता है। चार हजार करोड़ रुपये की सेब आर्थिकी प्रदेश के छह जिलों से जुड़ी है। पचास प्रतिशत से अधिक का सेब उत्पादन जिला शिमला में होता है। सेब अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए जरूरी है कि विदेशी सेब की आमद को देश में आने से रोका जाए। एक दशक से बागवान व्यक्तिगत प्रयास करके विदेशी रूट स्टाक लाकर नई सेब प्रजातियां लगा रहे हैं। सेब को नुकसान से बचाने के लिए एंटीहेल गन सरकारी स्तर पर नहीं लगाई जा रही है।

क्या है कारण

वर्ष 1999 में विश्व व्यापार संगठन के मुक्त व्यापार लागू करने के बाद 2001 में विदेशी सेब पर आयात शुल्क 45.6 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत हुआ था। दूसरा बड़ा कारण सेब बहुल क्षेत्रों में पुराने पौधे ही अधिक हैं जबकि आधुनिक समय में टिश्यु कल्चर से कम जगह में छोटे पौधे से अधिक सेब पैदा हो रहा है। विदेशी सेब की आमद के कारण यहां के सेब की मांग कम हो गई है। स्थानीय स्तर पर अच्छा बाजार न मिलने के कारण अन्य राज्यों की मंडियों में सेब का पहुंचाना भी काफी महंगा होता है।

क्या है निदान

हिमाचल प्रदेश में सेब को विशेष फल का दर्जा दिलाकर विदेशी सेब से मिल रही चुनौती से बचाना बड़ा मुद्दा है। किसान-बागवान विदेशी सेब पर शत-प्रतिशत आयात शुल्क चाहते हैं। इसके अलावा कम पैदावार देने वाले सेब के पुराने बगीचों की जगह अधिक फल देने वाली किस्मों को लगाने के लिए सरकारी स्तर पर पौध उपलब्ध करवाई जाए। सेब को मौसम से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए बड़े पैमाने पर एंटीहेल गन स्थापित करनी होगी।

(ख) पांच दशक से जनजातीय दर्जे का इंतजार

समस्या/अपेक्षा

सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र के तीन लाख लोगों के पास इंतजार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। पांच दशक बाद भी गिरिपार के 42 हजार परिवार जनजातीय दर्जा प्राप्त करने की राह देख रहे हैं। पहली बार गिरिपार को जनजातीय घोषित करने की सिफारिश 1979 में उठी थी। प्रदेश विधानसभा में कई बार हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने से जुड़ा प्रस्ताव पारित होता रहा है। चुनकर आने वाले प्रत्येक सांसद वादा करता है कि इस मसले का समाधान निकालेगा। हर बार की तरह इस बार भी हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा दिलाना दोनों प्रमुख दलों की ओर से मुख्य वादा है।

क्या है कारण

पड़ोसी उत्तराखंड का जोंसार बावर क्षेत्र वर्ष 1967 में एसटी घोषित हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार केंद्र सरकार ने लोकुर कमेटी गठित की थी। कमेटी की रिपोर्ट हाटी समुदाय के पक्ष में थी लेकिन केंद्र सरकार ने कुछ आपत्तियां लगाकर राज्यपाल की सिफारिश जोडऩे और हर पंचायत की विस्तृत भौगोलिक रिपोर्ट लगाने को कहा था। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने सवाल खड़ा कर दिया है कि हाटी समुदाय में एकल परिवार नहीं हैं। एकल परिवार तो प्रदेश के जनजातीय किन्नौर व लाहुल स्पीति जिलों में भी नहीं है।

क्या है निदान

जब जनजातीय दर्जा रखने वाले किन्नौर व लाहुल-स्पीति जिलों में भी बहुपति प्रथा है तो इस तर्क के सहारे गिरिपार को वंचित नहीं रखा जा सकता है। गिरिपार के परिवारों में भी बहुपति की व्यवस्था है। इसलिए इस मामले को फिर से संसद में उठाने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सरकार ने गठित लोकुर कमेटी ने मानक स्थापित किए हैं, अब केवल उन मानकों के तहत क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

(ग) औद्योगिक क्षेत्रों में रेल नेटवर्क जरूरी

समस्या/अपेक्षा

पड़ोसी चीन कब्जे वाले तिब्बत में रेल नेटवर्क विकसित कर चुका है। सामरिक दृष्टि से देश के सीमावर्ती किन्नौर तक रेल नेटवर्क स्थापित करने की मांग होती रही है। यहां पर सड़क नेटवर्क भी अपेक्षाकृत बेहतर नहीं है। प्रदेश के अंतिम छोर पर स्थित किन्नौर तक सेना व हथियार पहुंचाना सरल नहीं है। किन्नौर तक रेललाइन बिछाने की मांग तीन दशक से उठती रही है। इसी तरह प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र परवाणू से लेकर बद्दी-बरोटीवाला तक रेललाइन बिछाने का का वादा पूरा नहीं हुआ है। बद्दी तक रेललाइन बिछाने का प्रस्ताव सैद्धांतिक मंजूरी से आगे नहीं बढ़ पाया। रेललाइन के विस्तार से यहां के उद्योगों को काफी सुविधा होगी। इससे और उद्योग भी आने को तैयार होंगे।

क्या है कारण

परवाणू से बद्दी-बरोटीवाला तक रेललाइन बिछाने का वादा सर्वे तक ही सीमित रहा है। पहली बार 1962 में पांवटा औद्योगिक क्षेत्र को जोडऩे के लिए सर्वे हुआ था। पांवटा को यमुनानगर, जगाधरी, सहारनपुर व चंडीगढ़ से जोडऩे की संभावनाएं तलाशी गई। केंद्र के समक्ष प्रमुखता से मुद्दा न उठाए जाने के कारण इस पर गंभीरता से प्रयास नहीं हो पाए हैं। वित्तीय व्यवस्था न होने के कारण रेल मंत्रालय रेललाइन बिछाने से पीछे हटता रहा है।

क्या है निदान

कोंकण रेल निगम की तर्ज पर प्रदेश सरकार रेल निगम बनाकर रेललाइन का विस्तार कर सकती है। ऐसा करने से केंद्र सरकार भी मदद करेगी। समूची औद्योगिक पट्टी में रेललाइन स्थापित होने से उद्योगों का पलायन रुकेगा और उद्योगों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। कालका से परवाणू तक बड़ी रेललाइन आने से खर्च भी कम पड़ेगा और राज्य को इसका बड़ा फायदा मिलेगा।

(2) राज्यस्तरीय मुद्दे

(क) 35 हजार अनियमित भवनों का मसला

समस्या/अपेक्षा

शिमला अनियोजित भवन निर्माण की कहानी बयां कर रहा है। मकान अथवा घर को सपनों का आशियाना माना जाता है लेकिन प्रदेश की राजधानी शिमला में इस आशियाने को कानूनी बंदिशों ने जकड़ रखा है। जीवनभर की जमा पूंजी और हाड़ तोड़ मेहनत की कमाई भवनों के निर्माण में लगाई तब नहीं सोचा होगा कि कल कानूनी पेचदगियां भी आड़े आएंगी। न सरकार ने निर्माण रोका न ही टीसीपी ने और न ही प्रशासन ने। बाद में नए-नए कानून थोप दिए। प्रदेशभर में करीब 35 हजार ऐसे मकान हैं, जिन पर अनाधिकृत होने का ठप्पा चस्पां किया गया है। शिमला में ही इनकी तादाद 15 हजार के आसपास है। ये मकान सरकारी भूमि पर नहीं मलकीयत पर बने हैं। बावजूद इसके ये लंबे अरसे से नियमित होने के तरस रहे हैं।

क्या है कारण

कोर्ट ने ऐसे मकानों को तोडऩे के निर्देश दे रखे हैं, पर सरकारी तंत्र और सरकार न तो इन्हें तोडऩे का साहस दिखा पा रहे हैं और न ही इनके भवन मालिकों को राहत दे पा रहे हैं। भवन निर्माण से जुड़े मसलों पर ऐसी बहस की न तो सत्ता पक्ष ने शुरुआत की और न ही विपक्ष ने संजीदगी दिखाई। शहर का दायरा लगातार बढ़ता ही गया। आठ किलोमीटर से 36 किमी तक हो गया। हजारों मकानों को बिजली और पानी के मौलिक अधिकार भी नहीं मिल पाए हैं।

क्या है निदान

अनियमित भवनों की समस्या से छुटकारा पाने के लिए वन टाइम सेटलमेंट स्कीम की जरूरत है। भवन निर्माण के समय न तो सरकार ने रोका और न ही संबंधित अथारिटी ने। अब भवन मालिक चाहते हैं कि सरकार एनजीटी की ओर से पैदा की जा रही समस्या का भी हल निकले। केंद्र सरकार से भी इस मुद्दे को सुलझाने के प्रयास भी किए जाने जरूरी हैं।

(ख) एडवांस सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट चाहिए

समस्या/अपेक्षा

अंग्रेजों का बसाया शिमला शहर 25 हजार आबादी के लिए था। तब हर घर में सीवेज की सुविधा थी। 1880 में बनाया सीवेज सिस्टम आज ढाई लाख की आबादी का सीवेज ढो रहा है। शहर के कई क्षेत्र हैं जहां पर सीवरेज लाइन नहीं बिछ पाई है। इसका खामियाजा लोगों को बीमारियों के रूप में भुगतना पड़ता है। शहर की सफाई, पेयजल और बिजली व्यवस्था की सारी योजनाएं 131 वर्ष से बनती आ रही हैं। वर्तमान में शिमला में पांच सीवेज डिस्पोजल साइट्स हैं। लालपानी, कुसुम्पटी, नार्थ डिस्पोजल, स्नोडन और समरहिल में मौजूद इनकी लंबाई 49,564 मीटर है।

क्या है कारण

बजट का अभाव और सही व्यवस्था न होने के कारण ट्रीटमेंट प्लांटों पर पहुंचने वाले सीवेज को कोई भी ट्रीटमेंट नहीं दिया जा रहा है, जो यहां प्रदूषण का मुख्य कारण बन रहा है। डिस्पोजल साइट और इसके डाउन स्ट्रीम में रहने वाले लोगों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। कई जगह पर सीवेज टैंक क्षतिग्रस्त हैं। बरसात में स्थिति भयावह हो जाती है, जब सीवेज का पानी पेयजल में मिल जाता है। इससे पीलिया के मामले बढ़ते हैं। नगर निगम छह वार्डों से बढ़कर 34 वार्डों का निगम बन चुका है।

क्या है निदान

हर घर को सीवेज सुविधा से जोडऩा होगा। हर मकान मालिक से स्वयं निगम प्रशासन को सीवेज लाइन बिछाने के लिए राजी करवाना होगा। कोई भी भवन मालिक अदालत में न पहुंचे, इसके बारे में सहमति बनानी पड़ेगी। शहर में स्थापित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों की अपग्रेडेशन तुरंत की जाए। नए ट्रीटमेंट स्थापित करने की जरूरत है। सीवेज टैंकों को मेन लाइन से जोडऩा होगा। रसोई से निकलने वाली गंदगी का सही निस्तारण हो।

(ग) जी का जंजाल बना है यातायात जाम

समस्या/अपेक्षा

राज्य मुख्यालय शिमला में रोजाना औसतन एक से सवा घंटे तक ट्रैफिक जाम लगता है। डेढ़ दशक से ट्रैफिक जाम की समस्या नियमित हो चुकी है। शहर के स्कूलों में बच्चों, कर्मचारियों व महिलाओं को हर दिन सुबह-शाम बसों में बैठकर परेशान रहना पड़ता है। रोजाना 25 हजार से अधिक वाहन आते-जाते हैं। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहां पर मोनो रेल व रोपवे बनाकर इस समस्या से निजात मिल सकती है लेकिन इसमें भारी भरकम बजट की जरूरत होगी। जनप्रतिनिधि व सरकार भी यहां पर इस समस्या से निपटने की संभावना तलाशने के आश्वासन तो देती है लेकिन कोई भी योजना अभी तक सिरे नहीं चढ़ पाई है।

क्या है कारण

वाहनों के संख्या के अनुरूप यहां पर सड़क विस्तार नहीं हो पाया है। पार्किंग स्थल भी वाहनों की संख्या के हिसाब से नाकाफी हैं। शहर में फ्लाई ओवर भी नहीं बन पाए हैं। कई जगह सुरंगें भी बनाई जा सकती हैं लेकिन इसमें भी बजट का प्रावधान न होना आड़े आ जाता है। शिमला में आधुनिक परिवहन प्रणाली लागू हो सकी। पूर्व सरकार के कार्यकाल में भी मोनो रेल का प्रोजेक्ट चर्चा में था लेकिन फाइल फिर ठंडे बस्ते में चली गई थी।

क्या है निदान

शहर मेंं पांच स्थानों टूटीकंडी बाईपास, रेलवे स्टेशन, पुराने बस अड्डा, टॉलैंड, छोटा शिमला, संजौली, लक्कड़ बाजार, ताराहॉल में फ्लाई ओवर का निर्माण हो। शहर के इन स्थानों पर वाहनों के गुजरने की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए विश्व बैंक कर्ज देने को तैयार है लेकिन सरकार की ओर से विस्तृत योजना तैयार कर केंद्र को भेजने की जरूरत है। इसके साथ-साथ मोनो रेल, रोपवे बनाने का निर्णय क्रियान्वित करने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त शहर में फुट ओवरब्रिज बनाए जाने चाहिए।

(3) स्थानीय मुद्दे

(क) किसानों के कंधों पर टमाटर व अदरक

समस्या/अपेक्षा

टमाटर और अदरक उत्पादन के लिए एशिया में पहचान रखने वाला जिला सिरमौर और सोलन उपेक्षा का शिकार है। खेतों से निकलने के बाद टमाटर तुरंत बाजार में पहुंचना चाहिए तभी उचित दाम मिल सकता है। सिरमौर जिला एक समय टमाटर उत्पादन में नंबर वन होता था। अब सोलन जिला के किसान टमाटर उत्पादन में आगे निकल गए हैं। तीन दशक से टमाटर उत्पादन से जुड़े दोनों जिलों में फूड प्रोसेसिंग सेंटर लगाने की मांग उठती रही है। अदरक के लिए प्रदेश में स्थापित एकमात्र शोध संस्थान धौलाकुआं में बंद हो चुका है। इस संंसदीय क्षेत्र में फूड प्रोसेसिंग सेंटर खोलने के आश्वासन को दिए जाते हैं लेकिन कोई भी गंभीरता से प्रयास नहीं करता है। सोलन सब्जी मंडी में भी सुधार नहीं हो सका।

क्या है कारण

सीजन के दौरान सराहां, राजगढ़ व श्रीरेणुका जी क्षेत्रों के अलावा सोलन जिला के धर्मपुर, कंडाघाट व स्थानीय सोलन में टमाटर की बड़े पैमाने पर पैदावार होती है। राज्य के दोनों विश्वविद्यालय वानिकी एवं बागवानी और कृषि विश्वविद्यालय धौलाकुंआ पर ही निर्भर थे। सिरमौर जिला के अदरक शोध केंद्र में कृषि विज्ञानी उपलब्ध नहीं होना बड़ा कारण रहा। इसी तरह से हरलोह में अदरक फार्म में बीज तैयार होता था मगर इस फार्म में अब चौकीदार रह गया है। इस फार्म में तैयार होने वाला अदरक बीज देश के 16-17 राज्यों को पहुंचता था।

क्या है निदान

संसदीय क्षेत्र के किसानों के लिए फूड प्रोसेसिंग सेंटर खुलने चाहिए। टमाटर को सडऩे से रोकने के लिए कृषि विज्ञानियों की जरूरत है। सिरमौर के उच्च गुणवत्ता वाले अदरक को पुन: स्थापित करने के लिए धौलाकुआं शोध केंद्र को खोला जाना चाहिए। हरलोह अदरक फार्म को चलाने के लिए भी व्यवस्था कतरनी होगी। फूड प्रोसेसिंग सेंटर शुरू करने के लिए केंद्र के समक्ष दृढ़ता से मुद्दा उठाना होगा। इसके अलावा निजी क्षेत्र से भी फूड प्रोसेसिंग सेंटर की स्थापना के प्रयास करने होंगे।

(ख) जंगली व बेसहारा पशु बड़ी समस्या

समस्या/अपेक्षा

जंगली जानवरों व बेसहारा पशु की समस्या गंभीर है। इनकी वजह से किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है। सरकार की ओर से इस संबंध में कोई ठोस पहल नहीं की है। प्रदेश में दो दशक से खेती योग्य भूमि कम होती जा रही है। इसकी एक वजह यह भी है कि किसानों को खेतों में डाले जाने वाले बीज का भी मूल्य नहीं मिलना है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हिमाचल में खेती में 30 प्रतिशत की कमी हुई है। जंगली जानवरों व बेसहारा पशुओं के आतंक से सात लाख से अधिक किसान परिवार प्रभावित हैं। इनकी वजह से हर साल पांच सौ करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होता है।

क्या है कारण

जंगलों के कटान के कारण अब जंगली जानवरों ने बस्तियों का रुख कर लिया है। यही कारण है कि अब लोगों पर जंगली जानवरों के हमले बढ़ गए हैं। प्रदेश के 10 जिलों की 91 तहसीलों में बंदरों का आतंक है। बंदरों को मारने के लिए सरकार ने वन विभाग की ओर से कोई कदम नहीं उठाया है। इसके अलावा लोग पशुओं को बेसहारा छोड़ रहे हैं। बेसहारा पशु और बंद खेतों में फसलों को नुकसान करते थे, इस कारण किसानों ने खेती करना ही छोड़ दिया है।

क्या है निदान

जंगली जानवरों से फसलों को नुकसान रोकने के लिए वन विभाग को नीति निर्धारण करना होगा। फसल बर्बाद करने वाले जंगली जानवरों को मारा जाना चाहिए। सड़क पर घूमने वाले बेसहारा पशुओं को गौ सदनों में रखने से भी इस समस्या से हल मिल सकता है। प्रदेश में अधिक से अधिक गोसदन खोले जाने चाहिए। इसके लिए केंद्र व राज्य सरकारों को बजट का प्रावधान करना होगा। इसके अलावा हर घर में एक गाय या दुधारू पशु बांधने के लिए लोगों को प्रेरित करना उचित रहेगा। बंदर मारने के लिए पंचायत स्तर पर प्रशिक्षित टास्क फोर्स को जिम्मा देने के साथ स्थानीय निकायों, पंचायतों, ग्रामीण विकास और पंचायतीराज विभाग के साथ कृषि व बागवानी विभाग की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।

(ग) फाइलों से बाहर नहीं निकले ट्रॉमा सेंटर

समस्या/अपेक्षा

तीनों जिलों शिमला, सिरमौर व सोलन के जोनल अस्पताल रैफरल बनकर रह गए हैं। चाहे नाहन का अस्पताल हो या फिर सोलन का। यहां तक की शिमला का दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल। इन जिलों के मरीजों को अधिकांश बीमारियों के इलाज के लिए पीजीआइ चंडीगढ़ जाना पड़ता है या फिर देहरादून। राज्यस्तरीय इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज अस्पताल पर आसपास के जिलों के साथ-साथ प्रदेश के दूसरे जिलों का भी दबाव रहता है। दो दशक से सड़क दुर्घटनाओं में अधिकाधिक मौतें हो रही हैं। अभी तक राज्यस्तर पर ट्रॉमा सेंटर नहीं बन पाया है। पहले सरकार ने निजी क्षेत्र में चल रहे इंडस अस्पताल में ट्रॉमा सेंटर स्थापित करने की घोषणा की थी मगर कुछ समय बाद निजी अस्पताल पलट गया। उसके बाद ट्रॉमा सेंटर के लिए आइजीएमसी अस्पताल की निर्माणाधीन इमारत की तीसरी मंजिल में ट्रॉमा सेंटर प्रस्तावित किया गया है। लेकिन तीन साल से अधिक समय हो चुका है, राज्यस्तरीय ट्रॉमा सेंटर धरातल पर नहीं उतर पाया है।

क्या है कारण

शिमला-कालका हाईवे पर एक ट्रॉमा सेंटर और पहले पावंटा साहिब में खुलना था मगर नाहन में मेडिकल कॉलेज खुलने के बाद ट्रॉमा सेंटर से जुड़ी फाइल दिल्ली स्वास्थ्य मंत्रालय में पड़ी है। सात साल पहले केंद्र सरकार ने प्रदेश में ट्रॉमा सेंटर स्थापित करने के लिए बजट प्रदान किया था। सरकार के पास ट्रामा सेंटरों का पैसा पड़ा हुआ है, कहीं पर जमीन नहीं है तो, कहीं पर औपचारिकताएं पूरी नहीं है।

क्या है निदान

प्रदेश सरकार को ट्रॉमा सेंटर बनाने के लिए जमीन का प्रबंध करना होगा। केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश के लिए चार मेडिकल कॉलेज घोषित किए। जिनमें से दो मेडिकल कॉलेज शुरू हो चुके हैं। एमसीआइ के प्रावधान हैं कि प्रत्येक मेडिकल कॉलेज में ट्रॉमा सेंटर बनाना होगा। ऐसे में प्रत्येक मेडिकल कॉलेज में ट्रॉमा सेंटर बनाने की औपचारिक स्वीकृति है। केंद्र से भी ट्रामा सेंटर के लिए और बजट का प्रावधान करवाना होगा।

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