इतने कान गढ़े कि त्रिगर्त कांगड़ा हो गया, जानिए किस तरह पड़ा प्रदेश के सबसे बड़े जिला का नाम

Trigarta Became Kangra किसी राजा से दंड पाकर कोई आदमी मीलों चल कर त्रिगर्त पहुंचा है। यहां के वैद्यों के बारे में बहुत सुना है उसने। किसी अपराध के दंडस्वरूप उसका कान काट दिया था। उसे वह जुड़वाना है।

By Rajesh SharmaEdited By: Publish:Sat, 05 Dec 2020 10:25 AM (IST) Updated:Sat, 05 Dec 2020 10:25 AM (IST)
इतने कान गढ़े कि त्रिगर्त कांगड़ा हो गया, जानिए किस तरह पड़ा प्रदेश के सबसे बड़े जिला का नाम
किसी राजा से दंड पाकर कोई आदमी मीलों चल कर त्रिगर्त पहुंचा है।

धर्मशाला, नवनीत शर्मा। किसी राजा से दंड पाकर कोई आदमी मीलों चल कर त्रिगर्त पहुंचा है। यहां के वैद्यों के बारे में बहुत सुना है उसने। किसी अपराध के दंडस्वरूप उसका कान काट दिया था। उसे वह जुड़वाना है। त्रिगर्त पहुंच कर उसे पता चला कि कई लोग हैं जो नाक अथवा कान जुड़वाने आए हैं। कुछ सैनिक हैं...कुछ अपराधी...कुछ के अंग दुर्घटना में भंग और विकृत हुए हैं...। धीरे-धीरे इतने कान गड़े गए कि त्रिगर्त इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया और कान गढ़ा वाला कांगड़ा, अब तक कांगड़ा है। कांगड़ा अब कान तो नहीं, हिमाचल प्रदेश की सरकार अवश्य गढ़ता है। जब यह बात कई स्थानीय लोग नहीं जानते तो इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कैसे जानती... जो यह कहती है कि आयुर्वेदज्ञों से शल्य चिकित्सा या सर्जरी करवाना आधुनिक विज्ञान तंत्र का मजाक है।

कांगड़ा में कान गढ़े जाने का क्रम यानी प्लास्टिक सर्जरी जारी रहती तो प्रमाण की आवश्यकता न होती। लेकिन शल्य चिकित्सा यहां राजकीय मेडिकल कॉलेज टांडा में होती है...1932 में अंतिम प्लास्टिक सर्जरी करने वाले वैद्य दीनानाथ के पुत्र एके कंगैडिय़ा अब सिविल अस्पताल के साथ ही आधुनिक चश्मे बनाते और बेचते हैं। असली नाम है अशविंदर कुमार कंगैडिय़ा। घर पुराना कांगड़ा में है। पुराना कांगड़ा...जहां किसी समय और भी परिवार रहते थे कान और नाक जोडऩे वाले।

कैसे जोड़ते थे....? बस अधिक कुछ नहीं, मरीज का ध्यान बंटाने के लिए अफीम, भांग या शराब दे देते थे। माथे से या जांघ से कुछ मांस निकालते थे और नाक या कान जोड़ दिया जाता था। ब्रिटिश पुरातत्ववेता सर अलेग्जेंडर कनिंघम ने अपनी पुस्तक में लिखा है ऐसा। उनके अनुसार, रोम साम्राज्य में प्लास्टिक सर्जरी शुरू होने से सात सौ साल पहले कांगड़ा में कान गढ़े जाते थे। मराठी होने के बावजूद विज्ञान को हिंदी और अंग्रेजी के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने वाले लेखक गुणाकर मुले भी अपने शोधपत्रों में कांगड़ा का जिक्र कर चुके हैं।

एके कंगैडिय़ा इल्तुतमिश और शाहजहां के समय के प्रमाणपत्रों की बात करते हैं। रुकिए...! लेकिन इल्तुतमिश यानी दिल्ली सल्तनत का संस्थापक तो 1210 के आसपास दिल्ली का सम्राट बना। इधर मुगलिया वंशज जहांगीर के समय की प्रशस्ति का भी दावा करते हैं वह। क्या दोनों कालखंडों में बेहद अंतर नहीं है? अशविंदर कंगैडिय़ा कहते हैं कि अंतर है तो इसका अर्थ यही है कि कांगड़ा के वैद्यों की परंपरा भी उतनी ही लंबी है। कंगैडिय़ा के पास कई प्रमाणपत्र हैं। एक शाहजहां का भी है।

सर अलेग्जेंडर कनिंघम ने अपने दस्तावेजों में सर्जरी की इस विशेषता को कुम्हार जाति के लोगों के साथ जोड़ा है। लेकिन अशविंदर इससे इन्कार करते हैं। कान गढऩे वाले वैद्यों को प्रशस्ति किस काल में मिली, इससे बड़ा तथ्य यह है कि वह प्लास्टिक सर्जरी कर लेते थे। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के लिए इतना ही तथ्य पर्याप्त है।

... कुछ भी हो...आयुर्वेद से गहरा नाता रहा होगा न? जी यकीनन! हिमालयन योग एवं प्राकृतिक उपचार संस्थान कायाकल्प के प्रशासक डॉ. आशुतोष गुलेरी तो यहां तक कहने को तैयार हैं कि जिस हिप्पोक्रेट के नाम पर शपथ लेकर आधुनिक चिकित्सक अपना काम शुरू करते हैं, वही हिप्पोक्रेट स्वयं आयुर्वेद से प्रभावित रहा हो सकता है। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि सुश्रुत के लगभग 540 साल पहले सुश्रुत हुए हैं और धनवंतरि सुश्रुत से भी करीब एक हजार साल पहले हुए हैं।

आयुर्वेद मूलत: तीन दोष-वात पित्त और कफ मानता है जबकि धनवंतरि स्कूल (आयुर्वेदज्ञों का वह संप्रदाय जो शल्य चिकित्सा के लिए जाना जाता है) ने चार दोषों- वात, पित्त, कफ और रक्त की बात की। रक्त से आशय शल्य चिकित्सा अथवा सर्जरी से है। हिप्पोक्रेट ने भी इन्हीं चार दोषों की बात की है। आयुर्वेद शल्य चिकित्सा में अब भी कितना आगे है, इसके पक्ष में वह भगंदर या फिस्टुला के उपचार का उदाहरण देते हैं। आज भी क्षारसूत्र यानी धागे के साथ मस्से काटना आधुनिक सर्जरी से बेहतर उपाय है। आयुर्वेद को नुक्सान पहुंचा तो बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के दौरान। सम्राट अशोक जब कलिंग के युद्ध के बाद बौद्ध धर्म के अनुगामी हो गए तो शल्य चिकित्सा को हिंसा मान लिया गया।

लेकिन कांगड़ा में ऐसे क्या कारण थे कि कान गढ़े जाने बंद हो गए, कोई ठोस कारण नहीं मिलता। बस... बड़ा कारण यही कि बुजुर्गों को जो पता था, वह उन्हीं तक रहा। और इधर, आयुर्वेद जानने वालों ने भी अपनी राह भूल एलोपैथिक दवाएं देना शुरू कर दिया।

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