खुद को साधारण बौद्ध भिक्षु मानते हैं दलाईलामा

जागरण संवाददाता धर्मशाला खुद को साधारण बौद्ध भिक्षु मानने वाले धर्मगुरु दलाईलामा विश्व में तिब्

By JagranEdited By: Publish:Sun, 05 Jul 2020 07:50 PM (IST) Updated:Mon, 06 Jul 2020 06:13 AM (IST)
खुद को साधारण बौद्ध भिक्षु मानते हैं दलाईलामा
खुद को साधारण बौद्ध भिक्षु मानते हैं दलाईलामा

जागरण संवाददाता, धर्मशाला : खुद को साधारण बौद्ध भिक्षु मानने वाले धर्मगुरु दलाईलामा विश्व में तिब्बत के प्रतीक हैं। तिब्बत की आजादी के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने पर इन्हें वर्ष 1989 का नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया है। धर्मगुरु ने लगातार अहिंसा की नीति का समर्थन जारी रखा है। शांति, अहिसा और हर सचेतन प्राणी की खुशी के लिए काम करना दलाईलामा के जीवन का सिद्धांत है। प्यार, करुणा और क्षमाशीलता विश्वभर के लोगों के लिए उनका संदेश हमेशा रहा है।

14वें दलाईलामा तेनजिन ग्यात्सो तिब्बतियों के धर्मगुरु हैं। इनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले ओमान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामो धोंडुप की पहचान 13वें दलाईलामा थुप्टेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में की गई। दलाईलामा एक मंगोलियाई पदवी है, जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर। दलाईलामा के वंशज करुणा, अवलोकेतेश्वर बुद्ध के गुणों के साक्षात रूप माने जाते हैं। दुनिया के सबसे सम्मानित आध्यात्मिक नेता 6 जुलाई को 85 वर्ष के हो रहे हैं। दलाईलामा तेनजिन ग्यात्सो का 85वां जन्मदिन मनाने के लिए पूरा वर्ष कृतज्ञता के रूप में मनाया जाएगा। केंद्रीय तिब्बत प्रशासन भी उनका जन्मदिन मनाएगा। जुलाई से लेकर 30 जून, 2021 तक विश्वभर में वर्चुअल कार्यक्रम भी होंगे।

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धर्मगुरु का संदेश

वर्तमान में चुनौती का सामना करने के लिए मनुष्य को सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की व्यापक भावना का विकास करना चाहिए। हम सबको यह सीखने की जरूरत है कि हम न केवल अपने लिए कार्य करें बल्कि मानवता की भलाई के लिए काम करें। मानव अस्तित्व की वास्तविक कुंजी सार्वभौमिक उत्तरदायित्व ही है। यह विश्व शांति, प्राकृतिक संसाधनों के समवितरण और भविष्य की पीढ़ी के हितों के लिए पर्यावरण की देखभाल का सबसे अच्छा आधार है।

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1959 में तिब्बत छोड़कर भारत आए थे दलाईलामा

तिब्बत पर चीन के आक्रमण के बाद 17 मार्च, 1959 को दलाईलामा को कई अनुयायियों के साथ देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। उस समय उनकी आयु 24 वर्ष की थी। दलाईलामा बेहद जोखिम भरे रास्तों को पार कर भारत पहुंचे थे। कुछ दिन उन्हें देहरादून में ठहराया गया था। उसके बाद धर्मशाला के मैक्लोडगंज में रहने की सुविधा दी गई है। यहां उनका पैलेस व बौद्ध मंदिर है।

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दलाईलामा का 85वां जन्मदिन केंद्रीय निर्वासित तिब्बती प्रशासन की ओर से मनाया जाएगा। बड़े स्तर पर कार्यक्रम नहीं होगा। इस वर्ष जन्मदिन कृतज्ञता वर्ष के रूप में मनाया जाएगा। विश्वभर में उनके अनुयायी कृतज्ञता वर्ष को अपने स्तर पर मनाएंगे और दलाईलामा की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करेंगे।

-आचार्य यशी फुंचोक, उपसभापति निर्वासित तिब्बती संसद।

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