Lockdown: 'मैं तुम्हें छोड़कर हरगिज न जाता, मजबूरी मुझे ले जा रही है', पढ़ें- लोगों की दर्द भरी कहानी

Coroanvirus lockDown लॉकडाउन के बाद से धीरे-धीरे साइबर सिटी व आसपास की स्थिति भयावह बनती जा रही है। सभी इलाकों से पलायन शुरू हो गया है।

By Mangal YadavEdited By: Publish:Sun, 29 Mar 2020 04:44 PM (IST) Updated:Sun, 29 Mar 2020 04:44 PM (IST)
Lockdown: 'मैं तुम्हें छोड़कर हरगिज न जाता, मजबूरी मुझे ले जा रही है', पढ़ें- लोगों की दर्द भरी कहानी
Lockdown: 'मैं तुम्हें छोड़कर हरगिज न जाता, मजबूरी मुझे ले जा रही है', पढ़ें- लोगों की दर्द भरी कहानी

गुरुग्राम [आदित्य राज]। कोरोना से संघर्ष में किए गए लॉकडाउन उनके सपने छीन लिए। उन्हें भी प्यार था। इस शहर से। लेकिन छोड़कर जा रहे हैं। पैदल। सैकड़ों किलोमीटर दूर। परिवार के साथ। बच्चों के साथ। गर्भवती पत्नी के साथ। आंखें भरी हैं। रास्ते में कुछ खाने-पीने को मिलेगा या नहीं। रात कहां बिताएंगे। इसकी चिंता तो है, लेकिन उस पर गांव पहुंचने की जिद भारी पड़ रही है। जहां कहने के लिए ही सही, उनका अपना घर तो है। भले छप्पर का है।

पलायन मत करो, यह समझाने पर एक ही जवाब। राशन प्रशासन व सामाजिक संगठन उपलब्ध करा देंगे, किराया व अन्य खर्च कौन देगा? कहते हैं, सैकड़ों किलोमीटर अपने गांव से दूर अपनी मेहनत की कमाई खाने के लिए आया था न कि भीख लेकर पेट भरने। इससे अच्छा है घर जाना। छोटे-छोटे बच्चे हैं, ये कितनी दूर चल पाएंगे, इसका जवाब देते हुए कई तो रो देते हैं, जीवन में ऐसा संकट पहले नहीं आया। पता नहीं गांव पहुंचने तक हममें से कौन जिंदा बचेगा।

लॉकडाउन के बाद से धीरे-धीरे साइबर सिटी व आसपास की स्थिति भयावह बनती जा रही है। सभी इलाकों से पलायन शुरू हो गया है। डीएलएफ, साउथ सिटी, मानेसर, पालम विहार, सोहना, बादशाहपुर सहित सभी इलाकों से हजारों लोग पैदल अपने गांव के लिए निकल चुके हैं। सभी मुख्य सड़कों का दृश्य ऐसा है जैसे उन्हें शहर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया हो। अन्य प्रदेशों से आए ये श्रमिक छोटे-छोटे कमरों में सपरिवार रहते थे। बहुत से लोगों ने श्रमिकों को किराये पर देने के लिए मकान बनवा रखें हैं। जिनमें हर मंजिल पर आठ-दस कमरे होते हैं और शौचालय। एक नल। जिससे सभी पानी भरते हैं।

इन मकान मालिकों में बहुत से ऐसे भी हैं जो उसी मकान के नीचे के एक कमरे में दैनिक उपयोग में आने वाली सभी वस्तुओं की दुकान खोल लेते हैं, जिनमें आटा, दाल, चावल से लेकर दैनिक उपयोग में आने वाली सभी वस्तुएं होती हैं। पूरे महीने श्रमिक उन्हीं की दुकान से अपने लिए चीजें खरीदते हैं और महीने में मजदूरी पाने पर किराये के साथ भुगतान कर देते हैं। अब फैक्ट्रयां बंद हैं तो कहां से देंगे। इनमें से काफी निर्माण क्षेत्र भी लगे हैं। उनकी स्थिति तो और भी बदतर है। उनके पास तो किराये का भी ठिकाना नहीं होता। जहां निर्माण चल रहा होता है, वहीं ठेकेदार ईंटों को रखकर दीवार बनवा टिन की दो चादरें डाल देते हैं।

पत्नी बच्चों समेत उसी में रहते हैं। जमीन पर सोते हैं। उसी में रहते हैं। वहां काम खत्म होता है तो ठेकेदार यही व्यवस्था दूसरी जगह जहां निर्माण कराता है, वहां कर देता है। एक छोटा गैस सिलेंडर और कुछ बर्तन। फटा-पुराना ओढ़ना बिछौना। अब ठेकेदार कहां चला गया। पता नहीं। कुछ ऐसे हैं जो निर्माण कंपनी में काम करते हैं। लेकिन उनकी भी हालत वैसी ही हो गई है।

बिहार के गया निवासी जसराज एवं महेंद्र को ही लें। बताते हैं-मानेसर इलाके में रहकर एक निर्माण कंपनी में काम करते थे। उनके बच्चे निर्माण स्थल के नजदीक ही किराये पर रहते थे। काम बंद हो चुका है। ऐसे में मकान मालिक को कहां से किराया देते। यह केवल इन्हीं चिंता नहीं। गुरुग्राम में काम करने वाले कन्नौज (उप्र) के रमेश कुमार या सीतापुर (उप्र) के रहने वाले मनोज या रेवाड़ी में नौकरी वाले बरेली के प्रेमपाल और लखनऊ के रहनेवाले रामविलास पाल जैसे हजारों श्रमिकों की चिंता है।

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