यूं ही कोई पंडित रविशंकर नहीं बन जाता

प्राइम इंट्रो : कोलकाता के संगीतज्ञ परिवार में जन्मे सुप्रतीक सेनगुप्ता वाद्य-संगीत की दुनिया में पि

By JagranEdited By: Publish:Thu, 05 Oct 2017 03:02 AM (IST) Updated:Thu, 05 Oct 2017 03:02 AM (IST)
यूं ही कोई पंडित रविशंकर नहीं बन जाता
यूं ही कोई पंडित रविशंकर नहीं बन जाता

प्राइम इंट्रो : कोलकाता के संगीतज्ञ परिवार में जन्मे सुप्रतीक सेनगुप्ता वाद्य-संगीत की दुनिया में परिचय का मोहताज नहीं हैं। अपने पिता कबीर सेनगुप्ता से सितार का ककहरा सीखने वाले इस युवा के न केवल अपने देश अपितु जर्मनी, इंग्लैंड व चीन में हजारों कद्रदान हैं। बेशक, इस ऊंचाई तक पहुंचने में उन्हें बचपन व अपनी किशोरावस्था को सतत रियाज के हवाले करना पड़ा। गुरुओं की तालीम व कठोर रियाज के बल ही उन्होंने इस मुकाम को पाया है। सितार को वैश्विक पलक पर लाने वाले स्व. पंडित रविशंकर की परंपरा को आगे बढ़ा रहे सुप्रतीक की राय में संगीत का कोई शार्ट-कट रास्ता नहीं होता। प्रस्तुत है, भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाद्य यंत्रों के योगदान, गुरु-शिष्य परंपरा तथा देशी-विदेशी श्रोताओं के बीच तुलना आदि विषयों पर हमारे मुख्य संवाददाता से बातचीत का संपादित अंश :

--जागरण : सांस्कृतिक धरोहर है भारतीय शास्त्रीय संगीत। नि:संदेह वाद्य-संगीत के बिना यह अधूरा है।

--सुप्रतीक : सही कहा आपने। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व क्षीण हो जाता है। वाद्य-संगीत का भारतीय शास्त्रीय की संपूर्णता में अहम योगदान है। बड़े-बड़े गुणीजनों ने इसे विश्वभर में पहुंचाया है। उनका अनोखा कीर्तिमान है।

--जागरण : शायद उन्हीं के पद-चिन्हों पर चलने के लिए आपने पहले अपने पिता, फिर विश्वनाथ दास, पंडित देवप्रसाद चक्रवर्ती, संगीताचार्य स्व. अजॉय सिन्हा रॉय और फिर सितार के हस्ताक्षर स्व. पंडित रविशंकर के शिष्य प्रदीप च्रकवर्ती जैसे गुरुजनों से ज्ञान अर्जित किया?

--सुप्रतीक : देखिये, कुछ तो परिस्थितियां और अधिकाधिक सीखने की ललक ने गुरुओं के दरवाजे तक पहुंचाया। यह अच्छी ही बात है। संगीत में तो जितना सीखो उतना कम है। इसलिए गुणी गुरुजनों से सीखने का प्रयास किया जो आज देश व दुनिया के सामने है।

--जागरण : तो आप मानते हैं कि संगीत में गुरु-शिष्य की परंपरा ¨हदुस्तान में अक्षुण्ण है?

--सुप्रतीक : निश्चित तौर पर। युगों-युगों तक यह परंपरा बनी रहेगी। सच ही तो कहते हैं कि बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं? संगीत सुन-सुनकर नहीं सीख सकते। सीख भी गए तो अधकचरा। संगीत साधना है। एक-एक राग के सेंटीमेंट को समझना पड़ता है। ये बारीकियां तो गुरु ही सिखा सकता है। हां, यह अलग बात है कि इस गुरु-शिष्य परंपरा का स्वरूप बदलता जा रहा है। नो प्रॉब्लम। परंपरा तो है।

--जागरण : लेकिन शिष्य तो शॉर्ट-कट अधिक पसंद करते हैं।

--सुप्रतीक : भारतीय शास्त्रीय संगीत में शॉर्ट-कट रास्ता कतई नहीं हो सकता। यहां तो जितनी महत्ता तालीम की है उतनी ही रियाज की। घंटों बैठकर रियाज करना पड़ता है।गुरु के सान्निध्य में संगीत का संस्कार प्रस्फुटित होता है। यूं ही कोई पंडित रविशंकर नहीं बन जाता है।

जागरण : आपने वर्ष 2001 में आईटीसी संगीत रिसर्च अकेडमी ज्वाइन किया। कितना कारगर होता है यह रिसर्च?

--सुप्रतीक : बेहद प्रभाव छोड़ता है रिसर्च। आपको न केवल तकनीकी बारीकियों से अवगत कराता है बल्कि देश-दुनिया में संगीत के क्षेत्र में होने वाले नित नए प्रयोगों से भी रूबरू करवाता है। किताबी ज्ञान और प्रैक्टिस के बीच संतुलन साधने के गुर सिखाता है रिसर्च। आपकी सोच को नया आयाम देता है।

--जागरण : देश और दुनिया के श्रोताओं के बीच क्या अंतर पाते हैं?

--सुप्रतीक : आश्चर्य तो यह कि अब विदेशों अपने देश की तुलना में ज्यादा सुधी श्रोता हैं। कार्यक्रम की प्रस्तुति में शिरकत करने से पहले वे राग-रागिनी के बारे में जानकारी जुटाकर आते हैं। पर ऐसा भी नहीं है कि भारतीय श्रोता सुधी नहीं हैं।

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