1844 में बने ईसाई कब्रिस्तान में आज भी पुरखों की तलाश में आते हैं अंग्रेज

सन 1844 में बना अंबाला-जगाधरी रोड स्थित ईसाई कब्रिस्तान आज सरकंडों व झाड़ियों का एक जंगल नजर आता है जो कि साफ तौर अनदेखी का शिकार नजर आता है।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 13 Feb 2019 12:49 AM (IST) Updated:Wed, 13 Feb 2019 12:49 AM (IST)
1844 में बने ईसाई कब्रिस्तान में आज भी पुरखों की तलाश में आते हैं अंग्रेज
1844 में बने ईसाई कब्रिस्तान में आज भी पुरखों की तलाश में आते हैं अंग्रेज

जागरण संवाददाता, अंबाला शहर :

सन 1844 में बना अंबाला-जगाधरी रोड स्थित ईसाई कब्रिस्तान आज सरकंडों व झाड़ियों का एक जंगल नजर आता है जो कि साफ तौर अनदेखी का शिकार नजर आता है। हालांकि, सात समंदर पार यूरोपीय देशों में रहने वाले लोगों का यह आज भी ध्यान खींच रहा है। अकसर यूरोप से लोग अपने पुरखों को ढूंढ़ते हुए यहां आ पहुंचते हैं। बेहाल हुई कब्रों के बीच अपनों को तलाशने की कोशिश करते हैं। यहां प्रथम व द्वितीय विश्व युद्धों के बीच मारे गए सैनिकों सहित वह अंग्रेज दफन हैं जिनकी मृत्यु 1844 से लेकर देश को आजादी मिलने के दौरान अंबाला या आसपास हुई। अलग अलग निर्माण शैली में बनाई गई इन कब्रों पर आज भी मरने वाले लोगों का ब्योरा है। हालांकि, संरक्षित नहीं किए जाने से अब यहां कब्र खंडित हो रही हैं। कुछ जमींदोज हो गई हैं। वहीं, ईसाई समाज के जो लोग इसकी देखरेख से जुड़े हैं वह वर्तमान बेहाली के लिए पैसे की कमी बता रहे हैं। जानकारी के मुताबिक 1843 में कैंटोनमेंट बसने के एक साल बाद 23 एकड़ में इस कब्रिस्तान को बनाया गया था। जिसमें दो लाख से अधिक कब्र हैं। हर कब्र का अपना एक इतिहास है। इन कब्रगाह में बीसी बाजार की तरफ लगने वाली दीवार के साथ साल 1844 की कब्र मौजूद हैं। इनमें लाल पत्थर की जो कब्र हैं उन प संगमरमर पर नक्काशी कर दिवंगत बारे पूरी जानकारी दी गई है। कब्र के निर्माण में ईंटों के साथ चूने का इस्तेमाल किया गया है और कई के ऊपर से संगमरमर लगाया गया है।

ऐसी है एक कब्र पर लिखा मेजर रोबर्ट लीच। जिस पर लिखा है कि वह बांबे इंजीनियर्स में काम करता था। जिसका जन्म 7 दिसंबर 1813 में हुआ और मृत्यु 2 सितंबर 1845 में अंबाला में हुई। जो कि ब्रिटिश कब्जे वाले अफगानिस्तान में प्रवेश करने वाला पहला व अंतिम आफिसर था। कब्र का पत्थर उसकी विधवा मां व जीवित पुत्र द्वारा याद में लगवाए होने का उल्लेख है। ऐसी हजारों कब्र हैं जो किसी न किसी की कहानी बयां कर रही हैं।

कटवाने के बजाय सरकंडों में लगाई जा रही आग

इस कब्रिस्तान की देखरेख किस प्रकार से है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां उगे सरकंडों व झाड़ियों को कटवाने के बजाय इनमें आग लगाई जा रही हैं। बीसी बाजार वाल्मीकि बस्ती की तरफ एक दीवार ढह चुकी है लेकिन उसकी मरम्मत नहीं हो पा रही है। इस गिरी दीवार से लोग अंदर कूड़ा डाल रहे हैं। वहीं, नशेड़ी व असामाजिक प्रवृति के लोगों का यहां जमावड़ा लगा रहता है। इसकी एक वजह यह भी है कि कब्रिस्तान में न तो चौकीदार की व्यवस्था है और न ही जो पुरानी चाहरदीवारी की मरम्मत हो रही है। हालांकि, अंबाला जगाधरी रोड की तरफ के हिस्से में एक हिस्से की चाहरदीवारी की पिछले दिनों कुछ मरम्मत जरूर हुई है।

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अंग्रेज कई बार यहां आकर अपनों को ढूंढते हैं

वाल्मीकि बस्ती निवासी करीब 22 वर्षीय युवक अभिषेक ने बताया कि उसका बचपन यहां आसपास खेलते ही बीता है। इस दौरान यहां अंग्रेजों को भी आते हुए देखा है जो अपने पूर्वजों की कब्र तलाशते रहे हैं। हालांकि, अब यहां कोई देखरेख नहीं होने से ऐसे तलाशना बड़ा मुश्किल है।

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