फिल्म रिव्यू-सारे जहां से महंगा

महंगाई राष्ट्रीय मुद्दा तो कब की बन चुकी है लेकिन इस मुद्दे का हल आम आदमी को दिखाई नहीं दे रहा है। लगातार विरोध के बाद भी महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। ऐसे में आम आदमी कैसे जिए? यही सवाल फिल्म के जरिए उठाया गया है। फिल्म की लागत कम है और कुछ मंझे हुए अभिनेताओं को लिया गया है जिनकी स्क्र

By Edited By: Publish:Fri, 08 Mar 2013 01:08 PM (IST) Updated:Fri, 08 Mar 2013 02:55 PM (IST)
फिल्म रिव्यू-सारे जहां से महंगा

मुंबई। महंगाई राष्ट्रीय मुद्दा तो कब की बन चुकी है लेकिन इस मुद्दे का हल आम आदमी को दिखाई नहीं दे रहा है। लगातार विरोध के बाद भी महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। ऐसे में आम आदमी कैसे जिए? यही सवाल फिल्म के जरिए उठाया गया है। फिल्म की लागत कम है और कुछ मंझे हुए अभिनेताओं को लिया गया है जिनकी स्क्रीन प्रजेंस इन दिनों कम हो चली है। इस वजह से प्रोडक्शन वैल्यू को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। फिल्म में तकनीक स्तर पर काफी झोल हैं जिनका निर्देशक और एडिटर आसानी से ध्यान रख सकते थे और उसके लिए बजट की भी जरूरत नहीं होती। संजय मिश्रा और जाकिर हुसैन का जब पहली बार सामना होता है तो एक ही शहर में दोनों के गाड़ी के नंबर प्लेट अलग होते हैं। महाराष्ट्र के सातारा में हरियाणा की कहानी स्थापित की गई है लेकिन सातारा के मराठी में लिखे होर्डिग नहीं हटाए गए हैं। संवादों और दृश्यों में तो कई जगह दोहराव हैं खासकर नायक-नायिका के बीच प्रेम उपजाने की निरर्थक कोशिश में लिखे संवाद हरी सब्जी में गरम मसाले के प्रयोग जैसे लगते हैं।

फिल्म की कहानी पुत्तन पाल (संजय मिश्रा) की है जो अपने पिता, पत्नी और भाई के साथ एक मध्यमवर्गीय जीवन बिताता है। उसकी कमाई में पूरा घर मुश्किल से चलता है और वह बार-बार अतिरिक्त कमाई के लिए नए तरीके खोजता है। एक दिन तंग आकर वह महंगाई पर नियंत्रण पाने की एक योजना बनाता है। इसी प्रक्रिया में वह अपने छोटे भाई गोपाल (रंजन छाबड़ा)के नाम से बैंक से लोन लेता है। लोन की इसी प्रक्रिया को आधार बनाकर और सरकारी पैसे के दुरुपयोग को ध्यान में रखकर ही फिल्म का ताना-बाना बुना गया है। फिल्म कई दृश्यों में यथास्थिति बताने में कामयाब भी रहती है लेकिन उस स्तर तक नहीं पहुंच पाती जहां तक पहुंचकर हास्य का स्तर व्यंग्य में तब्दील हो सके। जब सरकारी तंत्र की बात की जा रही हो तो बिना व्यंग्य के बात कहना मोनोटोनस या साधारण लगता है। फिल्म के अभिनय पक्ष में भी बहुत खामियां हैं।

संजय मिश्रा जैसे वर्सेटाइल अभिनेता को बेचारा बनाने की परंपरा क्यों चल पड़ी है? उनको हर फिल्म में कमजोर और सीधे-सादे अभिनेता का किरदार ही क्यों मिलता है? इसी वजह से संजय के अभिनय में दुहराव लगता है। दादा के किरदार में विश्वमोहन बडोला का किरदार लाउड बना दिया गया है। वे बेवजह चिल्लाते रहते हैं। कुछ दृश्यों में जरूर वे सहज लगे हैं लेकिन बाकी के दृश्यों में उनके अभिनेता के साथ ज्यादती की गई है। प्रगति पांडे और रंजन छाबड़ा को अभिनय के (करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान के स्तर पर) प्रैक्टिस की जरूरत है। दोनों के ही चेहरों पर कैमरा फोबिया साफ दिखता है। जाकिर हुसैन लोन इंस्पेक्टर की भूमिका को भी इंटेंस बना देते हैं जबकि हल्के-फुल्के और सामान्य भाव-भंगिमाओं के साथ उनका किरदार किया जा सकता था। अंतत: थोड़ा बहुत ठीकरा लेखक और निर्देशक के जिम्मे भी फूटना चाहिए। फिल्म की कहानी में घटनाक्रम प्रेडिक्टेबल और सामान्य हैं। इंटरवल से ठीक पहले छोड़कर एक भी हॉई पॉइन्ट फिल्म की कहानी में नहीं है। निर्देशक का दृष्टिकोण भी काम चलाऊ लगा है। फंस गए रे ओबामा के मेकर्स की यह प्रस्तुति सामान्य है।

- दुर्गेश सिंह

** 2 स्टार

निर्देशक- अंशुल शर्मा

कलाकार- संजय मिश्रा, जाकिर हुसैन विश्वमोहन बडोला, प्रगति पांडे और रंजन छाबड़ा

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