फिल्म फेस्टिवल से चौतरफा फायदा - सौरभ शुक्ला

फिल्म ‘सत्या’ में कल्लू मामा की भूमिका से लोकप्रिय हुए सौरभ शुक्ला केवल अभिनेता ही नहीं हैं। वे लेखक और निर्देशक भी हैं। हाल-फिलहाल वे ‘पीके’ में ढोंगी साधु की भूमिका में नजर आए थे। उनकी अगली पेशकश ‘कौन कितने पानी में’ है। वे उसमें कालाहांडी इलाके के राजा की

By Monika SharmaEdited By: Publish:Mon, 20 Jul 2015 10:33 AM (IST) Updated:Mon, 20 Jul 2015 11:11 AM (IST)
फिल्म फेस्टिवल से चौतरफा फायदा - सौरभ शुक्ला

फिल्म ‘सत्या’ में कल्लू मामा की भूमिका से लोकप्रिय हुए सौरभ शुक्ला केवल अभिनेता ही नहीं हैं। वे लेखक और निर्देशक भी हैं। हाल-फिलहाल वे ‘पीके’ में ढोंगी साधु की भूमिका में नजर आए थे। उनकी अगली पेशकश ‘कौन कितने पानी में’ है। वे उसमें कालाहांडी इलाके के राजा की भूमिका में हैं। इस फिल्म की स्क्रीनिंग छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल के तहत विभिन्न शहरों में हो रही है।

श्रद्धा कपूर ले रही हैं अब ये ट्रेनिंग!

फेस्टिवल से बना माकूल माहौल
जागरण फिल्म फेस्टिवल की तारीफ करते हुए सौरभ शुक्ला कहते हैं, ‘फिल्म निर्माण की कड़वी हकीकतों के बावजूद फिल्मों के प्रयोगवादी होने में फिल्म फेस्टिवलों ने अहम भूमिका निभाई है। बाजार एक्सपैरिमेंट करने को तैयार हो पा रहे हैं, उसके लिए माकूल माहौल फेस्टिवल से बना है। जागरण फिल्म फेस्टिवल ने इसमें एक चीज और जोड़ी है। वह यह कि मास ऑडियंस भी प्रयोगधर्मी फिल्में पसंद कर रही हैं। इसकी ताकीद जागरण फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित विभिन्न फिल्मों ने की है। हम भी ‘कौन कितने पानी में’ जैसी फिल्में बना सके हैं, तो उसके लिए माहौल व जमीन फिल्म फेस्टिवलों से मुहैया हो सकी है। कई बार ऐसा हुआ है कि फेस्टिवल के जरिए ऑफबीट फिल्में भी मेनस्ट्रीम में आ सकी हैं।’

बनती रहेंगी ऑफबीट फिल्में
अपनी नई फिल्म के बारे में सौरभ शुक्ला बताते हैं, ‘यह नीला माधब पांडा की फिल्म है। उनकी खूबी है कि वे सामाजिक समस्याओं के दर्द को तंज के सहारे पर्दे पर बखूबी पेश कर देते हैं। उड़ीसा के कालाहांडी में पानी की विकराल समस्या है। मैं उसमें वहां की एक रियासत का राजा बना हूं। वह अपनी जमीनें बेच कहीं और चला जाना चाहता है, पर पानी की घोर कमी के चलते वह वैसा नहीं कर पाता है। मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि क्या ऑफबीट फिल्मों के दर्शक हैं। मेरा जवाब होता है, हां। तभी तो पांचवें-छठे दशक में लोगों ने ‘शारदा’ को एप्रीशिएट किया था। बिमल रॉय फिल्में बनाते रहे हैं। बाद में ऋषिकेश दा की फिल्मों ने एंटरटेन किया। दर्शकों की भूख उस किस्म की फिल्मों की है।’ सौरभ बताते हैं, ‘फेस्टिवल में अगर 300-400 लोग जॉनर विशेष की फिल्में पसंद कर रहे हैं, तो वह इंडस्ट्री के लिए सैंपलिंग का काम करती हैं। इससे यह मैसेज जाता है कि अगर उतने लोगों को फिल्म पसंद हैं तो वह 8000 लोगों को भी भाएगी। इसीलिए फेस्टिवल को सपोर्ट करने व उसके नतीजों पर इंडस्ट्री निगाहें गड़ाए रखती हैं, तभी ढेर सारे फेस्टिवल भी होने लगे हैं। इस तरह फेस्टिवल से सबका भला हो रहा है।’

सिनेमा भी बदल रहा है
सौरभ अभिनेता हैं, लेखक हैं और निर्देशक भी। फिल्म निर्माण से जुड़ी तीनों विधाओं में किसे अधिक इंज्वॉय करते हैं? वे कहते हैं, ‘जिस तरह आप अपने तीन बच्चों में किसी एक को पसंदीदा नहीं बता सकते हैं ठीक उसी तरह मैं लेखन, अभिनय और निर्देशन तीनों को ही इंज्वॉय करता हूं। अलग-अलग समय पर तीनों ही विधाएं सुख देती हैं। जब हम कुछ लिखते हैं तो हम पर बहुत अधिक सीमाएं नहीं होती हैं वहीं निर्देशन करते समय मैं ‘परेशान आत्मा’ बन जाता हूं। जहां तक अभिनय की बात है तो मैं पूरी तरह अपने निर्देशक के निर्देशों का पालन करता हूं। हिंदी सिनेमा में पिछले दशक से इस दशक में काफी कुछ बदला है। हमारी जीवनशैली में होने वाले परिवर्तनों का असर सिनेमा पर भी होता है। सिनेमा समाज का आईना होता है और यही वजह है कि हिंदी सिनेमा भी परिवर्तनों को समाहित करते हुए एक नई दिशा की ओर अग्रसर है। नई कहानियों और नए प्रयोगों को जनता स्वीकार कर रही है।’

अमित कर्ण

रणबीर और कट्रीना साथ करेंगे फिल्म

chat bot
आपका साथी