चौधर की मरोड़ और गर्दन का मोड़, राव थे बेजोड़, पढ़िए राजनीति की रोचक कहानी

विरोधियों को पस्त करने के लिए राव ने कभी दक्षिण हरियाणा तो कभी अहीरवाल की चौधर के लिए संघर्ष का नारा दिया। राव के बड़े बेटे केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह का स्टाइल तो पूरी तरह

By Prateek KumarEdited By: Publish:Sat, 28 Sep 2019 10:05 AM (IST) Updated:Sat, 28 Sep 2019 10:05 AM (IST)
चौधर की मरोड़ और गर्दन का मोड़, राव थे बेजोड़, पढ़िए राजनीति की रोचक कहानी
चौधर की मरोड़ और गर्दन का मोड़, राव थे बेजोड़, पढ़िए राजनीति की रोचक कहानी

रेवाड़ी (महेश कुमार वैद्य)। प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दो प्रमुख नेताओं के साथ मरोड़ शब्द जुड़ा हुआ है। चौ. बंसीलाल जहां अनुशासन तोड़ने वालों की मरोड़ निकालने के लिए प्रसिद्ध रहे वहीं राव बिरेंद्र सिंह के साथ चौधर की मरोड़ और गर्दन टेढ़ी का जुमला जुड़ा था। अहीरवाल की चौधर के नाम पर राव ने बड़ा रुतबा हासिल किया था। उन्हें गर्दन सीधी करने की भी कई बार चुनौती मिली, लेकिन झटके खाकर भी राव की गर्दन और चौधर की मरोड़ कामय रही। राव बेजोड़ थे, क्योंकि चौधर के नाम पर उनके साथ अहीरवाल का बड़ा वर्ग दलीय राजनीति से ऊपर उठकर खड़ा था।

सीएम की पद की रेस से बाहर

विरोधियों को पस्त करने के लिए राव ने कभी दक्षिण हरियाणा तो कभी अहीरवाल की चौधर के लिए संघर्ष का नारा दिया। राव के बड़े बेटे केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह का स्टाइल तो पूरी तरह अपने पिता पर है। हालांकि इस बार उन्होंने भाजपा के अनुशासन के डंडे के आगे खुद को मुख्यमंत्री पद की रेस से बाहर रखा है, मगर कुछ महीने पूर्व तक इंद्रजीत की भाषा भी अहीरवाल में चौधर लाने यानी मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने के नारे पर केंद्रित थी।

कायम रहा बांकपन

तमाम विरोधाभाषों के बीच राव बिरेंद्र सिंह ने अपना बांकपन रखते हुए राजनीति में खुद की प्रासंगिकता जीवन पर्यंत बरकरार रखी थी। यह राव की दिलेरी का ही प्रमाण था जिसके चलते उन्होंने वर्ष 1967 में कांग्रेस से बगावत करके न केवल खुद की विशाल हरियाणा पार्टी का गठन किया बल्कि जोड़-तोड़ से अपनी सरकार भी बनाई। चौधर के नारे से बने आभामंडल का ही परिणाम था जिसके चलते वीएचपी को 39 में से 16 सीटों पर जीत हासिल हुई। बाद में राव ने वर्ष 1971 में विशाल हरियाणा पार्टी से, वर्ष 1980 व 1984 में कांग्रेस से व वर्ष 1989 में जनता दल की टिकट पर लोकसभा चुनाव जीते। उन्हें हवा का रुख भांपने में महारत थी, परंतु कई बार कुछ बड़े नेताओं की चालों में फंसकर राव को रगड़ा भी लगा। राव विरोधियों ने उन्हें शिकस्त देने के लिए कर्नल राम सिंह जैसे नेताओं को उभारा।

शून्य से शिखर तक

राव की राजनीति की शुरुआत हार से हुई थी। वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव में राव ने बतौर निर्दलीय रेवाड़ी विस सीट से चुनाव लड़ा था, जिसमें उन्हें हार नसीब हुई थी। 20 फरवरी, 1991 को यहां के नांगल गांव में जन्में राव ने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। पहले पंजाब विधान परिषद के सदस्य चुने गए। सरदार प्रताप सिंह कैंरों मंत्रिमंडल में उन्हें परिवहन व राजस्व विभाग का जिम्मा मिला। राव अपने कद की बदौलत आयाराम गयाराम के गणित के बल पर 24 मार्च, 1967 को संविद सरकार के मुखिया बने। हालांकि 224 दिन बाद ही उनकी सरकार गिर गई थी, लेकिन तब तक राव अहीरवाल की चौधर के प्रतीक बन चुके थे।

इंदिरा से मिला था इनाम

आपातकाल के बाद जब इंदिरा गांधी के सितारे गर्दिश में थे तब गांधी के आग्रह पर राव ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। इंदिरा ने अहम महकमे देकर राव को इनाम दिया। उनकी गर्दन जन्मजात टेढ़ी थी। विरोधियों को इसमें अहम दिखता था। इसी कारण राव विरोधी अक्सर कहते थे कि मौका मिलने पर राव की गर्दन सीधी करेंगे, लेकिन राव की गर्दन कोई सीधी नहीं कर पाया। 30 सितंबर, 2009 को राव ने अंतिम सांस ली थी। अपवादों को छोड़कर राव भारी पड़े। अहीरवाल की राजनीति दो धारा में बंटकर उनके इर्द-गिर्द ही रही। एक धारा-एंटी राव और दूसरी प्रो राव। दोनों धाराएं जीवंत रही, लेकिन चौधर के नारे के कारण राव परिवार का तिलिस्म बरकरार था और बरकरार है।

यह था ताकत का नमूना

वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में राव अपनी विशाल हरियाणा पार्टी से महेंद्रगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। उस दौर में प्रदेश की 9 में से 7 सीटें कांग्रेस ने व एक भारतीय जनसंघ ने जीती थी। कांग्रेस की लहर के बावजूद राव अपनी ही पार्टी से जीत दर्ज करने में कामयाब हुए थे। हालांकि उनकी जीत का अंतर महज 1899 वोट रहा था।

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