शाम ढलते ही रंगीन हो जाता हरिहरक्षेत्र सोनपुर मेला

ये है रेशमी जुल्फों का अंधेरा न घबराइए, जहां तक महक है मेरे गेसुओं की चले आइए। शाम ढलते ही हरिहरक्षेत्र सोनपुर मेले की रंगीनियां और रौनक बढ़ जाती है।

By Edited By: Publish:Fri, 02 Dec 2016 02:51 AM (IST) Updated:Fri, 02 Dec 2016 02:51 AM (IST)
शाम ढलते ही रंगीन हो जाता हरिहरक्षेत्र सोनपुर मेला

वैशाली। ये है रेशमी जुल्फों का अंधेरा न घबराइए, जहां तक महक है मेरे गेसुओं की चले आइए। शाम ढलते ही हरिहरक्षेत्र सोनपुर मेले की रंगीनियां और रौनक बढ़ जाती है। एक तरफ पर्यटन विभाग के मुख्य कला मंच पर लोक संस्कृति व रीति-रिवाजों को उजागर करते सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम होती है तो वहीं दूसरी ओर पॉप और पाश्चात्य धुन पर थिरकते थियेटर बालाओं की दिलकश अंदाज और आवाज। जैसे-जैसे शाम रात में तब्दील होती है, वैसे ही मेले में आने वाले दर्शकों के चेहरे भी बदलते जाते हैं। सुबह से संध्या बेला तक जहां ग्रामीण और शहरी संस्कृति का मिलाजुला स्वरूप उभरता है वहीं रात होते ही मेले की भीड़ का अधिकांश हिस्सा थियेटर प्रेमियों का होता है। लंबे समय से मेला आ रहे दर्शकों ने एक दौर वह भी देखा है जब थियेटर में पदमश्री गुलाब बाई की सुरीली आवाज में नदी नाले न जांउ श्याम पईआं परूं...और संईया रूठ गए मैं मनाती रही आदि ठुमर, दादरा, गजल तथा शास्त्रीय धुन पर आधारित एक से बढ़कर एक गाने सुने। कभी गुलाब थियेटर, नीलम संध्या, मून लाईट तथा भारत थियेटर आदि थियेट्रीकल कंपनी इस मेले की शान व गौरव हुआ करता था। तब थियेटरों में नाच गान के साथ साथ नौटंकी हुआ करता था। सत्य हरिश्चंद्र, सुल्ताना डांकू, लैला मंजनू, दही वाली मस्तानी आदि नाटकों के जरिए थियेटर के कलाकार अपने उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन कर लोगों की भरपूर मनोरंजन किया करते थे। समय के साथ सब कुछ बदलता चला गया। अब थियेटरों में न मुजरा हैं न ठुमरी और दादर, फिर भी यह मेले का आकर्षण है।

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