छात्र संघ चुनाव हारने के बाद लालू बन गए थे क्लर्क: सुशील मोदी

1973 में लालू प्रसाद जब पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने तो सुशील मोदी महासचिव पद पर चुने गए। तब समाजवादी युवजन सभा और विद्यार्थी परिषद ने साझा चुनाव लड़ा था।

By Ravi RanjanEdited By: Publish:Fri, 16 Feb 2018 09:44 AM (IST) Updated:Fri, 16 Feb 2018 10:29 PM (IST)
छात्र संघ चुनाव हारने के बाद लालू बन गए थे क्लर्क: सुशील मोदी
छात्र संघ चुनाव हारने के बाद लालू बन गए थे क्लर्क: सुशील मोदी

पटना [रमण शुक्‍ला]। बिहार की छात्र राजनीति को सुशील मोदी से बेहतर शायद ही कोई समझता होगा। 70 के दशक में वह कई छात्र आंदोलनों के गवाह बने और छात्र राजनीति को नई दिशा देने की कोशिश की। 1973 में लालू प्रसाद जब पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने तो सुशील मोदी महासचिव पद पर चुने गए। तब समाजवादी युवजन सभा और विद्यार्थी परिषद ने साझा चुनाव लड़ा था। उनसे विशेष बातचीत के प्रमुख अंश:

आप छात्र राजनीति के पुरोधा रहे हैं। तब और अब में क्या फर्क महसूस कर रहे हैं? क्यों आई राजनीति में गिरावट?

जवाब :  छात्र राजनीति के पुरोधा तो नहीं लेकिन नई दिशा देने वाला कह सकते हैं। मेरा मानना है कि सियासत में शुचिता के साथ वैचारिक नेतृत्व उभारने के लिए छात्र संघ चुनाव जरूरी है। धन्यवाद राज्यपाल सत्यपाल मलिक का जिन्होंने 30 मार्च तक सभी विश्वविद्यालयों को चुनाव कराने का निर्देश दिया। छात्र संघ से ही कुशल राजनेता तैयार होते हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश छात्र राजनीति में आपराधिक प्रवृत्ति वाले छात्रों ने शामिल होकर छात्र संघों की रीढ़ तोड़ दी।

वर्षों तक छात्रसंघ चुनाव नहीं होने के पीछे वजह भी यही रही। छात्र राजनीति के स्तर में गिरावट की भी यही मुख्य वजह रही। हमारे जमाने में छात्र तोडफ़ोड़, हंगामा और बवाल करते थे, लेकिन उसका अपना स्तर होता था।

तब मुख्य रूप से तीन कारणों से छात्र आंदोलन होता था। पहला होटल में खाकर लड़के पैसा नहीं देते थे। होटल मालिक द्वारा प्रतिकार करने पर आंदोलन शुरू कर देते थे। दूसरा सिनेमा हॉल में टिकट को लेकर विवाद होता था। दो-तीन बार तो बड़ी आगजनी और तोडफ़ोड़ के कारण संकट गहरा गया था। तीसरा राज्य ट्रांसपोर्ट की बसों में किराया देने को लेकर विवाद होता था। छात्रों ने 70 के दशक में टिकट को लेकर सबसे बड़ा आंदोलन किया था।

सवाल :  छात्रों के राजनीति करने के क्या नुकसान या फायदे हैं?

जवाब : मेरी समझ से नेकनीयत से कोई काम किया जाए तो कोई नुकसान नहीं है, लेकिन जब नीयत खराब हो तो फिर क्या कहना। छात्र संघ चुनाव को लेकर विवि कैंपस में ङ्क्षहसा, हत्या और गुटबाजी की वजह से चुनाव बंद करना पड़ा। जहां तक फायदे की बात है तो मैं बताऊं कि जब मैं पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ का महासचिव था तब मेरे नेतृत्व में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के आंदोलन ने विवि के शैक्षणिक माहौल में ऐतिहासिक परिवर्तन का वाहक बना। पांच दिनों तक अनशन पर बैठा रहा।

पहली बार ऐसा हुआ था जब नकल रोकने के लिए आंदोलन किया था। इसी आंदोलन में मैंने वर्ष में 180 दिन कक्षा में पढ़ाई सुनिश्चित करवाई और सत्र को नियमित करवाया। अब तो कॉलेजों के कैंपस में महज 20 फीसद छात्र भी नहीं हैं। तब कैरियर ओरिएंटेड कोर्सेज की ओर छात्र ज्यादा भाग रहे थे। एमबीए और पॉलिटेक्निक की पढ़ाई छात्र जानते नहीं थे। प्रोफेशनल कोर्स में रूझान नहीं था। कोचिंग क्लास नहीं था। नामांकन में अंकों के आधार पर प्रतिस्पर्धा होती थी। पहली बार 1971 में मेडिकल के लिए प्रवेश परीक्षा शुरू हुई थी।

छात्र संघ चुनाव को वैचारिक राजनीति की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है, लेकिन अब विचार कहां है?

जवाब : वैचारिक राजनीति की बात है तो मेरे छात्र राजनीति में आने से पूर्व पटना विवि में अप्रत्यक्ष चुनाव होता था। तब प्रत्येक कक्षा से क्लास काउंसिलर चुने जाते थे। फिर वही क्लास काउंसिलर अध्यक्ष चुनता था। यानि की सीधे चुनाव नहीं होता था। हां, जाति के आधार पर तब प्रत्याशी जरूर चुनाव लड़ते थे। अध्यक्ष और महामंत्री भी चुनते थे। तब हॉस्टल में रहने वाले छात्र उम्मीदवार खड़े करने में अहम भूमिका निभाते थे।

पहली बार 1970 में विवि में जनमत संग्रह से चुनाव हुआ। अध्यक्ष पद पर राजेश्वर प्रसाद और लालू प्रसाद महासचिव चुने गए थे, लेकिन वर्ष भर बाद हुए चुनाव में यानि 1971 में लालू चुनाव हार गए। तब रामजतन सिन्हा अध्यक्ष और नरेंद्र सिंह महासचिव चुने गए। 13 हजार लड़के-लड़कियों ने वोट किया। पहली बार विवि कैंपस में चुनाव के दौरान लड़कियों ने भी राइफल-बुलेट जिंदाबाद के नारे लगाए थे।

भूमिहारों के उम्मीदवार रामजतन सिन्हा को राइफल और राजपूतों के प्रत्याशी नरेंद्र सिंह को बुलेट नाम दिया गया था। इस चुनाव में बड़ी संख्या में सवर्ण प्रत्याशी जीते थे। उधर, लालू चुनाव हारने के बाद वेटनरी कॉलेज में क्लर्क की नौकरी करने चले गए थे, लेकिन दो वर्ष बाद जब विवि में फिर चुनाव का माहौल बनने लगा तो रंजन यादव ने फिर 1973 में लालू को चुनाव लडऩे के लिए तैयार किया। लालू तब लॉ में नामांकन कराकर चुनाव की तैयारी करने लगे। पहली बार समाजवादी युवजनसभा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने समझौता कर साझा प्रत्याशी उतारा।

समाजवादी युवजनसभा की ओर से लालू प्रसाद अध्यक्ष, मैं महासचिव और रविशंकर प्रसाद ने सचिव पद का चुनाव लड़ा। अध्यक्ष छोड़कर सभी पदों पर पहली बार एवीबीपी का कब्जा हुआ था। चुनाव में पहली बार मैंने ऐलान किया था कि पोस्टर नहीं छपवाएंगे। दीवार लेखन नहीं करेंगे। तब साइंस कॉलेज को मेधावी छात्रों का कॉलेज माना जाता था। वहां का कोई छात्र चुनाव नहीं लड़ता था। चुनाव में केवल बीएन कॉलेज और लॉ कॉलेज के छात्र ही भाग्य आजमाते थे। मैंने पहली बार बतौर सांइस कॉलेज के स्टूडेंट के रूप में चुनाव लड़ा था।

सवाल :  आपके समय के कौन-कौन छात्र नेता राजनीति में सफल रहे?

जवाब: छात्र राजनीति में बेतहाशा अपराध बढऩे के कारण परंपरा चौपट हो गई। इसके लिए किसी एक को जिम्मेवार ठहराना उचित नहीं होगा। हां, यह बात जरूर है कि उस दौर में एक से बढ़कर एक कई छात्र नेता निकले। उनमें रंजन यादव, लालू प्रसाद, रामजतन सिन्हा, रविशंकर प्रसाद, अश्विनी चौबे, नीतीश कुमार और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अनिल शर्मा जैसे नेताओं के नाम शुमार हैं।

क्या-क्या दिलवाई सुविधाएं

-विद्यार्थियों के लिए कई नई विशेष बसें चलवाईं

-सिनेमा हॉल में होने लगी अलग टिकट खिड़की

-प्रति दिन छात्रों के लिए बुक रहता था 150 टिकट

-विश्वविद्यालय के कॉलेजों में खुलवाया था कैंटीन

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