Lok Sabha Election 2019: बिहार की सियासत में 'जाति' कितनी है सच्चाई, जानिए

बिहार की सियासत में सियासत में जाति की बात की जाती है। लेकिन ये एक अधूरी सच्चाई है। बिहार की सियासत को लेकर नजरिया बदलने की जरूरत है। जानिए इस खास रिपोर्ट में....

By Kajal KumariEdited By: Publish:Sat, 06 Apr 2019 11:17 AM (IST) Updated:Sat, 06 Apr 2019 11:17 AM (IST)
Lok Sabha Election 2019: बिहार की सियासत में 'जाति' कितनी है सच्चाई, जानिए
Lok Sabha Election 2019: बिहार की सियासत में 'जाति' कितनी है सच्चाई, जानिए

पटना [अरविंद शर्मा]। जाति यथार्थ है। चुनावी मौसम में वोटरों की जाति के हिसाब से सियासी दल प्रत्याशियों का चयन और टिकट का बंटवारा करते हैं। क्षेत्र में जिस जाति की अधिकता होती है, वहां उसी जाति का प्रत्याशी दिया जाता है, किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है। सियासत में जाति अधूरी सच्चाई है।

बिहार की सियासत को ले नजरिया बदलने की है जरूरत

कर्पूरी ठाकुर जिस जाति से आते थे, उसकी कितनी आबादी है। फिर भी लगातार चुनाव जीतते रहे। लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचे। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जाति की संख्या कितनी है? अगर सिर्फ जाति

के सहारे राजनीति करते तो नीतीश कुमार का इतना बड़ा नाम नहीं होता। जाहिर है, बिहार की सियासत को लेकर नजरिया बदलने की जरूरत है।

यहां जाति ही सब कुछ नहीं है, जैसा कि राजनीतिक दल सोचते हैं। वैसे यह भी सही है कि टिकट बांटने के दौरान जाति और परिवार का ख्याल किया जाता है, किंतु अच्छी बात यह है कि वोटरों की मानसिकता ऐसी नहीं है। उन्हें नौकरी और रोजगार चाहिए।

सड़क-बिजली-पानी चाहिए। बच्चों को अच्छी शिक्षा चाहिए। सुशासन चाहिए, ताकि बेटियां पढ़ने निकलें तो सकुशल घर लौट आएं। इसलिए चुनाव के दौरान कतिपय नेता तो जाति-जाति का शोर मचाते दिख जाएंगे, किंतु मतदाता नहीं।

बिहार के मतदाताओं ने प्रत्याशी का चेहरा नहीं देखा, जाति नहीं पूछी

बिहार के मतदाता भी अगर ऐसे होते तो जॉर्ज फर्नांडिस, मीनू मसानी, जेबी कृपलानी और मधु लिमये जैसे नेताओं को संसद नहीं भेजते। वोट देते वक्त किसी ने उनकी जाति नहीं पूछी। चेहरा नहीं देखा। उनमें संभावना देख अपना प्रतिनिधि चुन लिया। स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों और नेताओं को भी सोच बदलने की जरूरत है।

जाति की राजनीति करने वाले नेता बहुत आगे नहीं बढ़ पाए हैं। इसके कई उदाहरण हैं। आजादी के पहले तीन जातियों के क्षेत्रपों ने मिलकर बिहार में त्रिवेणी संघ बनाया था। पहले चुनाव में ही उनकी जमानत जब्त हो

गई थी। 1995 का वह दौर सबको याद होगा।

आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी बनाकर एक खास जाति में जोश भर दिया था। नतीजा सबके सामने है। चार सीटों पर लड़कर भी आनंद मोहन विधायक नहीं बन पाए थे। हां, लालू प्रसाद को कुछ हद तक सफलता इसलिए मिलती दिख जाती है कि उन्होंने जातियों का समीकरण बनाया।

मंडल आरक्षण के सहारे रोजगार के सपने दिखाए। बहुमत को अच्छा लगा तो लालू को आजमा लिया, किंतु एक अवधि के बाद जब उम्मीदें पूरी होती नहीं दिखीं तो नमस्ते करते भी देर नहीं की। 

जातियां ढाई सौ, मगर सीटें 40

बिहार में ढाई सौ से भी अधिक जातियां-उपजातियां हैं, किंतु संसदीय क्षेत्र महज 40 हैं। ऐसे में सभी जातियों को प्रतिनिधित्व देना या उन्हें संतुष्ट करना संभव नहीं है।

बिहार के किसी भी क्षेत्र में किसी एक जाति की आबादी 20 फीसद से ज्यादा शायद ही हो। इसका मतलब यह हुआ कि उस क्षेत्र की करीब 80 फीसद आबादी विभिन्न जातियों की है। अगर सभी जातियों में जागृति आ

जाएगी और सब अपनी-अपनी जाति के प्रत्याशी को ही वोट देने लगेंगे तो समझा जा सकता है कि 20 फीसद आबादी अकेले क्या कर लेंगी?

दूसरी तरफ 80 फीसद वाले अगर एकजुट हो जाएंगे तो जाति की राजनीति करने वालों की क्या गति होगी? शायद इसी खतरे को भांपकर बिहार में अब बड़ी संख्या वाली विभिन्न जातियों का गठबंधन होने लगा है। 

अबकी 229 जातियां टिकट से वंचित

बिहार में अबकी दो प्रमुख गठबंधनों में आरपार की लड़ाई है। दोनों गठबंधनों द्वारा कुल 21 जातियों से ही प्रत्याशी चुने गए हैं। यह बिहार में जातियों की कुल संख्या के 10 फीसद से भी कम है। टिकट बंटवारे में ढाई

सौ जातियों में से सिर्फ 21 की भागीदारी का मतलब यह कि 229 जातियों की उपेक्षा की गई है।

ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि टिकट से वंचित जातियों के लोग क्या करेंगे? अपना वोट किसे देंगे? इस फैक्ट से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अन्यान्य जातियों के वोटर अगर एकजुट हो जाएं तो किसी खास जाति की बहुलता वाले क्षेत्र में भी अपने पसंदीदा और लोकप्रिय प्रत्याशी को विजयी बना सकते हैं।

कई बार ऐसा होता भी आया है। ज्यादा आबादी वाली जाति का अलोकप्रिय प्रत्याशी हार गया है और कम संख्या वाली जाति का प्रत्याशी जीत गया है। वैसे अन्य जातियों के मतदाताओं ने किस आधार पर ज्यादा आबादी वाले

प्रत्याशी को हराया, इसकी अलग वजह और व्याख्या भी हो सकती है।

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