सोना उगलने वाली किउल नदी बनी मरुभूमि

लखीसराय। लखीसराय की लाइफ लाइन मानी जाने वाली किउल नदी का अस्तित्व अब खतरे में है। लाल रेत के रूप में

By Edited By: Publish:Sat, 26 Mar 2016 07:10 PM (IST) Updated:Sat, 26 Mar 2016 07:10 PM (IST)
सोना उगलने वाली किउल नदी बनी मरुभूमि

लखीसराय। लखीसराय की लाइफ लाइन मानी जाने वाली किउल नदी का अस्तित्व अब खतरे में है। लाल रेत के रूप में सोना उगलने वाली इस नदी में सिर्फ मिट्टी बची है। कभी काफी चौड़ी और पानी से लबालब रहने वाली यह नदी आज मरुभूमि बन गई है। बारिश कम होने एवं पानी की धारा सूख जाने के कारण इस नदी में उत्तम क्वालिटी के बालू का अभाव हो गया है। इस कारण इस पर आश्रित रहने वाले हजारों मजदूरों का जीवन भी संकट में है। जमुई की तरफ नदी के कुछ भाग में ही अब अच्छे क्वालिटी का बालू है। नदी में पानी नहीं आने से जलीय प्राणी पहले ही समाप्त हो चुके हैं। मरुभूमि के रूप में शहर के एक किनारे को छूते किऊल नदी का अस्तित्व लगभग समाप्त हो चुका है। बारिश नहीं होने के कारण पठारी नदियों से जलश्रोत नहीं बन पाने के कारण इस नदी ने अपना अस्तित्व खो दिया है। इससे बड़ा संकट जिले की एक बड़ी आबादी पर आ पड़ी है। जलीय प्राणी नष्ट होने के साथ ही बालू की क्वालिटी भी नहीं रही। ऐसे में अब नदी के नाम पर सिर्फ रेगिस्तान ही बचा है। ढ़ेर सारे लोगों की जीविका का साधन भी धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है।

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उत्तरी छोटा नागपुर के पहाड़ों से है उद्गम स्थल

किऊल नदी का उद्गम स्थल उत्तरी छोटा नागपुर का पहाड़ है। झारखंड के गिरिडीह जिले में स्थित तीसरी हिल रेंज से यह नदी पहाड़ों से गिरकर जमुई के रास्ते लखीसराय पहुंचती है और यहां हरूहर नदी में मिलकर फिर मुंगेर जिले में गंगा में मिल जाती है। इस नदी की कुल लंबाई लगभग 111 किमी है। इस दूरी में दर्जन भर पहाड़ी नदियां इसमें मिलती है और अलग भी होती है। पहाड़ी नदी के कारण ही इस नदी का बालू लाल होता है। लाल बालू का इस्तेमाल विभिन्न तरह के निर्माण कार्य में किया जाता है। आर्थिक उपार्जन का सशक्त माध्यम यह नदी सरकार को खूब राजस्व देती रही है। अकेले लखीसराय जिले में इस नदी के बालू की निविदा 25 करोड़ में अंतिम बार हुई है।

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कभी लबालब आज पानी को मोहताज

झारखंड के अलावा बिहार के जमुई और लखीसराय की लाइफ लाइन किऊल नदी में कभी लबालब पानी रहता था। पानी के तेज बहाव के कारण पहाड़ों के पत्थरों के टुकड़ों का चूर्ण बालू बनकर पानी के साथ आता था। बारिश के मौसम के बाद नदी लाल रेत से सोने की खेत की तरह चमचमाती थी। पर अब वो दिन इतिहास बन बन गए हैं। बारिश कम होने की वजह से पानी के साथ बालू का बहाव अब नहीं के बराबर हो रहा है। यही कारण है कि बालू की क्वालिटी अब पहले जैसी नहीं रही। वहीं संवेदक को भी राजस्व का घाटा होने लगा। इस कारण फिलहाल नदी से बालू का खनन बंद है।

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