खुद बजने लगते हैं साहब

साहब सरकारी दफ्तर में मुलाजिम हैं। बडे ही कड़क स्वभाव के हैं। कौन सी फाईल किस गति स

By Edited By: Publish:Mon, 26 Sep 2016 02:50 AM (IST) Updated:Mon, 26 Sep 2016 02:50 AM (IST)
खुद बजने लगते हैं साहब

साहब सरकारी दफ्तर में मुलाजिम हैं। बडे ही कड़क स्वभाव के हैं। कौन सी फाईल किस गति से दौडे़गी, इसका बखूबी ज्ञान रखते हैं। उनके कड़क स्वभाव के कारण आसपास के छोटे बाबू थोड़ा सहमे-सहमे रहते हैं। साहब की कुर्सी ऐसी है कि आम लोगों को बराबर उनसे जरूरत पड़ते रहता है। कहते हैं कि हर किसी की कोई न कोई कमजोरी होती है। साहब की भी एक कमजोरी है और वे हैं श्रीमति जी। वैसे तो साहब दफ्तर में खूब बजाते हैं मगर श्रीमति जी के सामने खुद बजने लगते हैं। जैसे श्रीमति जी उन्हें बजाती हैं। कौन सा स्टेशन बजना है यह श्रीमति जी तय करती हैं। हालांकि इसका पता हमें काफी बाद में लगा। हमें क्या आसपास काम करने बाले मुलाजिम भी काफी दिनों बाद इस सच्चाई से अवगत हुए। तब हमें भी इस बात की जानकारी हुयी। साहब को छपास की बीमारी भी है। इस लिहाज से मुझसे ठीक-ठाक पटता है। दफ्तर में काम करने बाले लोगों को जब साहब की कमजोरी का पता चला तब कानाफुसी शुरू हो गई। लोग इसका मजा भी लेते। उन्हें तसल्ली होती थी कि चलो कहीं तो इनकी बजती है। जब कानाफुसी तेज हुई तो यह बात साहब के कान तक भी पहुंच ही गई। खैर दिन बीतता गया। एक दिन की बात है कि साहब का फोन आया। उस समय मैं थोड़ा दूसरे काम में व्यस्त था। मैंने बोला थोड़ी देर में आपसे मिलता हूं, और फोन काट दिया। अपना काम निपटाकर मैं उनके पास गया। सामान्य शिष्टाचार निभाया। आस पास बैठे कर्मी बडे़ ही आश्चर्य भाव से हम दोनों को देख रहे थे। बहरहाल बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पूर्व की तरह कुछ बातें बतानी शुरू की जो उनके छपास की बीमारी से जुड़ी थी। मैं भी नोट करने में लगा रहा। अभी कुछ अल्फाज ही लिखे थे कि साहब का विश्वासपात्र नौकर अचानक अवतरित हो गया। साहब से मुखातिब होकर सपाट शब्दों में कहा- मालकिन डेरा पर बुला रहीं हैं। अब मालकिन का नाम सुन साहब की सासें फुलने लगी। मानों उनके माथे पर बल पड़ गये। इस समय क्या बात हुयी। खैर बातचीत का सिलसिला थम गया। साहब बोले-बस अभी आता हूं। कहकर चले गए। करीब आधे घंटे बाद वे वापस लौटे। जब लौटे तो माथे पर पसीने का बूंद साफ इशारा कर रहा था कि साहब की बज गई है। आते ही साहब मुझसे मुखातिब हुए बगैर किसी फाईल को ढुंढने में लग गए। वे फाइल को ढूंढ़ने में काफीे परेशान थे । उन्होंने फाईल को ढुंढ़ने के लिए अपने अर्दली और एक-दो स्टाफ को भी लगाया। इसी बीच एक महोदय आए और अपना नाम साहब को बताया। साहब ने बड़े सम्मान के साथ उस महोदय को उपर से नीचे तक देखा और कुर्सी पर बैठाया। मेरा माथा ठनका। इतना आदर सत्कार तो साहब किसी को देते नहीं हैं, खासकर आम आदमी को। फिर इसमें ऐसी क्या बात हो गयी। बहरहाल फाइल मिली। और उसे साहब ने बड़े ही गौर से पढ़ा। उसके बाद उसपर कुछ लिखा और फाईल लेकर अपने बड़े साहब के चैम्बर की ओर चल दिए। मैं वहां बैठा और साहब में अचानक आए इस बदलाव को समझने की कोशिश करने लगा। पास में ही बैठे महोदय से इस रहस्य को समझने लगा। तब पता चला कि जिस फाईल पर साहब कुंडली मारकर बैठे थे वह फाईल उस महोदय से जुड़ी थी। दरअसल महीनों से फाइल की स्थिर अवस्था को देख महोदय परेशान थे। दरअसल साहब के दफ्तर के हीं किसी बाबू ने ही सलाह दी थी कि फाईल की गति बढ़ानी है तो श्रीमति जी के यहां अप्रोच भिड़ाइए। महोदय ने श्रीमति जी के पास पैरवी भिड़ाया। नतीजा सामने था। तब मैंने जाना कड़क मिजाज बाले साहब की कमजोरी। कुछ देर बाद साहब बाजू में फाइल दबाए वापस लौटे। फाइल तो ऐसे पकड़े थे कि कहीं कोई छीन न ले। साहब के चेहरे पर सुकुन का भाव था। महोदय से मुखातिब होकर साहब बोले-लिजिए आपका काम हो गया। अब आगे से जरूरत हो तो मुझसे मिलिएगा। वहां जाने की क्या जरूरत थी। खैर अपनी जरूरत का काम निपटाकर मैं भी वहां से चलते बना। मन ही मन सोंच रहा था साहब की तो खूब बजती होगी।

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