अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने की थी मां वनदुर्गा की स्थापना, जानिए... यहां के विशेष पूजा का महत्‍व

अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने स्थापित की थी मां वनदुर्गा की प्रतिमा। इस संबंध में क्‍या राय है किस-किस दिन होती हैं मंदिर में इनकी विशेष पूजा। कब लगता है यहां विशाल मेला। जानिए...

By Dilip ShuklaEdited By: Publish:Thu, 03 Sep 2020 11:42 AM (IST) Updated:Thu, 03 Sep 2020 11:42 AM (IST)
अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने की थी मां वनदुर्गा की स्थापना, जानिए... यहां के विशेष पूजा का महत्‍व
अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने की थी मां वनदुर्गा की स्थापना, जानिए... यहां के विशेष पूजा का महत्‍व

सुपौल, जेएनएन। सुपौल जिला मुख्यालय से 10 किमी पूरब हरदी गांव स्थित मां वनदुर्गा की पूजा अर्चना किए जाने की सदियों से अनूठी परंपरा चली आ रही है। जनश्रुति के अनुसार पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान वन में एक पेड़ के नीचे पूजा अर्चना के लिए मां दुर्गा की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। वन में होने के कारण उनकी यह प्रतिमा वनदुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। माता को भी वहां एक बेर के पेड़ की छांव तले अज्ञात रूप में रहना ही रास आने लगा। स्थानीय भक्तों ने शहर में उनके लिए मंदिर बनवा कर उन्हे ंविराजित करने की कई कोशिशें कीं। लेकिन चारदीवारी में कैद रहना पसंद न होने कारण हर बार कोई न कोई विघ्न आ जाने से वैसा नहीं हो पाया। हाल के समय में पुरोहितों व श्रद्धालुओं ने वनदुर्गा से पुन: मंदिर में विराजने की प्रार्थना की गई। कहा जाता है कि इस बार उन्होंने उनकी गुहार सुन ली। इससे अब वे भव्य मंदिर में स्थापित हैं।

कोसी सीमांचल से मिथिलांचल तक है वनदुर्गा की ख्याति

देवी के अति जाग्रत होने व भक्तों की मनोकामना पूरी करने के कारण दूर दूर तक इनकी ख्याति है। सालों भर इनकी पूजा आराधना के लिए कोसी, सीमांचल से लेकर मिथिलांचन तथा नेपाल के श्रद्धालु इनकी पूजा व दर्शन के लिए आते रहते हैं। मनोकामना पूरी होने पर श्रद्धालु वनदेवी की विशेष पूजा अर्चना करते हैं तथा बलि भी चढ़ाते हैं। इससे सालोभर इस मंदिर में आध्यात्मिक माहौल बना रहता है।

पांडवों ने की थी देवी की प्राण प्रतिष्ठा

कहा जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने अज्ञात वास के दौरान घने जंगल में एकांतवास करने के दौरान माता दुर्गा की पूजा करने के लिए इस मूर्ति की स्थापना की थी। पुरोहितों के अनुसार माता का यह कौमारी रूप है। कहा जाता है कि अज्ञातवास के दौरान विराटनगर जाने के दौरान विश्रामावधि में पांडवों द्वारा हरदी में मां वनदुर्गा की स्थापना कर पूजा अर्चना की गई थी।  इस देवी को अत्यंत जाग्रत माना जाता है। वन में स्थापित होने के कारण भक्तों के बीच वे वनदुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। वन में रहना देवी को रास आने लगा। आधुनिक काल में जब उनके भक्तों ने उन्हें मंदिरों में स्थानांतरिक करने की कई बार कोशिशें कीं। लेकिन चारदिवारी में कैद रहना देवी को पसंद न आने के कारण उनके सारे प्रयास व्यर्थ चले गए। हाल के कुछ वर्षों में भक्तों व पंंडों द्वारा देवी को मंदिर में स्थापित करने की प्रार्थना की गई तो उनकी प्रार्थना उनके द्वारा कबूल कर ली गई। इससे पिछले कुछ वर्षों से भव्य मंदिर में उनकी पूजा अर्चना की जा रही है।

वीर लोरिक भी थे वनदुर्गा के उपासक

शक्ति के उपासक वीर लोरिक भी मनोकामना पूरी करने वाली मां वनदुर्गा के उपासक थे। कुछ विद्वानों का कहना है कि उन्होंने ही हरदी में मां भगवती की मूर्ति की स्थापना की थी। वे नित्य देवी की पूजा आराधना करते थे। आसपास के ग्रामीण भी नित्य इस प्रतिमा की पूजा करते आ रहे हैं। आज भी इस मंदिर में मंगलवार व शुक्रवार की पूजा को विशेष महत्ता प्राप्त है। कार्तिक पूर्णिमा के पर यहां वर्षों से विशाल मेले का आयोजन होता आ रहा है। उसमें  लोकदेव लोरिक की भी प्रतिमा बनाकर पूजा किए जाने की परिपाटी चली आ रही है। उस अवसर यहां कोसी, सीमांचल, मिथिलांचल से लेकर नेपाल तक के श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है।

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