भारतीय भोजन का स्वाद बढ़ाने वाले ये जंगली मसाले हैं बहुत ही खास
भारतीय भोजन का स्वाद यूं ही इतना अलहदा नहीं। इसमें छिपा राज है कुछ जंगली मसालों का भी। सुनने में भले ही यह अजीब लगे मगर हमारे देश के कई प्रदेशों में ऐसे मसाले इस्तेमाल करते हैं।
पुष्पेश पंत
प्रागैतिहासिक काल में हमारे पुरखे वनवासी थे और आखेट करने या खोजबीन के दौरान जो कुछ भी मिलता, उसी को अपना आहार बनाते थे। इसी लिए इतिहासकारों ने उन्हें शिकारी-संग्रहकर्ता नाम दिया है। इस दौर में खाने की सभी चीजें जंगल से प्राप्त होती थीं। इसी तरह जानवरों तथा वनस्पतियों को 'पालतू' बनाने का कौशल लाखों वर्ष में अर्जित किया जा सका। आज यदि कोई खाने का पदार्थ जंगली कहलाता है तो सुनने वालों को अटपटा लगता है। जबकि हकीकत यह है कि मसालों की दुनिया में कुछ जडी-बूटियां इसी श्रेणी में रखी जा सकती हैं और दुर्लभ होने के कारण बहुमूल्य बन चुकी हैं। उत्तराखंड के तिब्बत-नेपाल की ऊंचाई पर स्थित गांवों में लोकप्रिय जंबू तथा गंदरैणी, जखिया और दुन इसी के उदाहरण है।
स्वाद का पुनर्जन्म
जंबू को अंग्रेजी में 'हिमालायन चाइव्स' कहते हैं और वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार यह प्याज के विस्तृत परिवार का सदस्य है। सूखी घास के तिनके या कोमल रेशे जैसा दिखलाई देने वाला जंबू अपनी तेज (सु)गंध और स्वाद के लिए जाना जाता है। पारंपरिक रूप से इसे हिमालयी चारागाहों में गर्मियां बिताने वाले भोटांतिक घुमंतू शौका(उत्तराखंड की जनजाति) व्यापारी अपने साथ लाते थे। लहसुन और प्याज जैसे तामसिक पदार्थों से परहेज करने वाले पहाड़ी ब्राह्मण खुशी-खुशी जंबू का इस्तेमाल बघार लगाने में करते रहे हैं। हालांकि 1962 में भारत-चीन सीमा विवाद के बाद इस व्यापार में व्यवधान पड़ गया। तिब्बत से आने वाला जंबू लुप्त हो गया और पहाड़ी मेलों में केसर के भाव बिकने वाले जंबू के ग्राहक भी निरंतर कम होते गए। हाल के वर्षो में इस अंचल में पर्यटन बढ़ा है और इसी बहाने मैदानी मेहमानों का परिचय जंबू से हुआ है। जंबू को नमक के साथ पीसकर बरतना इसके पुनर्जन्म का संकेत दे रहा है। पड़ोसी नेपाल के मुस्तांग वाले इलाके में भी बेहतरीन किस्म का जंबू मिलता है जिसके औषधीय गुणों के बारे में जानकारी फैलने के कारण इसका व्यापार पनपता जा रहा है।
सात्विक विकल्प है जंगली सरसों
जैसी लोकप्रियता कुमाऊं में जंबू (जिंबू) की है वैसी गढ़वाल वाले इलाके में जखिया को प्राप्त है। इसे अंग्रेजी में वाइल्ड कस्टर्ड यानी जंगली सरसों कहते हैं। काली राई के छोटे-छोटे दानों की शक्लवाले जखिया में राई या सरसों का तीखापन नहीं होता और यह जंबू की तरह लहसुन-प्याज का सात्विक विकल्प माना जाता है। आलू तथा दूसरी सब्जियों-दाल आदि में इसका छौंक उन्हें असाधारण रूप से स्वादिष्ट बना देता है।
गीत के बोल में सजा मसाला
गंदरैणी को 'वाइल्ड सेज' के रूप में पहचाना जाता है। इसकी फितरत जंबू और जखिया जैसी ही होती है पर उनकी तुलना में यह जरा मद्धिम होती है। इसका प्रयोग पश्चिमी खान-पान में आम है। 1960 के दशक में सायरन और गारफंकलल के एक मशहूर गीत की शुरुआत ही इसके तथा दूसरी जड़ी बूटियों के नामोल्लेख से होती है। जब तक एशिया के मसाले यूरोप तक नहीं पहुंचे थे, तब तक उस महाद्वीप के खाने को स्वाद और गंध इन्हीं से प्राप्त होती थी। जादू-टोने और औषधियों में भी इनका इस्तेमाल होता था। वहीं बात अगर दुन की करें तो इसका स्वाद लहसुन जैसा होता है और आमतौर पर इसे पालक जैसी हरी सब्जी में बरतते हैं। दुन और जखिया जंबू तथा गंदरैणी की तरह नेपाल-तिब्बत से नहीं मिलते। यह स्थानीय जंगलों की सौगात थे।
यह तो मात्र हिमालयी अंचल के जंगली मसालों की छोटी सी सूची है। हमारे देश के विभिन्न वनाच्छादित प्रदेशों में जनजातियां जाने कितने ऐसे मसालों का उपयोग करती रही हैं!
(लेखक प्रख्यात खान-पान विशेषज्ञ हैं)