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अक्टूबर नहीं अप्रैल में देखने को मिलती है पटोंदा में रामलीला, 15 दिनों तक चलता है यह उत्सव

जहां देशभर में अक्टूबर में रामलीला देखने को मिलती है वहीं राजस्थान के पटोंदा गांव में अप्रैल माह में 15 दिनों की रामलीला होती है। जो 10 अप्रैल से शुरु होकर 24 अप्रैल तक चलेगी।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Mon, 08 Apr 2019 05:00 PM (IST)Updated: Mon, 08 Apr 2019 05:00 PM (IST)
अक्टूबर नहीं अप्रैल में देखने को मिलती है पटोंदा में रामलीला, 15 दिनों तक चलता है यह उत्सव
अक्टूबर नहीं अप्रैल में देखने को मिलती है पटोंदा में रामलीला, 15 दिनों तक चलता है यह उत्सव

राजस्थान के बारां जिले की अंता तहसील के पटोंदा गांव की रामलीला एक अनूठी लोक-परंपरा है। जहां देश भर में रामलीला आश्रि्वन के शुक्ल पक्ष (अक्तूबर माह) में दस दिनों तक मनाई जाती है, वहां यह रामलीला चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी से वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी तक (अंग्रेजी के अप्रैल माह में) 15 दिनों तक मनाई जाती है। यहां के लोग रामलीला को पूरी तरह से भगवान राम की कथा मानते हैं, इसलिए इसका केंद्र रावण वध नहीं बल्कि भगवान राम होते हैं। और यही वजह है कि यहां रामलीला चैत्र की रामनवमी के आसपास मनाते हैं।

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गायकी है अलग

भारतवर्ष के अलग-अलग गांवों में होने वाली हजारों रामलीलाओं में से ही एक है यह रामलीला, लेकिन जो इसे दूसरी रामलीलाओं से अलग करती है, वह है इसकी गायकी। यह रामलीला भारतवर्ष की उन तीन हिंदी-भाषाई रामलीलाओं में से एक है, जो खासतौर से गाकर की जाती हैं। अन्य दो रामलीलाएं हैं उत्तराखंड की कुमाऊंनी रामलीला, और अब लगभग समाप्त हो चुकी रोहतक तथा हरियाणा के अन्य क्षेत्रों में मनाई जाने वाली सरदार जसवंतसिंह वर्मा टोहानवी लिखित हरियाणवी रामलीला। ओडिशा के कंधामल जिले के बिसिपाड़ा गांव की अप्रैल में ही होने वाली लंकापदी जात्रा नामक रामलीला उडि़या-भाषी गेय रामलीला है, जिसमें बड़े पैमाने पर मुखौटों का प्रयोग होता है।

गुरु गनपतलाल ने की थी इसकी शुरुआत

लगभग चार हजार जनसंख्या वाला पटोंदा गांव कोटा से पैंसठ किमी. की दूरी पर चंबल की सहायक नदी काली सिंध के किनारे पर ऊबड़-खाबड़ चट्टानी जमीन में स्थित है। आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले एक दाधीच ब्राह्मण गुरु गनपतलाल ने इस सांगीतिक रामलीला को प्रारंभ किया था, जिसे उन्होंने बाल्मीकि की रामायण और तुलसी की रामचरितमानस के आधार पर लिखा था। उनकी शिक्षा-दीक्षा काशी में हुई थी।

इस विषय पर रामलीला

परंपरा और शैलियां पुस्तक में डॉ. इंदुजा अवस्थी ने लिखा है कि इस रामलीला के शुरू होने से पहले यहां केवल तीन दिन का 'समाया' आयोजित किया जाता था, जिसमें स्वयंवर तक की ही कहानी दर्शाई जाती थी। पूरी रामलीला काफी बाद में गुरु गनपतलाल ने ही शुरू करवाई थी। उनकी यह रामलीला राजस्थानी भाषा की हाड़ौती उपभाषा में लिखी गई है। हाड़ौती पर ऊंचे सुर वाली प्राचीन डिंगल भाषा का प्रभाव है, जोकि प्राचीन और मध्यकाल में राजस्थान, गुजरात, सिंध इत्यादि क्षेत्रों में बोली जाती थी। लगभग एक दर्जन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में लिपिबद्ध इस रामलीला की पुस्तकें इसके प्रमुख आयोजकों में से एक, शिक्षक रह चुके, लगभग पिचहत्तर वर्षीय मोहनलाल नन्दवाणा के घर में सुरक्षित रखी जाती हैं, आख्यान की शुचिता बनाये रखने के लिए इनके प्रकाशन पर रोक है। आसपास के गांवों के कुछ लोग इसके आख्यान और इसकी धुनों को सुन कर यही रामलीला अपने यहां भी करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे नकल ही साबित होती हैं।

संगीत इस गेय रामलीला का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। लोक-शैली ढाई कड़ी में लिखी गई चौपाईयां प्रमुखत: खड़ी बोली और रीला तर्ज में संगीतबद्ध किए गए हैं। राजस्थान, हरियाणा इत्यादि क्षेत्रों में लोक-गायन में ढाई कड़ी बहुधा प्रयोग की जाती है। रामलीला की गायकी में व्यावसायिक गायकों का कोई स्थान नहीं है – गांव के साधारणजन ही इसमें गाने-बजाने और अभिनय का भी काम करते हैं। पहले गायन के साथ संगीत के लिए सारंगी से मिलता-जुलता एक यन्त्र चिकारा, तबला और मंजीरा प्रयोग में लाए जाते थे। अब चिकारा की जगह वायलिन और हारमोनियम का भी प्रयोग होने लगा है।

स्थानीय लोग खुद करते हैं इसकी तैयारी 

इस रामलीला में स्त्री व पुरुष सभी पात्र आदमियों के द्वारा ही निभाए जाते हैं। पहले गांव के लोग खुद ही पगडि़यां और अन्य पोशाकें बना लिया करते थे। पुरुष धोती-कुरता और सदरी पहनते थे, जबकि स्त्री-पात्र लहंगा-चोली और ओढ़नी पहनते थे। गांव के लोग पात्रों के लिए अपने सोने के असली गहने दिया करते थे। रंगभूषा (मेकअप) के लिए भी स्थानीय वस्तुओं से ही रंगभूषा के साधन बना लिए जाते थे। परंतु अब मथुरा से शनील की रेडीमेड पोशाकें ले आई जाती हैं। सीताजी भी पारंपरिक लहंगा-चुनरी के स्थान पर नायलॉन की साड़ी पहनती हैं, हालांकि पारंपरिक पगडि़यां और साफे अब भी प्रयोग हो रहे हैं। मेकअप के लिए भी बने-बनाए साधन ही प्रयोग में लाए जाने लगे हैं। इस रामलीला में मुखौटों का प्रयोग नहीं होता है।

प्रकाश के लिए पहले अलसी के तेल की मशालों का प्रयोग होता था, फिर बाद में मिट्टी के तेल के पेट्रोमैक्स प्रयोग होने लगे। आजकल इसमें बिजली का प्रयोग होने लगा है। आसपास के गांवों से भी लोग इस रामलीला को देखने आते हैं। रामलीला काफी देर से शुरू होती है, और रात में काफी देर तक, लगभग सुबह होने तक चलती है। यह रामलीला गांव के अन्दर बने लगभग ग्यारहवीं शताब्दी के प्राचीन लक्ष्मीनारायण मंदिर के सामने खुले प्रांगण में होती है। अभिनय-स्थल पर पक्की छत वाला एक स्ट्रक्चर बनाया गया है, जिसमें एक पक्का स्थायी सिंहासन भी बना लिया गया है। दरबार, वन, महल इत्यादि दिखाने के लिए पदरें का प्रयोग किया जाता है।

15 दिनों तक चलती है रामलीला

पंद्रह दिनों तक चलने वाली इस रामलीला में तीन सवारी निकाली जाती हैं – रामलीला के पहले दिन श्री गणेश जी को लीला में आमंत्रित करने के लिए, लीला के चौथे दिन अर्थात स्वयंवर वाले दिन रामचंद्र जी की बरात, और लीला के छठे दिन, अर्थात दशमी वाले दिन तीसरी सवारी निकाली जाती है, जिस दिन पुतले भी फूंके जाते हैं, हालांकि लीला में रावण का वध लीला के अंतिम दिन ही होता है। एक मजेदार बात जोकि इंदुजा अवस्थी ने अपनी पुस्तक में लिखी थी, कि इस रामलीला में पुतले दहन करने की प्रथा नहीं थी, उसकी जगह लगभग दर्जन-भर जल से भरे कुम्भों से रावण बनाया जाता था, जिन्हें राम और गांव के अन्य लोग रावण के वध के प्रतीक-रूप में फोड़ा करते थे। यह प्रथा कब पुतले फूंकने में बदल गई, गांव के लोगों को याद नहीं है। (इस वर्ष लीला 10 अप्रैल से 24 अप्रैल तक होगी)। 


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