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सुकून के साथ नेचर के बीच बिताना हो समय, तो लैंसडाउन है बहुत ही अच्छी जगह

उत्तराखंड का लैंसडाउन ऐसी जगह है जहां सुकून के साथ प्रकृति के बीच समय बिताना हो तो यहां आया जा सकता है। कम बजट में भी आराम से यहां घूमने-फिरने का मज़ा लिया जा सकता है।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Thu, 02 May 2019 11:51 AM (IST)Updated: Thu, 02 May 2019 11:51 AM (IST)
सुकून के साथ नेचर के बीच बिताना हो समय, तो लैंसडाउन है बहुत ही अच्छी जगह
सुकून के साथ नेचर के बीच बिताना हो समय, तो लैंसडाउन है बहुत ही अच्छी जगह

महानगर के समीप अगर कोई हिल स्टेशन हो, तो आज की भागती जिंदगी के लिए वह सोने पर सुहागे से कम नहीं है। दिल्लीवासियों के लिए उत्तराखंड या हिमाचल प्रदेश के पर्यटन स्थल सबसे पसंदीदा वीकेंड गेटवेज में से एक हैं। खासकर, ऋषिकेश, मसूरी, नैनीताल, शिमला, मनाली आदि। लेकिन यहां कई बार भीड़ छुट्टियों का मजा किरकिरा भी कर देती है। इनमें उत्तराखंड का लैंसडाउन थोड़ा अलग है, जहां सुकून के साथ मिलता है प्रकृति के बीच समय बिताने का मौका...

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प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक लाओ सू ने कहा था कि एक अच्छे यात्री की कोई निश्चित योजना नहीं होती है और न ही वह कहीं पहुंचने की इच्छा या अभिलाषा रखता है। वह बस चलते ही रहना चाहता है। हमारे घुमक्कड़ों का समूह भी कुछ ऐसी ही ख्वाहिश रखता था। इसलिए मौका मिला नहीं कि मन शहर से बाहर निकलने को आतुर हो जाता है। वीकेंड पर लैंसडाउन जाने का प्लान भी यूं ही बन गया। दिल्ली से करीब 270 किमी. की दूरी पर स्थित पहाड़ी स्थल सैलानियों की भीड़-भाड़ से अभी भी काफी हद तक बचा हुआ है। तय हुआ कि अहले सुबह पौ फटने से पहले निकल पड़ेंगे, जिससे ट्रैफिक की बाधा न मिले। हमने दिल्ली-मेरठ-बिजनौर-कोटद्वार रूट लिया। रात का अंधेरा छट रहा था और उजाला होने को था, जिससे शहर से बाहर निकलते देर नहीं लगी। उसके बाद तो धुला-धुला आकाश और हरे-भरे खेत देख मन शांत और हल्का होने लगा। मानो पुराना छूट रहा हो और कुछ नया मिलने वाला हो। लगभग दो घंटे का सफर बीतने के बाद सभी को चाय की तलब सताने लगी। हम सब एक ढाबे पर रुके, जो किसी होटल से कम नहीं था। वहीं, लॉन में टेबल सजा और सबने गर्मा-गर्म चाय-कॉफी-नाश्ता किया और फिर बढ़ चले गंतव्य की ओर।

कुछ जादुई-सा मिलेगा नजारा

गाड़ी पूरी रफ्तार में हवा से बातें करते हुए आगे बढ़ रही थी। म्यूजिक के साथ कुछ सदस्य नींद का मजा ले रहे थे, तो कुछ यादों में डूब गए थे। वक्त गुजरते देर नहीं लगा और हम कोटद्वार के करीब पहुंचने वाले थे। वहां से लैंसडाउन तकरीबन 40 किमी. दूर था। ग्रुप के ज्यादातर साथी पर्वतप्रेमी थे, लिहाजा सभी पहाड़ों का दीदार होने का इंतजार कर रहे थे। उतावलापन बढ़ रहा था कि अब तक पहाड़ नजर क्यों नहीं आ रहे? लेकिन जैसे ही कोटद्वार पीछे छूटा, भू-दृश्य बदलने लगा। मैदानी इलाका पहाड़ों में गुम हो गया। गाड़ी के शीशे उतारे, तो हवा का स्पर्श भी बदल चुका था। गढ़वाल का हिमालय सामने था और चारों ओर का अद्भुत प्राकृतिक नजारा सब पर जादू-सा असर कर रहा था। लैंसडाउन की दूरी 10 किमी. ही रह गई थी। कुछ ही समय में हम बादलों से घिरी एक अलग दुनिया में दाखिल हो चुके थे। हालांकि इससे दृश्यता पर असर पड़ रहा था और ड्राइविंग सीट पर बैठे साथी को इशारा कर रहा था कि और सावधानी से चलानी है गाड़ी। क्योंकि पूरी घाटी ने ही बादलों की चादर ओढ़ ली थी। अपने भीतर इस एहसास को समाना भी मुश्किल हो रहा था कि दिल्ली के समीप प्रकृति इतनी नयनाभिराम भी हो सकती है। बहरहाल, जल्द ही हम उस रिजॉर्ट में दाखिल हो गए, जो अगले दो दिनों तक हमारा पड़ाव था।

भुल्ला ताल में नौका विहार

जैसी कि हमें उम्मीद थी और जो बताया गया था लैंसडाउन एक बेहद शांत एवं मनोरम स्थल है। एक्टिविटी से अधिक यहां सुकून के पल बिताने को मिलते हैं। इसलिए हमने पैदल ही इलाके की सैर करने का निर्णय लिया। आपको बता दें कि यह हिल स्टेशन भारतीय सेना की गढ़वाल राइफल्स का कमांड ऑफिस भी है। शायद एक वजह यह भी है कि 1707 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्थल की नैसर्गिक सुंदरता अब भी बरकरार है। पर्यटकों के लिए यहां गिने-चुने ही आकर्षण हैं, जिनमें भुल्ला ताल एक है। यह एक मानव निर्मित झील है, जिसका निर्माण गढ़वाल राइफल्स ने कराया है। इसमें नौका विहार का आनंद लिया जा सकता है। चाहें तो झील किनारे बैठ आसपास के नजारों का लुत्फ उठा सकते हैं। समीप ही एक छोटा-सा हैंडीक्रॉफ्ट शोरूम है, जहां सिल्क और कॉटन की वस्तुएं मिलती हैं। यहां कई ऐसे प्वाइंट्स हैं, जहां आलू टिक्की से लेकर अपने स्वादानुसार खाद्य पदार्थ ले सकते हैं। वैसे, आप स्थानीय बाजार स्थित आर्मी बेकरी के स्नैक्स चखना न भूलें। ये सस्ते होने के साथ काफी स्वादिष्ट भी होते हैं।

सेंट मेरी चर्च में शांति का अनुभव

लैंसडाउन का नाम 1888 से 1894 के बीच भारत के वायसरॉय रहे लॉर्ड लैंसडाउन के नाम पर पड़ा है। अंग्रेजों की उपस्थिति होने के कारण यहां का सेंट मेरी चर्च खासा लोकप्रिय है। पाइन एवं देवदार के जंगल के मध्य स्थित गोथिक स्टाइल के चर्च में प्रवेश करने के बाद असीम शांति का अनुभव होता है। पहाड़ की एक चोटी पर स्थित होने के कारण इस चर्च के पास से संपूर्ण घाटी और हिमालय को निहारने का अपना अलग रोमांच है। सफेद बादलों, हरियाली से भरपूर जंगलों और दूर-दूर बिखरी रिहाइश को देखकर लगता है कि जैसे यह किसी चित्रकार का विशाल कैनवास हो। हममें से कोई यहां से जाने को राजी नहीं था, सो निर्धारित समय से अधिक व्यतीत किए। पर समय कम था और जाना आगे था।

टिप इन टॉप से निहारें घाटी

सेंट मेरी चर्च से हमें ट्रेक करते हुए पहाड़ की एक चोटी तक जाना था, जिसे टिप इन टॉप (टिफनी टॉप) यानी लैंसडाउन का स्नो व्यू प्वाइंट भी कहते हैं। यह भी एक ऐसा स्थल है, जहां अपनी चिंताओं को छोड़, विचार शून्य होकर घंटों बैठा जा सकता है। हमने भी यही किया। खामोश पहाड़ों पर मुस्कुराते वृक्षों की हरकतों को देखना, जिनकी डालियां कभी हवा के झोंके, तो कभी पक्षियों की अठखेलियों से लहरा उठती थीं। वहीं, सफेद हिमालय को कौतूहल के साथ एकटक निहारना भी अनूठा एहसास था। वैसे, इस ट्रेक पर जाते हुए ध्यान रखना होता है कि कहीं आप किसी जहरीले पेड़ या पौधे के संपर्क में न आ जाएं। तारकेश्र्वर मंदिर में दर्शन शिव के पहले दिन हमने अधिकांश लोकप्रिय स्थलों को माप लिया था। अगले दिन की कोई योजना बनाई नहीं थी। लिहाजा मन को बोझिल किए बगैर सबने आराम से नींद पूरी करना तय किया। जब सुबह हुई, तो सूरज की किरणों से नहाई घाटी ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और नया जोश भर दिया। हमने महसूस किया कि तेज रफ्तार जिंदगी में प्रकृति के बीच कुछ पलों का यह ठहराव कितना जरूरी है। खैर, समय का ध्यान रखते हुए हम झटपट तैयार हुए औऱ निकल पड़े तारकेश्र्वर स्थित 600 साल पुराने शिव मंदिर के दर्शन के लिए, जो लैंसडाउन से लगभग 40 किमी. दूर था। सड़क अच्छी थी, लेकिन मैदानी इलाके में कार ड्राइव करने से बिल्कुल अलग अनुभव होता है यहां। आखिरकार मंदिर से 100 मीटर दूर कार पार्क कर हम कुछ ढलान की ओर बढ़ चले, जहां पहले मुख्य द्वार मिला और फिर मंदिर। पूरा इलाका देवदार के घने पेड़ों से पटा हुआ है, जहां कई बार सूरज की रोशनी तक नहीं पहुंचती। इस तरह यह पूरी यात्रा एक यादगार के रूप में दिलो-दिमाग में अंकित हो गई।

 

दरवान सिंह म्यूजियम

प्राकृतिक नजारों के अलावा लैंसडाउन स्थित दरवान सिंह म्यूजियम में रखे बहुमूल्य प्रतीक चिह्नों व संग्रहित वस्तुओं द्वारा गढ़वाल राइफल्स के बारे में जानना भी हमारे लिए कम अविस्मरणीय नहीं था। जिनके नाम पर यह म्यूजियम है, वे ब्रिटिश एवं कॉमनवेल्थ फोर्सेज द्वारा विक्टोरिया क्रॉस से नवाजे गए पहले भारतीयों में से एक थे। हां, आपको बता दें कि इस म्यूजियम में 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के जाने की अनुमति नहीं है और ना ही अंदर की तस्वीरें खींची जा सकती हैं। दोपहर में कुछ घंटे के लिए यह बंद भी होता है। म्यूजियम के बाहर एक सुंदर पार्क है, जहां विभिन्न प्रकार के फूल मन मोह लेंगे। यहीं, सामने गढ़वाल रेजिमेंट का विशाल परेड ग्राउंड भी है, जहां किसी को जाने की इजाजत नहीं है।

कैसे पहुंचें लैंसडाउन?

हवाई जहाज: देहरादून स्थित जॉली ग्रांट एयरपोर्ट से टैक्सी के जरिये पहुंचा जा सकता है।

रेल: कोटद्वार रेलवे स्टेशन से टैक्सी लेकर जा सकते हैं।

सड़क: दिल्ली से सड़क मार्ग के जरिये जाना सबसे अधिक सुविधाजनक है। अच्छी सड़क होने के कारण 5 से 6 घंटे में आराम से पहुंचा जा सकता है।

जाने का समय: यहां का मौसम अमूमन सुहावना ही रहता है। वैसे मार्च से जून के बीच जाना सबसे अच्छा रहेगा। दिसंबर से फरवरी में ठंड अधिक होती है।

अंशु सिंह


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