दुनियाभर में मशहूर हैं अराणमुला की अनोखी बनावट वाले दर्पण, जानें और क्या है यहां खास
खूबसूरती के अलावा केरल का अराणमुला अपनी अनोखी बनावट वाले दर्पण की वजह से भी दुनियाभर में मशहूर है। जानेंगे इन्हें बनाने के तरीकों और खासियत के बारे में।
समय की यात्रा कर लेना ऐतिहासिक स्थलों पर स्वाभाविक क्रिया होती है। इतिहास से जुड़े स्थलों को देखने वाले के रूप में हम उस समय की कल्पना करने लगते हैं जब वह स्थल हमारे समय का इतिहास नहीं बल्कि अपने समय का वर्तमान था। ऐसे में कोई स्थान ऐसा हो जहां इतिहास रोज के जीवन का हिस्सा हो तो कल्पना कीजिये उस आनंद का! धरोहरों से जुड़ी गलियों से प्रतिदिन का गुजरना बहुत आकर्षक होगा न! अराणमुला ऐसी ही जगह है।
कन्नाडी आईने से है खास पहचान
यूं तो अराणमुला की पहचान के लिए बहुत सी बातें हैं लेकिन यहां की सबसे प्रमुख पहचान है 'अराणमुला कन्नाडी' यानी हिंदी में दर्पण या आईना और मलयालम व तमिल में 'कन्नाडी'। यहां का यह दर्पण इस जगह को दुनियाभर में एक खास पहचान देता है। इसकी वैश्विक पहचान को हम ऐसे भी जान सकते हैं कि यह देश के उन खास उत्पादों और जगहों में से जिसे जीआइ (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) टैग मिला हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि अराणमुला कन्नाडी पर किसी और स्थल के लोगों का दावा नहीं हो सकता। अपने अद्वितीय सौन्दर्य और बनाने की रहस्यमय प्रक्रिया के कारण यह आईना विशिष्ट स्थान पाता है। खास बात यह है कि कन्नाडी शीशे के बजाय धातु से बनाए जाते हैं और इसके बनने की प्रक्रिया पीढिय़ों से चले आ रही पारिवारिक परंपरा का हिस्सा है। यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती है। इसे बनाने वाले कुछ ही परिवार ही हैं और उन्हीं के माध्यम से देश विदेश के कला और शिल्प के मर्मज्ञ तक इनकी पहुंच सुनिश्चित होती है। अराणमुला के दर्पणों की विशेषता का एक और कारण है। जहां शीशे के दर्पण में प्रतिबिंब उसकी भीतरी सतह पर किए गए पारे के लेप के कारण बनता है वहीं धातु के इन आईनों में छवि मुख्य सतह पर ही बन जाती है। शीशे वाले दर्पण की भीतरी सतह की गहराई में अंतर होने से छवि में अंतर आ जाता है। हम सबने यह अनुभव किया होगा कि शीशे के अलग-अलग दर्पणों में हमारी छवि अलग-अलग बनती है फिर यदि सस्ते किस्म के दर्पण हों तो छवि टेढ़ी-मेढ़ी भी बनती है। यह स्थिति अराणमुला कन्नाडी के साथ पेश नहीं आती। यही कारण है कि देश-विदेश में इनकी काफी मांग होती है।
मिलें तमिल विश्र्वकर्माओं से
अराणमुला कन्नाडी की बात आते ही इन्हें बनाने वालों के माध्यम से द्रविड़ शैली के मंदिर बनाने वालों के इतिहास और समाजशास्त्र को जानने का मौका मिल जाता है। यह सब भी कम रोचक नहीं है! भारतीय कला और शिल्प का एक बड़ा हिस्सा देशभर में फैले मंदिरों से जुड़ा रहा है। इन दर्पणों को बनाने वालों के पूर्वज मंदिर और वास्तुकला के विशेषज्ञ थे। तमिलनाडु के तिरुनलवेली में एक स्थान है शंकरनकोविल। वहां पाण्ड्य वंश के शासनकाल में वास्तु शिल्पकारों की एक बड़ी आबादी आकर बस गई। जिन द्रविड़ शैली के मंदिरों व उन पर अंकित नक्काशियों को देखकर हम दांतों तले अंगुली दबा लेने पर मजबूर हो जाते हैं, ये सब उन्हीं शिल्पियों की देन है। उनकी प्रसिद्धि समूचे दक्षिण भारत में फैल गई और त्रावणकोर के राजा ने इस विश्र्वकर्मा समुदाय को केरल में द्रविड़ शैली का मंदिर बनाने के लिए आमंत्रित किया। इनमें से तिरुअनंतपुरम का पद्मनाभ स्वामी मंदिर, अराणमुला का पार्थसारथी मंदिर, चेंगनूर का महादेव मंदिर और हरिपाद का श्रीमुरुगा मंदिर आज भी अपनी शान के साथ खड़े हैं। इन शिल्पियों को तमिल विश्र्वकर्मा के नाम से जाना जाता है। इनके अपने मंदिर और देवी मरुतम्मा है जो पार्वती का एक रूप मानी जाती हैं।
कब और कैसे?
अराणमुला जाना केरल में किसी भी अन्य स्थान की यात्रा करने के समान ही आसान है। नजदीकी रेलवे स्टेशन चेंगनूर है और हवाई अड्डा तिरुवनंतपुरम! इन सभी जगहों से यहां आने के लिए टैक्सी और बस की सुविधा आसानी से अवेलेबल है। यहां मानसून के समय आएं या बाद में, मौसम सही रहता है। इतिहास से ज्यादा छेड़छाड़ न करते हुए इस स्थान की पुरानी पहचान को अक्षुण्ण रखा गया है।